प्रकृति प्रतिकूलता को अनुकूल कैसे बनाया जाय

May 1975

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मनुष्य अपने बुद्धि-बल और पुरुषार्थ के अनुरूप सदा से यह प्रयत्न करता रहा है कि उसे अधिक अच्छी परिस्थितियाँ, सुविधाएँ तथा सम्पदाएँ प्राप्त होती चलें। इसके लिए उसने प्रकृति के भौतिक स्तर का ही स्पर्श किया है और तद्नुरूप थोड़ा-बहुत लाभ पाया भी है।

उसे यह ध्यान नहीं रहा कि प्रकृति का एक अध्यात्म पक्ष भी है। उसमें विकृति आने से दैवी आपत्तियाँ टूटती हैं और किये हुए सारे प्रयत्न देखते-देखते मटियामेट हो जाते हैं। प्रकृति का सूक्ष्म स्तर तब बिगड़ता है जब मनुष्य कृत चेतनात्मक विक्षोभ से पराप्रकृति का अन्तराल विषाक्त हो जाता है।

सतयुग के रामराज्य के वर्णन में यह बताया गया है कि उन दिनों प्रकृति अत्यधिक अनुकूल थी, समय पर वर्षा होती थी- वृक्ष, वनस्पतियाँ प्रसन्न होकर फलते थे, मनुष्य दीर्घजीवी थे, दूध-दही की नदियाँ बहती थीं दैवी प्रकोपों से किसी को कोई कठिनाई नहीं उठानी पड़ती थी। अकाल मृत्यु से लेकर महामारियों तक का कहीं अता-पता भी नहीं मिलता था। यह इसलिए होता था कि मनुष्यों की सद्भावनाएँ और सत्प्रवृत्तियाँ उत्कृष्ट उच्चस्तर की बनी हुई थीं।

कलियुग में तरह-तरह की दैवी विपत्तियों और विकृतियों की सम्भावना का पुराणों में जो पूर्व कथन मिलता है उसका एकमात्र आधार यही है कि जब मनुष्यों का रुझान दुष्कर्मों की ओर होगा तो उसकी प्रतिक्रिया प्रकृति के सूक्ष्म अन्तराल को विषाक्त बनायेगी। फलस्वरूप मनुष्यों को उनका प्रतिफल विपत्तियों के रूप में भुगतना पड़ेगा। सम्पत्तियाँ एवं सुविधाएं भले ही बढ़ जायं पर उन्हें शारीरिक मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, अन्तर्राष्ट्रीय हर क्षेत्र में घोर विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा। इस संकट को बढ़ाने का प्रकृति का प्रकोप भी कम योगदान नहीं देगा। कलियुग के सविस्तार भयावह वर्णन की पौराणिक भविष्यवाणियाँ इसी आधार पर है। हम देखते हैं कि वह पूर्व कथन सही होता चला आ रहा है। जिस क्रम में हम दुष्ट और भ्रष्ट बनने पर उतारू हैं उसी क्रम से प्रकृति के हण्टरों की मार दिन-दिन अधिक तीव्र एवं अधिक निर्दय बनती चली जा रही है।

प्रकृति की मौसम की अनुकूलता, प्रतिकूलता हमारी आर्थिक और शारीरिक परिस्थितियों को अत्यधिक प्रभावित करती हैं। वर्षा के न्यून अथवा अधिक होने पर पाला पड़ने, अन्धड़ चलने, तूफान, भूकम्प जैसे उपद्रव खड़े होने से कृषि, पशु पालन तथा अन्याय उद्योग धन्धों पर जो प्रभाव पड़ता है उसे कौन नहीं जानता। मौसम की असह्य प्रतिकूलता से कितने ही बीमार पड़ते हैं, कितने ही दम तोड़ देते हैं। दुर्भिक्ष, महामारी एवं अप्रत्याशित विपत्तियाँ लेकर मौसम की प्रतिकूलता जब सामने आती है तो प्राणियों को अत्यधिक कष्ट होता है। वृक्ष वनस्पतियाँ नष्ट हो जाती हैं और सर्वत्र त्राहि-त्राहि सुनाई पड़ती है। इसके विपरीत यदि मौसम अनुकूल हो तो आर्थिक और शारीरिक खुशहाली बढ़ने का भरपूर लाभ मिलता है।

सन् 71 के अक्टूबर मास में उड़ीसा के समुद्र तट पर तूफान ने जो कहर ढाया उसकी याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कटक के समीपवर्ती क्षेत्र में उसने 7 हजार व्यक्तियों की बलि देखते-देखते लेली थी। 6 हजार वर्ग मील में बसी 50 लाख की जनसंख्या को उसने दयनीय दुर्दशा के गर्त में झोंक दिया था। एक अरब रुपये की सम्पत्ति बर्बाद हो गई। सात लाख मकान नष्ट हो गये। इसके पीछे एक ओर साथी जुड़ा हुआ था, गनीमत इतनी हुई कि वह पश्चिम बंगाल की ओर मुड़ गया। अन्यथा वह दूसरा रहा सहा विनाश पूरा करके उसे सर्वनाश की स्थिति तक पहुँचा देता है।

