अध्यात्म का अभाव ही व्यक्तित्व को विकृत करता है।

May 1975

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आज की मानव संघर्षों से विचलित हो रहा है। उसका मानसिक सन्तुलन इतना बिगड़ रहा है कि उसकी परिणति आत्महत्या, आत्मप्रताड़ना दीनता, अपराध, पागलपन तथा हिंसा की घटनाएं में हो रही है। इन विभीषिकाओं की जड़ आत्म ज्ञान की कमी है। मनुष्य अपने को नहीं पहचानता। वह इनका कारण बाहर ढूँढ़ने का प्रयत्न करता है। बाहर की परिस्थितियों का प्रभाव मानव के मन पर पड़ता है। उसके अनुसार वह आचरण करता है। असफलता का कटु अनुभव अचेतन में जाता है जो उनके जीने की कला को प्रभावित करता रहता है। इन सब क्रियाओं का परिणाम हो वह सारा अप्रिय घटनाक्रम है जो आज के मनुष्य पर छा गया है और उसका सन्तुलन बिगाड़ रहा है।

जीवन बड़ा अमूल्य है। इसमें संसार का सौंदर्य भरा हुआ है। पर उसका आनन्द तभी मिल सकता है जब जीवन जीने की कला को समझें। इसके अभाव में हम जरा−जरा सी बातों पर विचलित होते रहेंगे। हरदम हम अपने विषय में सोचते रहेंगे। हरदम अपने विषय सोचना चिन्ता का कारण बनता है। नींद न आना, भूख न लगना, व्यर्थ में झुँझलाना आदि क्रियाएं मानसिक तनाव के लक्षण हैं। इससे मनुष्य खिन्नता और लाचारी का अनुभव करता है। मन ही मन कुढ़ता रहता है। हर स्वस्थ व्यक्ति मानसिक तनाव से रहित होता है।

मनुष्य केवल शरीर ही नहीं है। इससे परे उसका मन और आत्मा है जो मनुष्य के शरीर को व्यक्तित्व का अंग बनाते हैं। शरीर और व्यक्तित्व का सन्तुलन उसके जीवन के लक्ष्य पर है। मनुष्य के जीवन का लक्ष्य उसे स्पष्ट होना चाहिए।

मनुष्य को अपने जीवन को सार्थक, तथ्य−पूर्ण, लक्ष्य युक्त और सप्रयोजन समझना चाहिए। उसे इस बात की शिक्षा बचपन से ही मिलनी चाहिए कि सार्थक जीवन श्रेष्ठ कार्यों पर निर्भर करता है। इस अनुभूति से मानव अपने कार्यों में आनन्द लेता रहेगा। उसका मानसिक सन्तुलन ठीक रहेगा। उसे कार्य करने में आनन्द मिलेगा। लक्ष्य के अभाव में व्यक्ति उदासीन हो जायगा। उसका मानसिक विकृति का शिकार हो जायगा। वियना के मनो चिकित्सक डॉ. फैक्ल का मत है कि यदि मनुष्य ऐसा अनुभव करने लगे कि उसका जीवन निरर्थक हैं तो उसका मन स्वस्थ और सुखी नहीं रह सकता। उनके अनुसार मानसिक धरातल ही असन्तुलन का कारण है उनकी चिकित्सा प्रणाली अर्थ बोध की चिकित्सा या ‘लौगोथिरेपी’ है। डॉ. फेंकल का कहना है कि जिसे अपने जीवन और कार्य के अर्थ का बोध न हो वह व्यक्ति स्वस्थ नहीं है।

डॉ. फैक्ल के अनुसार आज के अधिकतर आदमी जीवन का अर्थ बोध नहीं जानता। वह नहीं जानता मैं क्यों जी रहा हूँ। मेरा जीना जीना भी है या नहीं। वह तो जीवन को ढो रहा है। जीवन उसके लिए आनन्द नहीं मजबूरी है। उसका चिन्तन आध्यात्मिक बन गया है। डॉ. फैंक्ल के अनुसार भोग तृप्ति तथा शक्ति संचय मानसिक स्थिरता नहीं प्रदान करते। मनुष्य के लिए जीवन के लक्ष्य और उनकी सिद्धि आवश्यक है। फैंक्ल की पद्धति के अनुसार मानसिक रोगी से प्रिय−अप्रिय सभी विषयों पर चर्चा करके उसे जीवन का अर्थ ढूँढ़ने की ओर चला देना आवश्यक है। ऐसा रोगी आने अस्तित्व को समझेगा तो उसका मन स्फूर्ति से भर जायगा। वह जीने की इच्छा करने लगेगा।

