ताते यह चाकी भली

May 1975

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मगधाधिपति अशोक अपने विजय अभियान से लौटे ही थे। राजधानी में खुशियाँ मनाई जा रही थीं− विजयोत्सव सारे राज्य में चल रहा था। इस अभियान में सम्राट अशोक ने काफी सम्पत्ति और रत्न स्वर्ण हीरे जीते थे।

एक दिन की बात है। राजगृह के बौद्ध भिक्षु पाटलिपुत्र पहुँचे और वहाँ उनके प्रवचन आयोजित हुए। तपःपूत बौद्धभिक्षु की मोहक वाणी से आकर्षित हुए लोग समिति में खिंचे चले आते। दिन प्रतिदिन श्रावकों की संख्या बढ़ती ही चली जाती। पूरी पाटलिपुत्र नगरी महाभिक्षु से प्रभावित हुई और विजयोत्सव को भूल सी गयी। विजयोत्सव का उत्साह क्षीण होता जा रहा था और उसके स्थान पर लोगों की अभिरुचि एक बौद्ध− संन्यासी के प्रवचनों में उन्मुख हो गयी है। यह जानकर प्रभावित हुए अशोक भी।

ऐसा कौनसा जादू भरा है− भिक्षु की वाणी में जो जनता विजयोत्सव के राग−रंगों को भुलाकर नीरस धर्म और अध्यात्म के प्रवचन सुनने लगी है। अशोक के लिए तब धर्म का कोई विशेष अर्थ नहीं था। अवकाश का चिन्तन और अवकाश की चर्चा का विषय ही शायद उसकी मान्यता में धर्म था। तो महाभिक्षु की ख्याति और प्रभाव सुनकर उन्हें आश्चर्य भी हुआ और औत्सुक्य भी जागा।

एक दिन वे स्वयं महाभिक्षु का प्रवचन सुनने गये। सुनकर वे भी प्रभावित हुए ही, और तत्क्षण ही उन्होंने महाभिक्षु को भोजन के लिए आमन्त्रित किया। सम्भवतया अशोक महाभिक्षु की निष्ठाओं को परखना ही चाहते थे। प्रतिपादित त्याग, सादगी और आर्जव के आदर्श स्वयं भिक्षु के जीवन में कितने समाविष्ट हैं? अथवा कथनी का ही विषय है। निश्चित ही यह जानना सम्राट अशोक का अभिप्रेत था। स्वीकार आमन्त्रण के निर्वाह हेतु महाभिक्षु निश्चित समय पर राज भवन में आये। सम्राट अशोक ने उनका अभिनन्दन, अभ्यागमन किया और मधुर−मधुर पकवान् स्वयं के हाथों से परोसे। महाभिक्षु अशोक के अंतःकरण में चल रही भुञ्झाओं को भलीभाँति जान रहे थे सो उन्होंने इन्हें अनावश्यक कहते हुए साधारण भोजन ही ग्रहण किया।

भोजन के पश्चात् सम्राट ने महाभिक्षु को अपना सारा महल घुमाया और एक−एक मूल्यवान वस्तु का दर्पपूर्वक परिचय दिया। अन्त में वे विशाल रत्न भण्डार में ले गये और वहाँ सुरक्षित रत्नों को दर्शाते हुए कहा भिक्षुराज! ऐसे बहुमूल्य व विशाल रत्न भारत भर में दुर्लभ हैं।

भिक्षु ने कहा− तो राजन! इनसे ‘राज्यकोष का भारी’ आय होती होगी।

आय! अशोक ने कहा− ‘विपरीत इसके इनकी सुरक्षा पर राज्यकोष से व्यय करना पड़ता है।’

तो इन बहुमूल्य पत्थरों से भी मूल्यवान पत्थर मैंने तुम्हारे राज्य में देखा है। विश्वास न हो तो मेरे साथ चलो, वे जहाँ में उन्हें दिखा सकता हूँ।

अशोक भिक्षु के साथ चल पड़ा। महाभिक्षु उन्हें नगर की एक उपेक्षित बस्ती में ले गये और एक घर का द्वार खटखटाया थोड़ी देर बाद एक वृद्धा ने द्वार खोला।

महाभिक्षु अशोक के साथ घर के अन्दर चले गये और उन्होंने सम्राट को एक पत्थर की चक्की की ओर इंगित करते हुए कहा− ‘यह है।’

‘यह ! यह तो चक्की है, महाराज।’

‘हाँ चक्की है। परन्तु तुम्हारे रत्नों से श्रेष्ठ है क्योंकि रत्नों की सुरक्षा पर सहस्रों मुद्रायें खर्च करनी पड़ती हैं फिर भी उनसे प्रत्यक्षतः कोई लाभ नहीं और यह चक्की इस वृद्धा का इस इसके नेत्र हीन पति ओर दो बच्चों का पोषण करती है।’

अशोक निरुत्तर था। और कहते हैं इसके दूसरे ही दिन सम्राट ने सम्पूर्ण रत्न भण्डार दान कर दिया।


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