मानवीय मस्तिष्क ऋद्धि−सिद्धियों का भाँडागार

May 1975

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खोपड़ी की हड्डी से बनी टोकरी में परमात्मा ने इतनी महत्वपूर्ण सामग्री संजोकर रखी है कि उसे जादू की पिटारी कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी। शरीर के अन्य किसी भी अवयव की अपेक्षा उसमें सक्रियता, चेतना और संवेदनशीलता की इतनी अधिक मात्रा है कि उसे मानवीय सत्ता का केन्द्र बिन्दु कहा जा सकता है। रेलगाड़ी में जो महत्व इंजन का है वही अपने शरीर में मस्तिष्क का है। डिब्बों की टूट फूट हो जाने पर उन्हें सुधारने की या काटकर अलग कर देने की व्यवस्था आसानी से हो जाती है किन्तु यदि इंजन खराब हो जाय तो सुयोग्य इंजीनियर की देख−रेख में साधन सम्पन्न कारखाने में ही उसकी मरम्मत हो सकती है। जब तक मरम्मत न हो जाय तब तक रेलगाड़ी जहाँ की तहाँ खड़ी रहेगी उसकी थोड़ी दूर आगे बढ़ सकना भी सम्भव न होगा।

शरीर में मस्तिष्क का वही स्थान है जो किसी बड़े कारखानों की मशीनों को बिजली सप्लाई करने वाली शक्ति −शाली मोटर का। मोटर बन्द हो जाय या बिगड़ जाय तो फिर बिजली के अभाव में सारा कारखाना ही ठप्प हो जायगा। शरीर के अन्य कलपुर्जों में जो गतिशीलता दिखाई पड़ती है वह उनकी अपनी नहीं है। मस्तिष्क उन पर पूरी तरह नियन्त्रण रखता है। संचालन की प्रेरणा ही नहीं शक्ति भी वहीं से मिलती है।

मस्तिष्क दो भागों में विभक्त माना जा सकता है एक वह जिसमें मन और बुद्धि काम करती है। सोचने विचारने, तर्क विश्लेषण और निर्णय करने की क्षमता इसी में हैं। दूसरा भाग वह है जिसमें आदतें संग्रहित हैं और शरीर के क्रिया कलापों का निर्देश निर्धारण किया जाता है। हमारी नाड़ियों में रक्त बहता है, हृदय धड़कता है फेफड़े श्वास−प्रश्वास क्रिया में संलग्न रहते हैं, माँस पेशियाँ सिकुड़ती फैलती हैं, पलक झपकते खुलते हैं, सोने जागने का खाने−पीने और मल−मूत्र त्याग का क्रम अपने ढर्रे पर अपने आप स्वसंचालित ढंग से चलता रहता है। पर यह सब अनायास ही नहीं होता इसके पीछे वह निरन्तर सक्रिय मन नाम की शक्ति काम करती है जिसे अचेतन मस्तिष्क कहते हैं। इसके ढर्रे का मन कह सकते हैं। शरीर के यन्त्र अवयव अपना−अपना काम करते रहने योग्य कलपुर्जों से बने हैं पर उनमें अपने आप संचालित रहने की क्षमता नहीं है, यह शक्ति मस्तिष्क के इसी अचेतन मन से मिलती है। विचारशील मस्तिष्क तो रात में सो जाता है, विश्राम ले लेता है नशा पीने या बेहोशी की दवा लेने में मूर्छा ग्रसित हो जाता है। उन्माद आवेश आदि रोगों से ग्रसित भी वही होता रहता है। डाक्टर इसी को निद्रित करके आपरेशन करते हैं। किसी अंग विशेष में सुन्न करने की सुई लगाकर भी इस बुद्धिमान मस्तिष्क तक सूचना पहुँचाने वाले ज्ञान तन्तु संज्ञा शून्य कर दिये जाते हैं फलतः पीड़ा का अनुभव नहीं होता और आपरेशन हो जाता है। पागलखानों में इस चेतन मस्तिष्क का ही इलाज होता है अचेतन की एक छोटी परत ही मानसिक अस्पतालों की पकड़ में आयी है वे इसे प्रभावित करने में भी थोड़ा बहुत सफल होते जा रहे हैं। किन्तु उसका अधिकाँश भाग प्रत्येक नियन्त्रण से बाहर है। पागल लोगों के शरीर की भूख, मल−त्याग, श्वाँस−प्रश्वाँस, रक्त −संचार तथा पलक झपकना आदि क्रियायें अपने ढंग से होती रहती हैं, मस्तिष्क की विकृति का शरीर के सामान्य क्रम संचालन पर बहुत कम असर पड़ता है।

