मनुष्य की समझदारी जितनी बढ़ी-चढ़ी है। नासमझी की मात्रा उससे कम नहीं है। अन्न खाते-खाते पीढ़ियाँ बीत गईं, पर यह तमीज अभी भी नहीं आई है कि उसमें खाने योग्य कौन-सा भाग है और फेंक देने योग्य कौन-सा?
आमतौर से छना हुआ आटा काम में लाया जाता है। भूसी फेंक दी जाती है और बारीक आटा, मैदा, सूजी आदि खाने में काम आती है। उसे बुद्धिमान आदमी की मूर्खता का अनोखा उदाहरण कहना चाहिए।
अन्न का सार भाग उसकी भूसी में है, सारे उपयोगी तत्त्व उसी में हैं। यदि भूसी और आटे में से एक को फेंकना हो तो कोई विज्ञानवेत्ता यही कह सकता है कि ‘आटा’ फेंक दिया जाए और भूसी को खाया जाए।
अनाज की 90 प्रतिशत पौष्टिकता तो हम ऐसे ही कूड़े में फेंक देते है। चक्की में पीसते समय सबसे पहले ऊपर का छिलका भूसी के रूप में अलग कर दिया जाता है। सबसे पौष्टिक अंश यही है जिसे हम छानकर आटे से अलग कर देते हैं। खाते उस भाग को हैं, जो एक प्रकार से तत्त्वरहित और मरा हुआ है। संपूर्ण दाने का एक-ढाई प्रतिशत ही पौष्टिक भाग इस महीन पिसे आटे में शेष रह जाता है। प्रोटीन, विटामिन बी कांपलेक्स, विटामिन ई, लौह तत्त्व, कैल्शियम जैसे अतिमहत्त्वपूर्ण तत्त्व उस भूसी में ही चले जाते हैं, जिसे व्यर्थ समझकर फेंक दिया जाता है। कैल्शियम तो अति उपयोगी है, उसकी पूर्ति के लिए वैज्ञानिकों ने यह अनुरोध किया है कि बारीक और छना हुआ आटा ही काम में लाना हो तो कम से कम 100 पौंड आटे के पीछे 5 ओंस कैल्शियम तो उसमें मिला ही लिया जाए।
इसे आश्चर्य ही कहना चाहिए कि मनुष्य इस मोटी बात को जानते हुए भी अनजान ही बना हुआ है। छने हुए आटे का स्वाद और शोभा उसे भाती है, पर भूसी के गुणों की ओर से आँखें बंद करके उसके रंग-रूप से भड़क उठता है। हानि-लाभ तक का अंतर न समझ पाने की इस प्रथा-परंपरा को क्या कहा जाए?
आटे और भूसी वाली गलती वह जीवन के हर क्षेत्र में ही कर रहा है। जीवनोद्देश्य को भूलकर लिप्सा में भटक पड़ना ऐसी ही भूसी-आटे जैसी और भी बढ़ी-चढ़ी भूल है। समझदार कहे जाने वाले आदमी की यह नासमझियाँ कैसी दुखद और अद्भुत हैं।