धन का संग्रह नहीं सदुपयोग किया जाय

May 1975

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सोना, चाँदी, रत्न आदि बहुमूल्य पदार्थों अथवा मुद्रा को धन के रूप में इसलिए स्वीकारा गया है कि श्रम एवं पदार्थों को चिरस्थायी नहीं रखा जा सकता था। वस्तुओं से वस्तुओं के विनिमय में कठिनाई पड़ती थी तथा तत्काल जिनकी आवश्यकता न हो उन पदार्थों को रोक रखने का झंझट खड़ा होता था। इन असुविधाओं का समाधान करने के लिए धन का प्रचलन हुआ। मूलतः उसका स्वरूप श्रम अथवा उत्पादित पदार्थों के रूप में ही है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि धन का औचित्य उसके उपार्जनकर्ता की श्रमशीलता एवं कर्म कौशल के साथ ही जुटा होना चाहिए। उसे उत्पादनकर्ता के उचित उपार्जन का प्रतिनिधि ही समझा जाना चाहिए।

स्वर्ण आदि धातुओं अथवा मुद्राओं के रूप में धन का प्रचलन होने से जहाँ उपरोक्त सुविधाएँ हुई वहाँ एक अवाँछनीयता भी उत्पन्न हो गई कि चतुर लोग येन−केन प्रकारेण धन उपलब्ध करके उन सुविधाओं का उपयोग करने लगे जो केवल शारीरिक एवं मानसिक कठोर श्रम करके उपयोगी उत्पादन करने वालों को ही मिलनी उचित थी। हराम की कमाई इस दृष्टि से दण्डनीय अपराधों में गिनी जानी चाहिए थी, किन्तु दुर्भाग्यवश समाज पर अवाँछनीय व्यक्तियों का आधिपत्य हो जाने से हर व्यक्ति को उपलब्ध धन से भरपूर लाभ उठाने की छूट मिल गई और इस बात की उपेक्षा कर दी गई कि धन किस माध्यम से उपार्जित किया गया। होना यह चाहिए था कि श्रम उपार्जित करने पर ही किसी धन से कुछ खरीदा जा सकता है।

धन संग्रह के साथ श्रम उपार्जन का बन्धन न रहने से अगणित ऐसे अनैतिक मार्ग निकल पड़े जिनके सहारे अनैतिक तत्व अवाँछनीय धन एकत्रित करने के लिए स्वतंत्र हो गए। यहीं से भ्रष्टाचार आरम्भ होता है व्यसन और व्यभिचार की उद्धत अहंकार प्रदर्शन करने के लिए राजसी ठाठ-बाठ की छूट यहाँ से मिली। बढ़ती हुई असमानता ने अभावग्रस्त लोगों में लालच, ईर्ष्या एवं आक्रोश को जन्म दिया और उस पृष्ठ भूमि पर नाना प्रकार के अपराध एवं अवाँछनीय प्रचलन उठ खड़े हुए। उत्तराधिकार में सन्तान को बैठे-ठाले मुफ्त का माल मिलने लगा तो उससे न केवल सामाजिक विषमताएँ फैली वरन् अपव्यय के साथ जुड़े अनैतिक आचरणों की भी धूम मच गई। अस्त-व्यस्तता जन्य आज की अगणित समस्याओं की जड़ यही है और सामाजिक सुरक्षा, सुव्यवस्था स्थापित करनी हो तो उसके लिए श्रम उपार्जित धन के उपयोग की ही छूट रहनी चाहिए और हराम की कमाई के सभी स्त्रोत बन्द करने चाहिए। जुआ, सट्टा, लाटरी आदि इसी इसी अवाँछनीय वर्ग में आते हैं। चोरी, बेईमानी की तरह ही हराम की हर कमाई पर प्रतिबन्ध रहना चाहिए। उत्तराधिकारी में परिवार को उतना ही धन मिलना चाहिए जितना कमाने में असमर्थ लोगों के उचित भरण पोषण के लिए आवश्यक हो।

उचित यही है कि सम्पत्ति संग्रह की लालसा से जन साधारण को विरत किया जाय और श्रम उपार्जित सम्पदा से सामने पड़े कर्तव्यों की पूर्ति सही रीति से करते रहने की उदात्त दृष्टि विकसित की जाय। पूँजी द्वारा बड़े उत्पादन का जहाँ तक सम्बन्ध है वह काय सहकारी संस्थाओं के माध्यम से किया जाय और उसमें पूँजी लगाकर लोग उचित लाभाँश प्राप्त करें।

हर व्यक्ति का ध्यान वैयक्तिक योग्यता के बढ़ाने और कठोर श्रम करके न्यायोचित धन कमाने पर ही रहना चाहिए। कमाने से भी अधिक गहराई में यह देखा जाना चाहिए कि उपार्जन का श्रेष्ठतम सदुपयोग हुआ या नहीं। वैयक्तिक संग्रह तो हर दृष्टि से हानिकारक ही सिद्ध हो सकता है।


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