मनुष्य सृष्टि का एक तुच्छ सा अल्प संख्यक प्राणी है।

May 1975

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यह संसार मनुष्यों के लिये ही नहीं बना है और न वही सृष्टि का मात्र अधिकारी है। इस पर अनेक प्राणियों का निवास निर्वाह है। यहाँ ऐसी परिस्थितियों का भी सृजन किया गया है जिसमें अन्य प्राणी भी अपनी आवश्यकता पूरी कर सके, भले ही मनुष्य को उस विधान के कारण अड़चन पड़ती हो।

मनुष्य की जन संख्या इस धरती पर मात्र 400 करोड़ के लगभग है। वह एक अल्प संख्यक प्राणी है। समस्त जाति रंग, देश, धर्म, भाषा, संस्कृति वाले मनुष्यों की यह संख्या कुल मिलाकर है, जब कि छोटे इलाके में ही दमक−चींटी−मक्खी−मच्छर जैसे कीड़े उससे भी हजारों गुनी संख्या में मौजूद पाये जायेंगे।

हाथी, गेंडा, सिंह जैसे विशालकाय प्राणी मनुष्यों से कम ही होंगे पर वन्य पशु और पालतू पशु भी मनुष्य की अपेक्षा कई गुने हैं। पक्षियों का तो कहना ही क्या? चिड़ियों की जातियाँ और संख्या मनुष्यों की अपेक्षा अभी भी सैंकड़ों गुनी अधिक है। मक्खी जैसे छोटे आकार के पक्षी तो मनुष्य से करोड़ों गुने अधिक हैं। उनकी तुलना में मनुष्य सर्वथा अल्प संख्यक हैं।

समस्त संसार पर मनुष्य का अधिकार है और होना चाहिये, यह मान्यता सृष्टि के विधान उद्देश्य को चुनौती देने के बराबर है। ऐसे उद्धत अहंकार पर अंकुश लगना चाहिये और माना यह जाना चाहिये कि परमात्मा के अगणित पुत्रों में से एक मनुष्य भी है। वह ज्येष्ठ है, श्रेष्ठ है। उसकी सार्थकता इसी में है कि वह अपनी उत्कृष्ट सज्जनता का परिचय दे। दूसरे प्राणियों को अपना छोटा भाई माने और हिल−मिल कर स्नेह सौजन्य के साथ रहने की बात सोचें।

मनुष्य का बड़प्पन उसकी मनुजता के साथ जुड़ी है। सहयोग और विवेक जैसी सत्प्रवृत्तियों को अपना कर ही वह श्रेय भाजन बना है अन्यथा छोटे−छोटे कीड़े−मकोड़ों में भी अपने−अपने परिवार की ऐसी विशेषताएं हैं जो अपने क्षेत्र में अनेक प्रकार से मनुष्य को भी चुनौती दे सकती हैं और उसे पिछड़ा हुआ सिद्ध कर सकती हैं।

मधु मक्खियों को ही जरा बारीकी से देखें तो उनकी बुद्धिमत्ता और क्रिया−कुशलता देखते ही बनती है। पहाड़ी मधु मक्खी देशी मक्खी की तुलना में कहीं बड़ी होती है। पहाड़ी मक्खी के छत्ते 7 फुट लम्बे और 4 फुट चौड़े पाये जाते हैं। इनमें वर्ष भर में 50 से लेकर 80 पौण्ड तक शहद प्राप्त किया जा सकता है। सबसे छोटी मधु मक्खी जिन्हें ‘लिटिल बीज’ कहा जाता है हथेली के बराबर ही छत्ता बना पाती हैं। उनसे वर्ष में एक पौण्ड शहद मिल जाय तो बहुत है।

बड़े छत्ते में प्रायः 20 हजार मक्खियाँ रहती हैं। वे सभी रानी का अनुशासन मानती हैं। जब रानी बूढ़ी हो जाती है तो अण्डे देना बन्द कर देती है तो उसे अपना सिंहासन खाली करना पड़ता है। उत्तराधिकारी का अभिषेक वह बूढ़ी रानी ही करती है। वह अपने सूतिका गृह को छोड़कर पहली बार बाहर निकलती है। और अपनी विशिष्ट परख के आधार पर वह निर्णय करती है कि इतने बड़े परिवार में कौन मक्खी निरन्तर अण्डे देते रह सकने योग्य है। प्रायः दस दिन में यह कार्य पूरा हो जाता है और नई रानी आकर उस आसन पर आ विराजती है।