सोचने की सही पद्धति सिखाने के लिए ज्ञान, अनुभव तर्क एवं प्रशिक्षण का सहारा लिया जाता है वस्तुओं का स्वरूप एवं उपयोग, परिस्थितियों का कारण एवं परिवर्तन किस प्रकार होता है, हो सकता है इसकी जानकारी स्कूल कॉलेजों अथवा उस विषय के जानकारों से मिलती है। यह मस्तिष्कीय प्रशिक्षण शिक्षा एवं भावना को प्रभावित करता है। अपनी निजी संवेदनाओं की अनुभूतियों, आकांक्षाओं को प्रभावित करने वाले मानसिक क्षेत्र के उभार भावना कहलाते हैं और अपने से बाहर के व्यक्ति यों, पदार्थों एवं परिस्थितियों के संबंध में जानकारी प्राप्त करना विचार शक्ति का काम है। भावना को विश्वासों एवं सम्वेदनाओं को जिस शिक्षण प्रक्रिया से प्रभावित करते हैं उसे विद्या और जिससे विचार शक्ति निखरती है उसे शिक्षा कहते हैं।

मस्तिष्क अपने आप तो बहुत कुछ करता है पर उसका विचार पूर्वक नियन्त्रण एवं उपयोग करना बहुत कम लोगों को बहुत थोड़ी मात्रा में आता है। वैज्ञानिकों का कथन है कि मस्तिष्कीय चेतना पर 8 प्रतिशत नियन्त्रण प्राप्त कर सकना प्रगतिशील मनुष्य के लिए अभी तक सम्भव हो पाया है। उसकी 92 प्रतिशत शक्ति ऐसी है जिस पर नियन्त्रण कर सकना तो दूर उसकी ठीक तरह जानकारी भी प्राप्त नहीं की जा सकी है। मनुष्य की बुद्धिमता! साहसिकता, सूझ बूझ का बहुत प्रशंसा की जाती है। अनुशासित मनोभूमि किसी प्रकार प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व के रूप में विकसित होती है यह भी सर्वविदित है। इतने पर भी इतना ही माना जाता है कि यह उसकी खोपड़ी में रखी हुई जादुई पिटारी का एक नगण्य सा चमत्कार है। यदि उसे पूरी तरह जाना समझा जा सके तो अब की अपेक्षा वह हजारों गुनी अधिक विभूतियों से भरा पूरा हो जाता है।

लेकिन प्रगति का आधार इसी मस्तिष्कीय स्थिति पर निर्भर है। मूर्ख, मन्दबुद्धि और अनपढ़, अविकसित व्यक्ति या तो सुख साधन कमा ही नहीं पाते और यदि किसी प्रकार मिल भी जायें तो उनका समुचित सदुपयोग करके सुखी रह सकने की व्यवस्था बना नहीं पाते,वे वस्तुएं या परिस्थितियाँ उनके लिए जाल−जंजाल बन जाती हैं। उपयोग की सही विधि न मालूम होने पर प्रयोग गलत होते हैं और गलती का परिणाम विकृति एवं क्षति ही हो सकती है। सम्पदाएं भी अविकसित मनःस्थिति होने पर किसी को कोई सुख नहीं पहुँचा सकतीं। बारूद का खेल करने वाले जिस प्रकार क्षति ग्रस्त होते हैं उसी प्रकार साँसारिक वैभव पाने पर भी मन्द बुद्धि लोग लाभान्वित नहीं होते यों आमतौर से अच्छे सुविधा साधन मिलना ही उनके लिए कठिन पड़ता है। इसके विपरीत प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति कठिन परिस्थितियों में भी अभीष्ट साधन उपलब्ध कर लेते हैं। सम्पदाएं पाते हैं, सुख भोगते हैं और गौरवान्वित होते हैं। यह सब मस्तिष्कीय प्रखरता का ही वरदान है।

