संसार को आलोकित रखने में सूर्यदेव निरंतर गतिमान रहते हैं। मेघों का अभाव अवृष्टि का कारण न बने, उसके लिए समुद्र सतत बड़वानल में जला करते हैं। सितारे रोज चमकते हैं, ताकि मनुष्य अपनी अहंता में ही न पड़ा रहकर विराट ब्रह्म की प्रेरणाओं से पूरित बना रहे। अपनी श्वास-प्रश्वासक्रिया द्वारा संसार का विष पीने और अमृत उड़ेलने का पुण्य-पुरुषार्थ वृक्षों ने कभी बंद नहीं किया। कर्म का परोपकार में अर्पण सृष्टि की मूल प्रेरणा है। जिस दिन यह प्रक्रिया बंद हो जाए, उस दिन विनाश ही विनाश, शून्य ही शून्य, अंधकार के अतिरिक्त कुछ भी तो न रह जाए?
पवन नित्य चलती है और प्राणदीपों को सजग बनाए रखने का कर्त्तव्यपालन करती है, फूल हँसते और मुस्कराकर कहते हैं— "काँटों की चिंता न करके संसार सौंदर्य बढ़ाते रहने में ही जीवन की शोभा है।" कोयल कूकती है तो उसके पीछे जो आभा प्रतिध्वनि होती है, उसमें संसार में माधुर्य बनाए रखने का शांत सरगम गूँजता प्रतीत होता है। अपने नन्हें से बच्चे की चोंच में दाना डालकर चिड़िया अपने वंश का पोषण ही नहीं करती, अपितु असमर्थ और अनाश्रितों को आश्रय देने की परंपरा पर भी प्रकाश डालती है।
जीवन की मूल प्रेरणा है— परमार्थ और लोक-कल्याण के लिए कर्त्तव्य कर्म का निरंतर पालन। जब सृष्टि का प्रत्येक कण इस पुण्यपरंपरा का आदर करने में लगा हुआ है तब मनुष्य अपनी सृष्टि का सौंदर्य निखारने का प्रयत्न न करे, इससे बढ़कर लज्जा और आपत्ति की बात उसके लिए और क्या हो सकती है?
— महर्षि अरविंद