रानी मक्खी जिन्दगी भर में केवल एक बार ही नर समागम करती है। उससे प्राप्त शुक्राणुओं को वह अपने पेट में विशिष्ट थैली में संग्रह कर लेती है। रानी का जीवन एक वर्ष से लेकर दो वर्ष तक होता है। वह प्रौढ़ होते ही प्रतिदिन प्रायः 1000 अंडे देने लगती है। उनका पालन पोषण दाइयाँ करती हैं। रानी के लिये तो अंडे देने भर का काम है। अण्डा तीन दिन के बाद ‘लार्वा’ के रूप में होता है, उसके हाथ−पैर−मुँह आदि कुछ नहीं होते। इन्हें दाई मक्खियाँ अपनी सिर की ग्रन्थियों से निकलने वाले दूध को पिलाकर पालती हैं। अण्डा तीन दिन लार्वा रहने के बाद ‘प्यूपा’ बन जाता है और उसमें से मक्खी निकल जाती है। यदि यह बच्चा मजूर जाति का है तो उसे छत्ते में रहने दिया जाता है अन्यथा दल द्वारा उसे अन्यत्र ही खदेड़ दिया जाता है।

छत्ते को छेड़ने वाले शत्रुओं पर उसके रक्षक प्राणघाती हमला करते हैं। उनका डंक टेढ़ा होता है, उसे वे आवेश के कारण शत्रु के शरीर में ठूँस तो देते हैं किन्तु वापिस निकाल नहीं पाते अस्तु वह टूट जाता है। जहाँ से डंक टूटता है वहाँ बड़ा घाव हो जाता है और उसे जान से हाथ धोना पड़ता है। डंक मारने का दुष्परिणाम जैसा मधुमक्खियों को भुगतना पड़ता है वैसा ही उनके द्वारा काटे हुए मनुष्यों को भी भुगतना पड़ता तो डर के मारे शायद ही कोई मनुष्य दुष्कर्म करने का साहस करता।

मक्खियाँ छत्ते का विस्तार करने में निरन्तर लगी रहती हैं ताकि बढ़ती हुई आबादी को आवास−निवास की कठिनाई उत्पन्न न हो। खोजी मक्खियाँ दूर−दूर जाकर यह पता लगाती हैं कि कहाँ पर इस समय शहद देने योग्य फूल खिले हैं वे अपनी रिपोर्ट नृत्य की भाषा में देती हैं। इस नृत्य को देखकर छत्ता के सदस्य समझ जाते हैं कि कल उन्हें किधर जाना है।

आस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैण्ड के इलाके के राउन हाल का नाम है “कैक्टोब्लाटिस हाल” यह नाम करण किसी महापुरुष के नाम नहीं वरन् एक कीड़े के नाम पर किया गया है। जिसने उस देश की जमीन को बर्बाद होने से बचाया है।

उस क्षेत्र में “ओपुन्टिया” जाति की नागफणी की जाति अजर अमर बन कर फैली। उसने ढाई करोड़ एकड़ उपजाऊ जमीन पर अपना कब्जा कर लिया। खोदने−जलाने के सारे उपाय बेकार साबित हुए। यदि वही क्रम चलता रहता तो उस क्षेत्र की सारी जमीन नष्ट हो जाती। अतः उपरोक्त कीड़ा ढूँढ़ निकाला गया, उसे पाला और फैलाया गया। नागफणी की वृद्धि उसी ने रोकी। कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उस कीड़े के नाम पर “कैक्टोब्लाटिस” बनाया गया। कैरियन कीड़े की घ्राण शक्ति सबसे अधिक मानी जाती है। वह मीलों दूर के मुर्दा माँस का पता लगा लेता है और उड़ता फुदकता हुआ उस खाद्य भण्डार तक पहुँच कर तृप्ति पूर्वक भोजन करता है।

