पिछड़ापन अज्ञान का ही प्रतिफल है।

May 1975

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अज्ञान के सघन अन्धकार से निकल कर मनुष्य ने जितना ज्ञान के क्षेत्र में पदार्पण किया है, उसी अनुपात में उसने भौतिक क्षेत्र में सुख साधन जुटाये हैं। और उसी क्रम से उसे आन्तरिक सन्तोष, शान्ति एवं हर्षोल्लास की प्राप्ति हुई है।

प्रगति वस्तुओं के बाहुल्य के, इन्द्रिय भोगों के अथवा प्रिय परिस्थितियों की उपलब्धि के साथ जुड़ी हुई नहीं है, वरन् ज्ञान के विस्तार से सम्बन्धित है। जिसका ज्ञान जितना सीमित है वह उतना ही पिछड़ा हुआ है। सम्भव है जिसकी ज्ञान सम्पदा बढ़ी−चढ़ी है, उसकी शक्ति और अशक्ति का लेखा जोखा भी ज्ञान सम्पदा की न्यूनाधिकता के साथ जुड़ा हुआ है।

मनुष्य का नैतिक, साँस्कृतिक और आध्यात्मिक स्तर उसकी सुसंस्कृत ज्ञान चेतना के साथ जुड़ा हुआ है। भौतिक शक्तियों के उपार्जन और उपभोग को भी मानसिक विकास से पृथक नहीं रखा जा सकता। आदिकाल से मनुष्य शारीरिक दृष्टि से अब की अपेक्षा अधिक बलिष्ठ रहा होगा, पर उसकी चेतना पशु स्तर से कुछ ही ऊँची होने के कारण सुविकसित लोगों की तुलना में गया गुजरा ही सिद्ध होता रहा है। अतीत के पिछड़ेपन पर जब एक दृष्टि डालते हैं तो प्रतीत होता है कि चिन्तन क्षेत्र में अज्ञान की स्थिति कितनी कष्टकर और कितनी लज्जास्पद परिस्थितियों में मनुष्य को डाले रही हैं।

अमेरिकन म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री के पक्षी विभाग एसोसियेट क्यूरेटर द्वारा प्रकाशित विवरणों से पता चलता है कि न्यूगिरी के आदिम और आदिवासी किस तरह अपने में जा भटकने वाले लोगों को भुन−भुनकर खा जाते थे। उस क्षेत्र में पक्षियों की खोज में एक खोजी दल जा पहुँचा। पापुआन क्षेत्र के मियाओं बीले के बड़े दिगमी क्रूर कर्मों के लिये प्रसिद्ध है। इस क्षेत्र में किसी विशेष सुरक्षा व्यवस्था के बिना किसी को जाने देने की इजाजत नहीं है, पर यह खोजी दल किसी प्रकार उस क्षेत्र में जा ही पहुँचा और उसके सभी सदस्यों का रोमाँचकारी वध हो गया।

पादरी आइवोस्केफर उस क्षेत्र में 45 वर्ष से इन नर भक्षियों के बीच प्रभु ईसा का सन्देश सुनाने के लिये रहते थे। उन्होंने इन नर भक्षियों को अपने प्रेम एवं सेवा कार्यों से प्रभावित कर रखा था। शिक्षा चिकित्सा आदि उपायों में उन्होंने इस क्षेत्र के निवासियों का मन जीत लिया था। उन्हें वे पवित्र आत्मा समझते थे और किसी प्रकार की हानि पहुँचाने के स्थान पर सम्मान प्रदान करते थे।

आरम्भ में उस निष्ठावान, धर्मात्मा किन्तु क्रिया कुशल पादरी ने बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ इन लोगों के बीच अपना स्थान बनाया था। स्केफर ने अपनी पुस्तिका में लिखा है कि − पहली बार जब वे इस इलाके में अपने एक साथी के साथ गये तो उन्हें नर भक्षियों के द्वारा घेर लिया गया। उन देखने वालों ने शोर मचाकर 40-50 योद्धाओं को बुला लिया− वे भाले ले लेकर आ गये और हम लोगों को चारों ओर से घेरे में लेकर हर्ष नृत्य करने लगे। उन्हें दो मनुष्य का− उसमें भी गोरों को ताजा माँस खाने को मिलेगा। इस कार्य का श्रेय वे लेंगे इस खुशी में उन्मत्तों जैसा उछल कूद कर रहे थे। घेरे में आये शिकार अब भाग तो सकते नहीं थे।

इस सम्बन्ध में वे निश्चित होकर देवता के बलिदान के उद्देश्य से गीत गा रहे थे और हर्ष मना रहे थे।

