गुलाब के पेड़ पर फूल और काँटे पास−पास ही उगे हुए थे। दोनों मन ही मन अपने को सुखी और साथी को दुःखी मानते रहे।
एक दिन अवसर पाकर दोनों ने वार्तालाप आरम्भ कर दिया और मन की बात एक दूसरे से कहने लगे।
काँटे ने फूल से कहा− बन्धु तुम्हें अत्याचार पीड़ित जीवन−यापन करना पड़ता है। माली तुम्हें निर्दयतापूर्वक भरी जवानी में तोड़ ले जाता है। माला बनाने के लिए सुई में तुम्हारा कलेजा छेदता है। कैसी है यह विधि की विडम्बना।
फूल ने उत्तर देने से पहले अपने मन की शंका का निवारण करना उचित समझा उसने कहा− यशस्वी सुन्दर पौधे में जन्में होने पर भी तुम्हें काँटे का कलेवर मिला जिनने भी छुआ तुम्हें कोसा और लाँछित किया। कैसा दुर्भाग्यपूर्ण अपवाद है यह तो तुम्हारे पल्ले विधाता ने बाँध दिया है।
दोनों के एक दूसरे के सम्बन्ध में मूल्याँकन उनकी अपनी दृष्टि से सही थे, पर अपने बारे में जो उनने सोच रखा था वह आक्षेप से सर्वथा भिन्न था।
फूल ने दुर्भाग्य के आरोपण का प्रतिवाद करते हुए कहा− मैं अपने को भाग्यवान मानता हूँ। माली का कृतज्ञ हूँ। जिसने मेरे नगण्य से अस्तित्व को देवताओं और महामानवों के गले का हार बना दिया।
अब काँटों की बारी आई। उनने कहा− मैं किसी की डालियों में लगने नहीं जाता। दूसरों की विभूति हड़पने वाले जब तुम्हारे ऊपर हाथ डालते हैं तो मेरे माध्यम से अपने आक्रमण का प्रकृति प्रदत्त फल पाते हैं। फिर में अपने सहोदर भ्राता की जीवन रक्षा करने के कारण यदि बदनाम होता हूँ तो उसमें मुझे भाग्यवान ही माना जाना चाहिए।
गुलाब का पौधा इस विवाद को मनोयोगपूर्वक सुनता रहा, पर वह यह निर्णय न कर सका कि वे अभागे थे या भाग्यवान।