मियानी (फ्लोरिडा) की नेशनल हरीकेन रिसर्च लैबोरेटरी के डायरेक्टर डा.सेसिले गेन्ट्री के उन प्रयासों पर प्रकाश डाला है जो समुद्री तूफानों पर किसी कदर नियन्त्रण प्राप्त कर सकने में सफल हुए हैं। बादलों पर सूखी बरफ का चूर्ण गिराकर उन्हें हलका और दुर्बल बना दिया गया। डा. सिम्पसन ने सिल्वर आयोडाइड छिड़क कर तूफान को हल्का किया। तूफानों का उठना रोकने तथा दिशा बदलने में तो सफलता नहीं मिली, पर ‘सीडिंग‘ उद्योग शृंखला का यह परिणाम जरूर निकला कि चक्रवातों का वेग 31 प्रतिशत तक घटाया जा सका। विरास और निम्बये उपग्रह इस संदर्भ में इन दिनों कई तरह की जाँच पड़ताल कर रहे हैं ताकि इन सत्यानाशी तूफानों की उच्छृंखलता पर किसी प्रकार नियन्त्रण स्थापित किया जा सके।

‘साइक्लोन्स हाउ टू गार्ड अगेन्स्ट दैम’ पुस्तक में दिये गये विवरणों से विदित होता है कि भारत को समय-समय पर इन समुद्री तूफानों से कितनी क्षति उठानी पड़ती है। 16 अक्टूबर 1942 को बंगाल की खाड़ी में 140 मील प्रति घण्टा की चाल से एक ऐसा तूफान आया था जिसने कलकत्ता नगर को झकझोर कर रख दिया। भयंकर वर्षा हुई। ज्वार की लहरों ने 250 वर्ग मील सूखी जमीन को पानी से भर दिया। पानी की ऊँचाई 16 फुट तक जा पहुँची थी। करीब 15 हजार मनुष्य और 60 हजार पशु मरे।

अतिवृष्टि, अनावृष्टि भूकम्प आदि आदि की बात छोड़ कर केवल आँधी, तूफान की एक विपत्ति पर ही विचार करें तो प्रतीत होगा कि इस शताब्दी में उससे अति भयावह हानि उठानी पड़ी है। प्रगति के नाम पर हुए उपार्जन का एक बड़ा भाग इन अन्धड़ चक्रवातों ने निर्दयतापूर्वक उदरस्थ कर लिया है।

इस स्तर के अगणित अन्धड़ समुद्री क्षेत्र में इन दिनों आये दिन उठते रहते हैं और वे भारी विनाश उत्पन्न करते हैं। ये अन्धड़ प्रायः एक हजार से लेकर दो हजार किलो मीटर क्षेत्र का मौसम उद्विग्न कर देते हैं और अपने विकराल रूप से महाविनाश के लिए आगे बढ़ते हैं। कोई-कोई छोटे या बड़े भी होते हैं। हवा का वेग जब 60 किलोमीटर प्रति घण्टे से अधिक हो जाता है तो उसे तूफान कहते हैं। 85 किलोमीटर का वेग उग्र तूफान कहा जाता है। यह चक्रवात यदि समुद्र की परिधि में ही उठे और यहीं समाप्त हो जाय तो उससे उस क्षेत्र के जल जीवों एवं जलयानों को ही क्षति पहुँचती है, पर यदि वे थल क्षेत्र में घुस पड़ें तो फिर तटवर्ती क्षेत्रों में भयावह विनाश लीला प्रस्तुत करते हैं।

उष्ण कटिबन्ध में भूमध्य रेखा के उत्तर में जो हवाएँ चलती हैं उनका प्रवाह उत्तर पूर्व की ओर होता है और दक्षिण भाग का वायु प्रवाह दक्षिण पूर्व की ओर। इन दोनों के मध्य का जो शान्त क्षेत्र है उसमें चक्करदार हवा के चक्रवात उठते हैं। दक्षिण गोलार्ध में वे दक्षिणावर्त घूमते और उत्तरी गोलार्ध में वामावर्त।

हिन्द महासागर में अप्रैल, मई एवं नवम्बर, दिसम्बर के बीच उठने वाले चक्रवात विशेष रूप से प्रचण्ड होते हैं। वे साधारणतया प्रतिदिन 500 मील का सफर करते हैं और 150 किलोमीटर की पट्टी को प्रभावित करते चलते हैं। कुछ चक्रवात एक ही जगह डेरा डालकर बैठ जाते हैं, कुछ की चाल एक हजार मील प्रतिदिन की होती है।