सुखी, समुन्नत और सफल जीवन जीने के लिए कई तरह की परिस्थितियां अभीष्ट होती हैं। शरीर स्वस्थ रहे, घर के लोग अनुकूल बनें, मित्रों का सहयोग रहे, धन की कमी न पड़े, शिक्षा ऊँची हो, समाज में सम्मान मिले अभीष्ट मनोरथ पूरे होते रहें। हमारी आकाँक्षाओं की पूर्ति जिस हद तक होती है उसी सीमा तक सुख सन्तोष अनुभव होता है। इन सम्पदाओं को प्राप्त करने के लिए लोग अनेक प्रकार के प्रयत्न करते हैं। सो ठीक भी है। पर यह भुला दिया जाता है, कि संसार के समस्त साधनों को उपलब्ध करा सकने की क्षमता मस्तिष्क की परिष्कृत स्थिति पर निर्भर है। यदि उसमें कुछ गड़बड़ी होगी तो इनमें से एक भी साधन सन्तोषजनक मात्रा में न मिल सकेगा जो मिलेगा उसका अवाँछनीय दुरुपयोग बन पड़ने से उल्टी विपत्ति ही खड़ी होगी।

ताला चाभी से खुलता है, यदि हथौड़े, से पीटकर खोलने का प्रयत्न किया जायेगा तो वह टूट जायेगा। समुन्नत परिस्थितियाँ प्राप्त करने के लिए मस्तिष्कीय सुव्यवस्था का ध्यान दिया जाना चाहिए। समस्त सुखों और सफलताओं की चाभी इसी जादू की पिटारी में रखी है। इसमें जो कुछ भरा पड़ा है वह इतना अधिक है कि उसको समझने और सदुपयोग का साहस करने पर स्थिति इतनी प्रखर बन जाती है कि उसके रहते किसी भी क्षेत्र में असफल रहने की आशंका उत्पन्न नहीं होती। सुयोग्य एवं प्रतिभा सम्पन्न मनुष्य सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ तो अवश्य ही पाते हैं। इसे मानसिक स्तर के विकास का चमत्कार अनुदान ही कह सकते हैं।

जिस मस्तिष्क पर हमारा वर्तमान और भविष्य पूरी तरह निर्भर है उसके सम्बन्ध में लोग बहुत ही कम जानते हैं, बहुत ही कम ध्यान देते हैं। यह कितने आश्चर्य और दुख की बात है कि शरीर को परिपुष्टि बनाने के लिए कीमती भोजन जुटाया जाता है, सुन्दर बनने के लिए वस्त्राभूषण एवं शृंगार साधनों पर समय तथा धन लगाया जाता है इन्द्रिय तृप्ति के लिए खर्चीले और समय साध्य साधन जुटाये जाते हैं, अन्यान्य सफलताओं के लिए घनघोर प्रयत्न किए जाते हैं पर न जाने क्यों यह अनुभव नहीं किया जाता कि मानसिक प्रखरता के बिना सारे काम औंधे सीधे होंगे और उनके कठिन प्रयत्नों के फलस्वरूप जो सामग्री मिलेगी वह आनन्ददायक न होकर विपत्ति का कारण बनेगी।