चींटियों में एक जाति कृषि कार्य करती है और अपनी उसी कमाई पर गुजर करती है। वे हरी पत्तियों को तोड़कर अपने बिलों में दूर−दूर तक बिछा देती हैं। इन पत्तियों पर फफूँदी लगती रहती है। बस उसी पर वे महीनों गुजर करती रहती हैं। सूखे पत्तों को हटाना और नए जमा करना उनके दैनिक क्रम में सम्मिलित रहता है। इसलिये खाद्य की उन्हें कभी कमी नहीं पड़ती।

टरमाइड्स जाति का एक कीड़ा आथेपादा जमीन के अन्दर शहर बसा कर रहता है। वह चींटी, दीमक से भी अधिक बुद्धिमान है। इनके श्रम का वर्गीकरण बहुत ही सुनियोजित ढंग से होता है। वे लाखों की संख्या में इकट्ठे रहने पर कभी तनिक भी अव्यवस्था नहीं फैलाते इनका शासन एक रानी करती है। उसके बताये नियमों का पालन करना प्रत्येक सदस्य अपना धर्म कर्त्तव्य मानता है। उनमें से कुछ को कालोनी के निवासियों के लिये भोजन एकत्रित करना− कुछ को भवन निर्माण− कुछ टूट फूट की मरम्मत− किन्हीं को बच्चे पैदा करना आदि कार्य सौंपे गये होते हैं। वे सभी अपना काम पूरे मन से करते हैं।

दीमक लकड़ी खाती है पर वह अपने बल−बूते उसे पचा नहीं सकती। यह कार्य उसकी आँतों में घुस पैठ करने वाला अति सूक्ष्म जन्तु फलेंजीलेट करता है दीमक को पता रहता है कि उसकी आँतों में यह सूक्ष्म कीटक है या नहीं? जब वह देखती है कि वह कीड़ा नहीं है तो लकड़ी न खाकर अपनी भूख किसी और वस्तु से मिटाती है।

मधुमक्खियाँ, केकड़े, चींटियाँ आदि का समयानुसार प्रत्येक कार्य करना यह बताता है कि उनके पास कोई गुप्त इन्द्री होनी चाहिये। मधुमक्खियाँ अपने छत्ते से निकल कर शहद की तलाश में उड़ती हैं तो वह समय बिल्कुल सही रहता है। इसमें एक मिनट का भी आगा−पीछा नहीं होता।

समुद्री केकड़े अपने शरीर का रंग बदलने में गिरगिट से बहुत आगे हैं। दिन में कईबार रंग बदलते हैं। अनुमान था कि यह परिवर्तन सूर्य किरणों के प्रभाव से होता होगा, पर ऐसा कुछ नहीं था। उन्हें घोर अन्धेरे में जमीन के नीचे रक्खा गया तब भी उनकी ठीक समय अपने रंग के परिवर्तन की क्रिया यथावत जारी रही। समुद्र में हल्के ज्वार−भाटे प्रतिदिन 50 मिनट के अन्तर से आते हैं, केकड़े का रंग परिवर्तन भी ठीक 50 मिनट के ही अन्तर से होता है।

कीड़ों की आँख मनुष्य की तरह पूरे एक गोल में नहीं बनी होती उनके नेत्रों में हजारों लैंस लगे होते हैं, उनके द्वारा पृथक−पृथक बिम्ब उतरते हैं और उसका सम्मिलित अनुभव मस्तिष्क में होने पर वस्तु की रूप कल्पना कर पाते हैं। कीड़ों के कान नहीं होते है, यह कार्य वे अगली टाँगों के जोड़ो में रहने वाली ध्वनि ग्रहण शक्ति द्वारा पूरा कर सकते हैं। तितलियों के पंखों में श्रवण शक्ति पायी जाती है। झींगुर आदि जो आवाज करते हैं वह उनके मुँह से नहीं बल्कि टांगों की रगड़ से उत्पन्न होती है।

स्वादेन्द्रिय मनुष्य की अपेक्षा तितलियों में कहीं अधिक होती हैं। वे नमक और चीनी के स्वादों को मनुष्य की तुलना में 200 गुनी बारीकी से समझ सकती हैं।