जैम्स लैग के अनुसार मनोचिकित्सक अपने रोगी को एक प्रकार से पागलपन ग्रस्त समझते हैं जिससे उसका आत्म−विश्वास समाप्त हो गया है पागलपन कठिन परिस्थितियों और समाज के अत्याचारों से बचने का एक छोटा अभिनय है। प्रारम्भ में मनुष्य झूठ−मूँठ का पागल बनता है फिर वह स्वभाव का रूप धारण कर लेता है। ऐसे व्यक्ति का आत्मा सोया हुआ है। उसको सहानुभूति तथा संवेदनशील स्पर्श से जगाना है। चिकित्सक को रोगी के साथ गहरे उतर कर रोगी के अन्दर सोये आत्मा तक पहुँचना है। रोगी में यह भाव आ जाय कि मैं चेतन तथा समर्थ हूँ। वह यह विश्वास करने लगे कि संसार की कोई कठिनाई ऐसी नहीं जिसका वह सफलता से सामना न कर सके। यह विश्वास आते ही उसका मानसिक सन्तुलन लौट आयेगा।

आज का समाज और शिक्षा प्रणाली व्यक्ति को स्वभाव तन्त्र चिन्तन नहीं करने देते। मानव में ‘हम’ और ‘वे’ का अन्तर समाज ने उत्पन्न कर दिया। जिसने व्यक्ति का विवेक और व्यक्तित्व नष्ट कर दिया। वह समूह का दास हो गया।

समाज में मनुष्य को स्वतन्त्र रूप में चिन्तन करने का अवसर नहीं दिया जाता। बँधी हुई व्यवस्था में व्यक्ति छटपटाता है। मनुष्य में उत्सुकता होती है, उसको जानने को मन बढ़ता है। रोके जाने पर विद्रोह करने की उसकी आतुरता बढ़ जाती है। मन को रोकना पर्याप्त नहीं, उसे दिशा मिलनी चाहिये, जिससे उसे आनन्द मिले। मन आकर्षण की ओर झुकेगा। उस ओर से रोकने के बदले उसकी दिशा में परिवर्तन करना आवश्यक है। उसके लिए अधिक आकर्षक क्षेत्र तैयार किया जाना चाहिए।

जीवन भर कार्य करते रहना मन पर काबू पाना है, जो मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। कार्य का रूप जीवन के लक्ष्य से प्राप्त होता है। जीवन के लक्ष्य मनुष्य को आत्म−ज्ञान से प्राप्त होते हैं। यही अध्यात्म है। अपने को जानना उसके अनुसार आचरण करना ही अध्यात्म है। अधि+आत्म=आत्मा का अधिकार यही अध्यात्म है। आत्मा जो प्रत्येक मनुष्य के जीवन का आधार है। यह मनुष्य के जीवन का लक्ष्य बताती है। जीवन का लक्ष्य न जानना तथा उस पर आचरण न कर पाना, मनुष्य की चिन्ता का कारण बनता है। जिससे मनुष्य का मस्तिष्क सोचते−सोचते निष्क्रिय हो जाता है और चिड़चिड़ा हो जाता है। उसका आत्म−विश्वास समाप्त हो जाता है। विभिन्न प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो जाता है।

शारीरिक रोगों का आधार भी मानसिक होता है। सिरदर्द, पेट दर्द, उल्टी जैसे रोगों का कारण तो अधिकतर मानसिक होता है। दूसरे के रोगों को देखकर जानकर भी रोगी अपने अन्दर ऐसे भाव ले आता है, मानो वही रोग उसे हो गया। इसका कारण बचपन से प्रारम्भ होता है। बचपन की क्रियाएं तुरन्त प्रभाव नहीं डालतीं। वे अचेतन में बैठ जाती हैं। शक्ति का आविर्भाव होने पर वे उभर कर चेतना स्तर पर आ जाती है। कभी−कभी ये पागलपन या असाध्य रोग का रूप धारण कर लेती है।

अपने प्रियजनों की मृत्यु से उसका अवचेतन प्रभावित हो जाता है, हृदय रोग इसकी प्रतिक्रिया में प्रकट होता है। आत्म−हत्या, मानसिक अस्वस्थता की चरम परिणति है। स्वस्थ व्यक्ति ऐसा पग नहीं उठा सकता। आत्म−रक्षा मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसलिए यदि किसी की जीने की इच्छा पर मरने की इच्छा विजय प्राप्त कर ले तो वह व्यक्ति मानसिक रूप से अत्यन्त अस्वस्थ हैं।

पागलपन का सामयिक दौरा, विषण्णता और स्नायु दुर्बलता है। ये सब मानसिक अस्वस्थता का परिणाम है। जिनका प्रारम्भ जीवन−लक्ष्य को न जानने तथा उन पर समाज या परिस्थितियों के दबाव से आचरण न करने के कारण होता है। अतः मानव की जीवन−लक्ष्य को जानना तथा समाज द्वारा उसकी स्वीकृति सुविधा मिलना आवश्यक है। यही अध्यात्म का मूल विषय है। इसको अच्छी प्रकार समझ कर ही मानव ठीक आचरण करेगा। कार्यरत रहेगा तथा अपने लक्ष्य को प्राप्त करके, होने वाली मनोविकृतियों से बच सकता है।


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