मानवीय मस्तिष्क में जितनी किस्म का जितनी मात्रा में ज्ञान भरा रहता है उसकी तुलना में संसार के बड़े से बड़े पुस्तकालय को भी तुच्छ ठहराया जा सकता है। उलझे हुए प्रश्नों का न्यूनतम समय में उपयुक्त हल निकालने में संसार के किसी सशक्त कम्प्यूटर की तुलना उससे नहीं हो सकती। जरा से डिब्बे में भरी हुई यह गुलाबी रंग की कढ़ी इतनी विलक्षण है कि उसकी समानता किसी भी बहुमूल्य रासायनिक पदार्थ से नहीं की जा सकती। मस्तिष्कीय क्रिया−कलाप जिन (तन्त्रिका कोशिकाओं) से मिलकर संचालित रहता है उनकी संख्या प्रायः दस अरब होती है। इन्हें आपस में जोड़ने वाले नर्व फाइवर (तन्त्रिका तन्तु) और उनके इन्सुलेशन खोपड़ी के भीतर खचाखच भरे हुए हैं। एक तन्त्रिका कोशिका का व्यास एक इंच के हजारवें भाग से भी कम है। और उसका वजन एक ओंस के साठ अरबवें भाग से अधिक नहीं है। तन्त्रिका तन्तुओं से होकर बिजली के जो इम्पल्स दौड़ते हैं वही ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से आवश्यक सूचनाएं उस केन्द्र तक पहुँचाते हैं।

उपलब्ध सूचनायें दफ्तर में रिकार्ड बनकर जमा नहीं होती रहतीं वरन् उन पर तत्काल निर्णय करना होता है। इसके लिए सूचना कितने ही दफ्तरों, कितने ही अफसरों के सामने से गुजरती हुई, उनको परामर्श, निर्देश नोट कराती हुई सम्बद्ध अवयवों को सूचना देती है कि उन्हें इस संदर्भ में क्या करना है। आदेश ही नहीं आवश्यक साधन जुटाने की व्यवस्था भी इसी केन्द्रीय निर्देशालय से होती है। इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध सूचनायें और विचारों की हलचलें हर क्षण मस्तिष्क को इतना अधिक कार्य व्यस्त रखती हैं कि इस सक्रियता पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। सिर पर इलेक्ट्रोड लगाकर भीतर चल रही हलचलों के जो चित्र इलेक्ट्रोएन्से−फेलोग्राम तैयार किये जाते हैं उन्हें विद्युतीय तूफान की तरह देखा जा सकता है।

बच्चों को मस्तिष्क की जानकारी टेलीफोन एक्सचेंज का उदाहरण देकर कराई जाती है। बड़ों को उसे समझाना हो तो यों कहना चाहिए कि यदि अपने टेलीफोन का सम्बन्ध संसार के समस्त टेलीफोनों से ही, अपनी बात समस्त टेलीफोनों पर सुनी जाय और उनके उत्तर एक साथ प्राप्त हों, सुने समझे जायें तो उस स्थिति की तुलना मस्तिष्कीय क्रिया−कलाप से की जा सकती है।

मानव निर्मित सर्वोत्तम कम्प्यूटर में अधिक से अधिक दस लाख इकाइयाँ होती हैं और प्रत्येक इकाई के पाँच, छः से अधिक संपर्क सूत्र नहीं होते। किन्तु मस्तिष्क में दस अरब कोशिकाएं हैं। उनमें से प्रत्येक के लाखों लाख संपर्क सूत्र हैं। साथ ही प्रत्येक में जैव रसायनों के सम्मिश्रण में भारी भिन्नता भी है। घटित होने वाली घटनायें और इन्द्रिय संस्थानों द्वारा प्राप्त सूचनाओं का निपटारा एक अलग और सामयिक कार्य है। इसके अतिरिक्त श्वासोच्छवास, निद्रा, जागरण, हृदय की धड़कन, रक्त संचार, पेशियों का आकुंचन, प्रकुंचन, शरीर कोशिकाओं का जीवन मरण आदि शरीर संचालन के इतने अधिक कार्य हैं जिन्हें बारीकी से देखने पर समस्त संसार की सरकारों की संयुक्त व्यवस्था में भी अधिक सुविस्तृत ठहराया जायगा।

शरीरगत आवश्यकताओं और इनकी पूर्ति की क्रिया व्यवस्था मस्तिष्क का जो छोटा−सा सम्भालता है उसे “हाइपोथैलेमस” कहते हैं भूख, प्यास, नींद, मल विसर्जन, पाचन आदि अनेकों क्रिया−कलाप इसी केन्द्र से संचालित एवं व्यवस्थित किये जाते हैं। मस्तिष्क के पिछले भाग में गुम्बदाकार अंग ‘सेरिबेलम’ इन हलचलों को परस्पर सम्बद्ध करने वाले असंख्य सूत्रों को शृंखलाबद्ध करता है।