अब से 20 करोड़ वर्ष पूर्व इस धरती पर यह पतंगे ही भरे पड़े थे अन्य प्राणियों की उत्पत्ति तो कहीं पीछे हुई हैं। अभी भी प्राणधारियों में 70 प्रतिशत यह कीड़े मकोड़े ही इस पृथ्वी पर रहते हैं। हिमाच्छादित गिरि सुरंग शिखरों से लेकर तवे की तरह जलते हुए रेगिस्तानों तक में पाये जाते हैं। उत्तरी ध्रुव की ठण्डक और उबलते झरनों के जल छिद्रों में रहने योग्य अपनी स्थिति बना लेते हैं।

कीड़ों की अपनी विशेषता है। उनके फेफड़े नहीं होते पर साँस लेते हैं। वे सुन सकते हैं पर कान नहीं होते, वे सूँघते हैं पर नाक नहीं होती। दिन उनके भी होता है पर उसकी बनावट हमारे दिल से सर्वथा भिन्न प्रकार की होती है।

साधारणतः कीड़े अण्डों द्वारा जन्मते हैं कीड़े ऐसे भी हैं जो सीधे बच्चे ही देते हैं। यद्यपि वे बच्चे आरम्भ में बहुत ही छोटे होते हैं। रगफर्ड जाति का कीड़ा सीधे माँ के द्वारा ही जन्मता है। बाप का कोई योगदान उसके जन्मने में नहीं होता। कुंवारी एफिड अपने बल−बूते पर बच्चे जनने लगती है। कुमारी व्रत निवाहते हुए भी वह जननी का पद प्राप्त कर लेती है।

प्राचीन काल के जीवावशेषों का अध्ययन करने से पता चलता है कि प्राणियों की उत्पत्ति युग में प्रायः सभी प्राणी बहुत विशाल काय होते थे। ड्रेगन फ्लाई का एक पंख ही ढाई फुट का होता था। अभी भी “वाकिंग स्टिक” नामक कीड़ा संसार का सबसे बड़ा कहा जाने योग्य माना जाता है। इसके पंख 15 इंच लम्बे होते हैं। हिन्दुस्तान में पाया जाने वाला सबसे बड़ी किस्म का टिड्डा “एटलस” है उसके पंख 12 इंच के होते हैं।

कीट पतंगों में से कुछ हमारे लिये हानिकारक भी हैं, पर इन में से अधिकाँश ऐसे हैं जो अन्न, वनस्पति आदि के उत्पादन में− उनके फलने−फूलने में, रोग फैलाने वाले कीड़ों का सफाया करने में बचत सहायक होते हैं। हमारे लिए आर्थिक दृष्टि से बहुत ही उपयोगी कहे जा सकते हैं। इनमें मधु−मक्खी, लाख का कीड़ा तितली, भौंरे, चींटी, सर्प, मकड़ी, छिपकली आदि की गणना की जा सकती है।

दृष्टिकोण की संकीर्णता से मनुष्य जाति भी अपनी नहीं रहती। देश,धर्म, जाति, वंश आदि के नाम पर बंट कर वह दूसरों के लिए आक्रमणकारी बनता है। चोर, डाक, ठग और दुष्ट मनुष्य होते हुए भी मनुष्य का घात करते हैं। गाँव−मुहल्ले में, घर−परिवार में कटा छनी मची रहती है। मनुष्य का अपनापन संकीर्ण व्यक्तिवाद तक ही सीमित रहता है। माता−पिता भाई−बहिन और पुत्री तक का शोषण किया जाता रहता है।

यदि ससीम से असीम बना जा सके और आत्मविस्तार की उदात्त दृष्टि अपनाई जा सके तो प्रतीत होगा कि यह सुन्दर संसार असंख्य जीव धारियों के लिये बना है। इन्हीं जीवों में से एक अल्प संख्यक प्राणी मनुष्य है। दूसरों के साथ हिल−मिल कर रहने और मिथ्या अहंकार से बचे रहने में ही उसकी वह बुद्धिमत्ता है जिसके कारण उसे बड़ा बनाया गया है।


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