विज्ञान इसके लिए प्रयत्नशील है कि इन आये दिन मनुष्य जाति को संत्रस्त करने वाले तूफानों के कारणों का पता लगाये और उनके निवारण का उपाय सोचे। इस दिशा में कुछ कार्य हुआ भी है और आशा दिलाई गई है कि इस प्रकृति असंतुलन पर भी भौतिक प्रयत्नों से विजय प्राप्त कर ली जायगी।

टेलीविजन और इन्फ्रारेड आवजर्वेशन सैट लाइट (टाइरोस) यन्त्र आकाश में उड़ाकर मौसम सम्बन्धी पूर्व जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न पिछले 13 वर्षों से किया जा रहा है। इन उपकरणों ने पिछले दिनों जो जानकारियाँ भेजी हैं उनसे यह आशा बंधी है कि निकट भविष्य में मौसम के परिवर्तनों की विशेषतया वर्षा एवं आँधी तूफानों की पूर्व जानकारी प्राप्त की जा सकेगी और उस आधार पर सम्भावित विपत्ति से बचने के लिए सुरक्षात्मक प्रयत्न कर सकना सम्भव हो सकेगा।

संसार का मौसम नियन्त्रण में रखने के लिए कुछ उपाय वैज्ञानिक जगत में विचाराधीन हैं। (1) आर्कटिक क्षेत्र की हिमि राशि पर कालिख पोत दी जाय ताकि इससे सौर ऊर्जा पर नियन्त्रण करके उत्तरी ध्रुव क्षेत्र को मानवोपयोगी बनाया जा सकेगा (2) समुद्र में जहाँ से अधिक बादल उठते हैं और अनावश्यक वर्षा करके बर्बादी प्रस्तुत करते हैं उन क्षेत्रों पर हेक्सडिकानोल जैसे रसायनों की परत जमा कर बादल बनना सीमित कर दिया जाय। ताकि अधिक वर्षा वाले क्षेत्र भी उपजाऊ हो सकें। (3) आर्कटिक क्षेत्र के नीचे धरती खोदकर उसमें 10 मेगाटन शक्ति के दस ऐसे हाइड्रोजन बम फोड़े जायं जो विषाक्त विकिरण से रहित हों। इससे 5 मील मोटा बर्फ का बादल आकाश में छितरा जायगा और पृथ्वी का मौसम अब की अपेक्षा थोड़ा और गर्म हो जायगा। (4) बेरिंग मुहाने पर 55 मील चौड़ा बाँध बनाकर आर्कटिक सागर के ठण्डे पानी को प्रशांत महासागर में मिलने से रोक दिया जाय।

सोचा जा रहा है कि यह योजनाएँ बड़ी तो हैं और खर्चीली भी, पर यदि मनुष्य को व्यापक पैमाने पर मौसम का नियन्त्रण करना है तो उतना बड़ा पुरुषार्थ भी करना ही होगा।

आखिर आँधी, तूफान आते क्यों हैं? उठते कहाँ से हैं? इनका उद्गम स्त्रोत कहाँ है? इन प्रश्नों का उत्तर विज्ञान ने अपने ढंग से प्रस्तुत किया है।

कहा गया है कि मौसम का निर्माण एवं परिवर्तन के चार प्रमुख आधार हैं-(1) सूर्य के द्वारा प्रेषित ऊर्जा का वातावरण पर पड़ने वाला प्रभाव (2) पृथ्वी के भ्रमण मार्ग में प्रस्तुत होते रहने वाले आधार (3) धरती से उठने वाले और सूर्य से गिरने वाले दबाव की प्रतिक्रिया (4) भूगर्भी एवं अन्तरिक्षीय प्रभावों से उत्पन्न विस्फोटीय उत्तेजना। इन चारों से मिलकर मौसम के उतार-चढ़ाव उत्पन्न होते हैं। सूर्य, वायु, पृथ्वी तथा अन्तरिक्ष की स्थिति के अनेकानेक ज्ञात-अविज्ञात कारण मिलकर मौसम का निर्माण करते हैं। कौन ऋतुएँ किन महीनों में होती हैं। वर्षा, सर्दी, गर्मी के दिन कब होते हैं यह मोटी जानकारी ही हमें प्राप्त है। किस अवधि में क्या घटना क्रम किस प्रकार घटित होगा इसे ठीक तरह से जान सकना अभी किसी के लिए भी सम्भव नहीं हुआ है।