चिन्तन का ज्ञान, स्मृति, बुद्धि, विवेचना एवं इच्छा आदि का कार्यभार सम्भालने वाला अत्यन्त विकसित भाग “सेरिब्रल कार्टेक्स” कहलाता है। मस्तिष्कीय द्रव्य से बनी हुई यह झुर्रीकार परत मस्तिष्क के अग्रभाग और पार्श्वों में लिपटी हुई है। इसकी मोटाई प्रायः एक मिली मीटर है। सूचनाओं का ग्रहण और निर्देशों का प्रसारण करने में इस पट्टी की महत्वपूर्ण भूमिका है।

तन्त्रिका कोषाणु एक सफेद धागे तन्तु युक्त होता है। यह तन्तु अन्यान्य न्यूरानों से जुड़ा होता है। इस प्रकार पूरा मस्तिष्क इन परस्पर जुड़े हुए धागों का एक तन्तु जाल बना हुआ है। इन्हीं सूत्रों से वे परस्पर सम्बद्ध रहते हैं और अपने कार्यों एवं उत्तरदायित्वों का निर्वाह परस्पर मिलजुल कर करते हैं।

प्रत्येक प्रौढ़ मस्तिष्क प्रायः 20 वाट विद्युत शक्ति से चलता है। कुछ कोषाणु विशेष रूप से इस बिजली को उत्पन्न करने का काम करते हैं और शेष उसका उपयोग करके अपना काम चलाते हैं वह एक सूक्ष्म डाइनुमा हैं। ग्लूकोस और ऑक्सीजन का रासायनिक ईंधन जलाकर उसकी ऊर्जा को वे बिजली में परिवर्तित करते हैं। काम चलाऊ मात्रा में वह कोशाणुओं की शक्ति प्रदान करती है और यदि उसकी अनावश्यक मात्रा बन गई है तो स्वयं ही विसर्जित हो जाती है। उसका चार्ज−डिस्चार्ज शारीरिक और मानसिक क्रियाओं के अनुसार घटता बढ़ता रहता है। इलेक्ट्रोऐन्सीफै लोग्राफ की सहायता से यह जाना जा सकता है कि इस बिजली का उत्पादन और उपयोग कहाँ किस मात्रा में हो रहा है। इसमें घट बढ़ हो जाने से मानसिक सन्तुलन बिगड़ने लगता है और यों भी कहा जा सकता है कि मानसिक सन्तुलन बिगड़ने से इन विद्युत धाराओं में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है।

सन् 1968 में यूनेस्को द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मस्तिष्क सम्मेलन आयोजित किया गया था और संसार के विचारशील लोगों का ध्यान मस्तिष्कीय सुरक्षा एवं प्रगति की ओर आकर्षित किया था। इंटरनेशनल सोसाइटी फौराब्यूरो केमिस्ट्री−ब्रेन एण्ड बिहेवियर सोसाइटी−ब्रेन रिसर्च ऐसोसिएशन जैसी संस्थाओं ने उस वर्ष मस्तिष्कीय गरिमा, सम्भावना, सुरक्षा एवं प्रगति के सम्बन्ध में अधिक उत्साहपूर्वक काम किया था और जो कार्य वैज्ञानिक क्षेत्रों में अब तक इस दिशा में हो चुका है उसका परिचय जनता को कराया था। इंटरनेशनल रिब्यू ऑफ ब्यूरो बायोलॉजी−ब्रेन रिसर्च− जनरल ऑफ ब्यूरोबायोलॉजी जैसी विज्ञान पत्रिकाओं ने भी अति महत्वपूर्ण लेख उस वर्ष प्रकाशित करके वैज्ञानिकों, सरकारों एवं विचारशील लोगों को यह सुझाव दिया था कि मस्तिष्कीय गरिमा को अधिक गम्भीरतापूर्वक अनुभव किया जाय, और उसे परिष्कृत करने की दिशा में अधिक काम किया जाय।