पादरी ने एक युक्ति से काम लिया। उसने थैले से एक दर्पण निकाला और उसे आदिवासियों के सरदार के सामने कर दिया। उसने जैसे ही अपनी आकृति देखी वह डर गया। दर्पण उन लोगों के लिये सर्वथा नई वस्तु थी। एक−एक करके पादरी ने दर्पण सभी को दिखाया। वे सभी बहुत डरे और समझने लगे कि यह आदमी कोई जादूगर है इसे मारने से कोई विपत्ति आ सकती है। अस्तु वे अपने−अपने भाले फेंक कर उसके इर्द−गिर्द आशीर्वाद पाने के लिये सिर झुकाकर बैठ गये। पादरी ने एक और दूसरा चमत्कार प्रकट किया। उसके पोपले मुँह में दोनों जबड़े नकली दाँतों के लगे थे। उन बैठे हुए दर्शकों को सम्बोधित कर अब उसने एक नया जादू दिखाया। मुँह में से दाँतों की बत्तीसी निकाली, दाँत उन्हें दिखाये, पोपला मुँह दिखाया और फिर दाँतों को मुँह में ठूँस कर पहले जैसा मुँह बना लिया। आदिवासी इस चमत्कार को देखकर दंग रह गये और उन्होंने पूरा भरोसा कर लिया कि यह कोई जादुई पुरुष है। इतनी मान्यता बना देने से पादरी का काम बहुत सरल हो गया और निश्चिन्तता पूर्वक अपना काम उस क्षेत्र में करने लगे। काम चलाऊ टूटी−फूटी आदिवासी भाषा तो उन्होंने पहले ही सीख ली थी।

पादरी ने लिखा है कि न्यूगिनी के यह आदिवासी योद्धा, निर्दयी, क्रूर, कष्ट सहिष्णु और भारी अनुदार होते हैं। एक कबीले का अधिकार जिस क्षेत्र पर है, उसमें घुसकर यदि किसी दूसरे कबीले का कोई सदस्य भूल से या जान बूझकर कोई पेड़ काटले तो इतने से ही वे लोग आग बबूला हो जाते और रात को छिप कर उस पर हमला बोल देते। एक बार के हमले का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है कि काँगना मल कबीले के लोगों ने अपने पड़ौसी कारारन कबीले की झोंपड़ियों पर चढ़ाई करके सोते हुए लोगों को पकड़ लिया और उनमें तीस के सिर काट कर ले आये। इस विजयोपहार में से एक सिर भेंट करने के लिये वे पादरी के पास भी आये थे।

कबीले का मुखिया तथा योद्धा बनने के लिए वे लोग पूरी तैयारी करते हैं। प्रायः 16 वर्ष की आयु में उसे इसकी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये एक जीवित मनुष्य का सिर काटना पड़ता है। अक्सर इस कार्य के लिये अपने ही कबीले की या किसी अन्य कबीले से खरीदी हुई औरत प्रयुक्त की जाती हैं। थोड़े पालतू पशु, चमड़ा, पक्षियों के पंख आदि देकर औरतें आसानी से खरीदी भी जा सकती है। वध उत्सव आगामी महिला को देव गृह में ले जाया जाता है, जहाँ वह नव योद्धा भाले, छेद−छेद कर उस स्त्री का काम तमाम कर देता है और फिर उसका सिर काट कर सरदार को भेंट करता है। इतना कर लेने पर उसकी गणना कबीले के योद्धा के रूप में होने लगती है। इन्हीं में से पीछे कोई मुखिया भी चुन लिया जाता है।

एक बार तो पादरी के यहाँ ठहरे हुए गोरों को धर लिया और प्रस्ताव किया कि दल की एक गोरी महिला उन्हें वध करने के लिये दे दी जाय इसके बदले बीस आदिवासी युवतियाँ उन्हें दे देंगे। इस धर्म संकट को भी बड़ी चतुरता पूर्वक ही टाला जा सका।

अतीत में अज्ञान ही पिछड़ी हुई परिस्थितियों से मनुष्य में रहा है। आज जिस स्थिति पर हम थोड़ा गर्व सन्तोष कर सकते हैं, वह ज्ञान साधन का ही प्रतिफल है। भविष्य में यदि अधिक सुख−शान्ति की, आनन्द उल्लास की परिस्थितियाँ अभीष्ट हों तो उसके लिये सद्ज्ञान सम्पदा की दिशा में हमारे प्रयास अधिकाधिक तीव्र होने चाहिये। जिन दिनों भारत का स्वर्णिम काल था उन दिनों यहाँ की ज्ञान सम्पदा ही मूर्धन्य स्तर पर पहुँची हुई थी। संसार को स्वर्ग और मनुष्य को देवोपम बताने के लिये, वर्तमान दुर्गति के दल−दल से निकलने के लिये ज्ञान साधना में अनवरत रूप से संलग्न रहने की आवश्यकता है। भूत और वर्तमान की तुलना करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान के बिना उज्ज्वल भविष्य का और कोई मार्ग नहीं।


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