पृथ्वी से 9 करोड़ 29 लाख मील दूर बैठा हुआ सूर्य पृथ्वी पर अपनी ऊर्जा का केवल दो अरबवाँ भाग भेजता है, पर वह भी प्रति मिनट 23 अरब हार्स पावन जितना होता है। यह ऊष्मा अत्यधिक प्रचण्ड है यदि वह सीधी धरती पर आती तो यहाँ सब कुछ जल भुन जाता। खैर इसी बात की है कि इस ताप का अधिकाँश भाग बादलों, समुद्री, ध्रुवीय हिमि शृंखलाओं और वायुमण्डल की विभिन्न परतों द्वारा सोख लिया जाता है। यह अवशोषण भी बहुत सन्तुलित है। सामान्य धरातल को जो सूर्य ताप प्राप्त होता है यदि उसमें 13 प्रतिशत और कमी किसी कारण हो जाय तो फिर सारी पृथ्वी एक मील ऊँची बर्फ की परत से ढक जायगी।

पच्छिम से पूर्व की ओर ध्वनि वेग से भी अधिक तेजी के साथ अण्डाकार कक्षा में परिक्रमा करती रहती है। उसकी धुरी 3॥ डिग्री झुकी हुई है। इससे सूर्य किरणों तिरछी पड़ती हैं इससे न केवल सौर ऊर्जा में वरन् जल प्रवाहों और हवाओं की संचरण प्रक्रियाओं में भी अन्तर पड़ता है। मौसम बदलते रहने का यह भी एक बड़ा कारण है।

पृथ्वी की गति को बदलना उनकी कक्षा में परिवर्तन लाना सूर्य को अमुक, अमुक मात्रा में ऊर्जा भेजने के लिए विवश करना आज के तथाकथित विकासमान विज्ञान को अति कठिन मालूम पड़ता है। इतनी ऊँची बात जाने भी दी जाय और ऐसा भर सोचा जाय कि मौसम की सामयिक परिस्थितियों की ही थोड़ी रोकथाम कर ली जाय तो वह भी इतना अधिक भारी प्रतीत हाता है कि बार-बार उतना कर सकना सम्भव ही न हो सकेगा।

यदि सारी दुनिया की हवा इच्छानुसार चलाई जाय तो इसके लिए प्रतिदिन दस लाख परमाणु बम फोड़ने से उत्पन्न हो सकने जितनी शक्ति जुटानी पड़ेगी। समस्त वायुमण्डल के तापक्रम में एक अंश सेन्टीग्रेड गर्मी और बढ़ानी हो तो डेढ़ हजार अणुबम फोड़ने होंगे। एक मामूली सा तूफान रोकना हो तो उसके लिए एक मेगाटन ऊर्जा की आवश्यकता पड़ेगी। इतनी ऊर्जा

जुटाकर प्रकृति से लड़ सकना और उसे वशवर्ती बना सकना विज्ञान के लिए कब और कैसे सम्भव हो सकेगा यह कोई नहीं कह सकता।

शरीर का स्वास्थ्य ठीक बनाये रखने के लिए मानसिक स्वास्थ्य को सुधारना आवश्यक है, इस तथ्य पर विज्ञान बहुत दिन बाद अब आकर पहुँचा है। इससे पूर्व शरीर और मानसिक स्वास्थ्य को पृथक-पृथक मानकर उनके सम्बन्ध में सोचा जाता रहा है। अब अनेक शोधों ने यह सत्य प्रकट कर दिया है कि शरीर को निरोग रखना हो तो मन की निरोगता संभालना आवश्यक है। बिलकुल यही तथ्य परा और अपरा प्रकृति के सम्बन्ध में लागू होता है। विज्ञान की पहुँच जिस स्थूल प्रकृति तक है वह सब कुछ नहीं है। उसके अन्तराल में सूक्ष्म प्रकृति काम करती है जो चेतना है। उनकी परिशुद्ध इस बात पर निर्भर है कि संसार में सद्भाव सम्पन्न वातावरण संव्याप्त हो। सतयुग में ऐसी ही स्थिति के फलस्वरूप स्थूल प्रकृति शान्त और सन्तुलित रहती थी और संसार में सुखद प्रकृति अनुकूलता बनी रहती है।

स्थूल प्रकृति को अनुकूल बनाने के लिए-मौसम को नियन्त्रण में रखने के लिए जितने खर्चे की जितने पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ेगी, उसका लाखवाँ भाग भी यदि सूक्ष्म प्रकृति को शान्त सन्तुलित रखने के लिए, सदाशयता पूर्ण वातावरण बनाने के प्रयत्न में लगाया जाय तो मनुष्य पारस्परिक सद्-व्यवहार करेगी। कलियुगी प्रचलन को यदि सतयुग की रीति-नीति में बदला जा सके तो मौसम ही नहीं वातावरण का हर भाग बदल जायगा और विक्षोभ के स्थान पर मंगलमय उल्लास बिखरा दिखाई पड़ेगा। संसार के मूर्धन्य व्यक्ति न जाने क्यों इस तथ्य पर ध्यान नहीं देते।


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