मानवीय मस्तिष्क तीन पौंड से भी कम वजन का− अख़रोट जैसी आकृति का- दो गोलार्धों में बंटा हुआ अनेक घुमावों वाला माँस पिण्ड है। एक को सेरब्रिम दूसरे को सेरबेलम कहते हैं। तान्त्रिकी कोशिकाओं से बना धूसर द्रव्य वाला यह पदार्थ सूक्ष्म दर्शक यन्त्र से देखने पर चित्र विचित्र कोशिकाओं का रेगिस्तान जैसा लगता है इसके सारे कलपुर्जे इस प्रकार तुड़े−मुड़े रखे हैं मानो वे आगे बढ़ना चाहते हों, पर खोपड़ी की हड्डी ने उन्हें रोक दिया हो और वे मुड़तुड़ कर गर्भस्थ बालक की तरह किसी प्रकार गुजारा कर रहे हों।

तीन महीने के भ्रूण का दिमाग मात्र पाँच ग्राम हो होता है छः महीने का होने तक वह सौ ग्राम हो जाता है, जन्मते समय 350 ग्राम का होता है। यह प्रौढ़ मनुष्य के मस्तिष्क का एक चौथाई है अन्ततः मस्तिष्क चौदह सो ग्राम तक जा पहुँचता है। इससे प्रगट है कि आरम्भिक जीवन में मस्तिष्कीय विकास कितनी तेजी से होता है और पीछे वह कितना धीमा पड़ जाता है। छः साल के बच्चे का दिमाग प्रौढ़ता की स्थिति का पंचानवे प्रतिशत होता है। बीस वर्ष की आयु तक विकास पूर्ण हो जाता है। पीछे तो वह परिपक्व और परिष्कृत भर होता रहता है।

पुरुष की तुलना में स्त्रियों का मस्तिष्क 100 ग्राम हल्का होता है।पर उसमें शारीरिक वजन का अनुपात भर मानना चाहिये। स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा वजन में हल्की होती हैं तद्नुरूप उनका मस्तिष्क भी हल्का होता है। वजन के आधार पर किसी को विकसित अथवा अविकसित नहीं ठहराया जा सकता। संसार के प्राणियों में सबसे भारी 7000 ग्राम का मस्तिष्क ह्वेल मछली का होता है इसके बाद 5000 ग्राम का हाथी का होता है क्या उन्हें 1400 ग्राम वाले मनुष्य से अधिक बुद्धिमान कहें? संसार भर में सबसे अधिक हल्की अपने नाटे कद के कारण जापान की महिलाएं होती हैं उनका वजन औसतन 50 ग्राम कम अर्थात् 1250 ग्राम होता है फिर भी वे संसार में कहीं की भी नारियों से कम बुद्धिमान नहीं होती हैं वे अपने समाज में पुरुषों से किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं होतीं।

कुछ समय पूर्व बम्बई के एक विद्वान वी.जे. रेले. ने एक पुस्तक लिखी थी− दी वैदिक गार्डस एस. फिगर्स ऑफ बायोलॉजी उसमें उसने सिद्ध किया था कि वेदों, में वर्णित आदित्य, वरुण, अग्नि, मरुत, मित्र, अश्नि, रुद्र आदि के स्थान विशेष में सन्निहित दिव्य शक्तियाँ हैं जिन्हें जागृत करके विशिष्ट क्षमता सम्पन्न बनाया जा सकता है।

ग्रान्ट मेडिकल कॉलेज के अतार भी प्राध्यापक वाई.जी. नाडगिर और एडगर जे टामस ने संयुक्त रूप से पुस्तक की भूमिका लिखते हुए कहा है कि वैदिक ऋषियों के शरीर शास्त्र सम्बन्धी गहन ज्ञान पर अचम्भा होता है कि उस साधन हीन समय में किस प्रकार उन्होंने इतनी गहरी जानकारियों प्राप्त की होंगी आँख की सीप में ऊपर के मस्तिष्क का भाग वृहत मस्तिष्क कहलाता है वही सेरिवेलम−ब्रह्म चेतना शक्ति का केन्द्र है इन्द्र और सविता यहीं निवास करते हैं नाक की सीध में सिर के पीछे वाला भाग− सेरिवेलम− अनुमस्तिष्क− रुद्र और शूषन देवता का कार्य क्षेत्र है मस्तिष्क का ऊपरी भाग−रोदसी मध्य भाग अन्तरिक्ष और निम्न भाग पृथ्वी बतलाया गया है। रोटनी से दिव्य चेतना का प्रवाह− अन्तरिक्ष में ग्रह नक्षत्रों वाला ब्रह्मांड और पृथ्वी में अपने लोक में काम कर रही भौतिक शक्ति यों का सूत्र सम्बन्ध जुड़ा रहता है। सप्त धार सोम, अग्नि, र्स्वगद्वार, अत्रि, द्रोण, कलश एवं अश्विनी शक्ति यों का सम्बन्ध रोटसी क्षेत्र है।

अग्नि से नीचे वाले भाग को स्वर्ग द्वार और उससे नीचे वाले भाग को द्रोण कलश कहा गया है। जहाँ से सप्तसरितायें− सात नदियाँ बहती हैं। द्रोण कलश में सोमरस भरा रहता है जिसके आधार पर स्नायु केन्द्रों को शक्ति प्राप्त होती है मेरुरज्जुओं के साथ बंधे हुए दो ग्रन्थि गुच्छक अश्विनीकुमार बताये गये हैं। मस्तिष्क की परिधि को घेरे हुये एक विशेष द्रव सम्पूर्ण मस्तिष्क को चेतना प्रदान करता है इसी को वरुण कहते हैं उसी केन्द्र में अग्नि देवता का ज्ञानकोष है। मस्तिष्क के पिछले भाग में अवस्थित “टेंपोलर लोब” प्राचीन काल का शंख पालि है। इसके नीचे की पीयूष ग्रन्थियाँ जिन्हें मेदुला भी कहते हैं। अश्वमेध यज्ञ की वेदी है। अश्वमेध अर्थात् इन्द्रिय परिष्कार इसके लिए पीयूष ग्रन्थि वाला क्षेत्र ही उत्तरदायी है।

कपाल की बाह्य परिधि को प्रभावित करने वाले वरुण देवता का स्वरूप और कार्य क्या है इसका वर्णन वेदों में इस प्रकार आता है:-

“वरुणस्य पाशा वितता महान्तः”

वरुण देवता के धागे सारे क्षेत्र में फैले हुये हैं।

यस्वश्वेतर विचक्षण तिस्त्रो भूमिरधिक्षितः त्रिरुत्रराणि पप्रुतः वरुणस्य ध्रुवं सदः स सप्तानाभि रज्जत॥

अर्थात् वरुण की विलक्षण रस प्रावाहिनी धारायें तीन दिशाओं में चलती हैं इनमें से उत्तर दिशा की तीन स्नायु केन्द्रों का संचालन करती हैं। सप्तस्नायु केन्द्रों से सम्पूर्ण देह और मन क्षेत्र का अनुशासन होता है।

अवुघ्ने राजा वरुणो वनस्य ऊर्ध्व स्तूपम ददते पूत रक्षः नीनी नास्थुरु परिवुघ्न एथाम्। अस्मे अर्न्तनिहिताः केतवाः स्युः।

अर्थात् अन्तरिक्ष से राजा वरुण देह रूपी अश्वत्थ के ऊपरी भाग को प्रकाश देता है नीचे फैली हुई शिरा शाखाओं को बाँधकर रखता है वरुण ही ज्ञान सम्वेदना वाली शिराओं का सूत्र संचालक है।

देवताओं की चमत्कारी शक्ति यों को साधना विज्ञान के अंतर्गत विस्तृत वर्णन किया गया है वस्तुतः वह अपने भीतर मस्तिष्कीय क्षेत्र में सन्निहित दिव्य शक्तियाँ हैं जिन्हें अनुकूल बनाकर वे सभी लाभ वरदान प्राप्त किये जा सकते हैं जो देव अनुग्रह से मिलने वाली ऋद्धि−सिद्धियों के रूप में कहे समझे जाते हैं।


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