ईश्वरप्राप्ति के लिए उपासना आवश्यक

June 1972

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ईश्वर की पूजा-प्रार्थना अध्यात्म की आरंभिक-प्रक्रिया है। इसका प्रयोजन यह है कि हम जिस ईश्वर को एक प्रकार से सर्वथा भुला चुके हैं, उसे स्मरण करें और स्मरण के साथ-साथ यह देखें कि मनुष्य जीवन के साथ उसका संबंध है। इस संबंध को ठीक तरह समझ लेने और उसका निर्वाह करने की ललक जागृत करना— यह अध्यात्म का मूलभूत प्रयोजन है। इसी की पूर्ति के लिए उपासना की— कीर्तन, भजन, तप, स्तवन आदि की— आवश्यकता समझी गई है।

यों ईश्वर के बारे में हमने बहुत कुछ सुना-पढ़ा है। मंदिरों में उसके दर्शन भी किए हैं और कृपाप्राप्त करने के लिए पूजा-पाठ भी, पर सच तो यह है कि अभी तक उसे ठीक तरह समझा भी नहीं जा सका। यदि इतनी भर सफलता मिल जाती तो उपासना भी ठीक तरह बन पड़ती और उसका लाभ भी प्रत्यक्ष दिखाई  पड़ता।

लोग इतना भर जानते हैं कि ईश्वर किसी अन्य लोक में रहने वाले ऐसे देवता का नाम है जो पूजा-अर्चा का भूखा और स्तुति-प्रार्थना का प्यासा बैठा रहता है। जो कोई उसे यह चीजें दे दे, उसे निहाल कर देता है। उसे पापों का दंड नहीं देता और जो पूजा-प्रार्थना नहीं करता, उससे रुष्ट रहता है और कष्ट पहुँचाता है। यदि यह मान्यता सही हो तो नैतिकता और न्याय की कसौटी पर ऐसा ईश्वर सर्वथा ओछा और खोटा सिद्ध होगा। तब उसकी व्यवस्था में किसी सिद्धांत, आदर्श, नियम या व्यवस्था की कैसे आशा की जाएगी और उसके प्रति किसी विवेकवान व्यक्ति के मन में श्रद्धा क्यों कर उत्पन्न होगी?

सच्चाई प्रचलित मान्यता से सर्वथा भिन्न है। ईश्वर सर्वव्यापी दिव्यचेतना को कहते हैं, जो श्रेष्ठता के रूप में मानव अंतःकरण को विकसित करती है। ईश्वर एक प्रेरणा है, जो हमें उत्कृष्ट जीवनयापन करने और आदर्श क्रियाकलाप अपनाने की ओर अग्रसर करती है। ईश्वर एक प्रकाश है, जो हमें न्यायनिष्ठ, विवेकशील और कर्त्तव्यनिष्ठ बनने के लिए मार्गदर्शन करता है।

सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों के रूप में मनुष्य के अंतःकरण में— सबसे निकट यह ईश्वर विद्यमान रहता है, पर दुर्भाग्यवश हम उससे विमुख होकर आसुरी, ईश्वरविरोधी और नास्तिकवादी रीति-नीति अपनाते हैं। हमारी चेतना में स्वार्थ भरी संकीर्णता समाई रहती है। वासना और तृष्णा के लिए अंतःकरण लालाइत रहता है। वह प्रक्रिया विशुद्धरूप से ईश्वरविरोधी है। नियति के निर्धारित चक्र का व्यतिक्रम करके कोई चैन से नहीं बैठ सकता। नास्तिक को न शांति मिलती है, न संतोष। वह सदा पतित और व्यथित ही दिखाई पड़ता है।

उपासना इसलिए की जाती है। देवदर्शन, पाठ, जप, ध्यान, पूजन आदि का प्रयोजन यह है कि ईश्वर हमें याद आए। मानसिक चिंतन और शारीरिक कर्तृत्व में ईश्वरीय महत्ता को ओत-प्रोत करने की आवश्यकता अनुभव होती रहे, साथ ही इस बात का भी भान रहे कि ईश्वर और जीव यदि मिल-जुलकर, एक होकर रहें तो उससे हर्ष और आनंद का विस्तार होगा। ईश्वर संतुष्ट होगा कि उसने मनुष्य के निर्माण पर जो श्रम किया था, वह निरर्थक नहीं गया। जीव आनंद अनुभव करेगा कि उसने सर्वशक्तिमान सत्ता के संकेतों पर चलना स्वीकार करके उसका स्नेह-सद्भाव और अनुग्रह प्राप्त कर लिया।

पूजा-उपासना को साधना कहते हैं। साधन की चेष्टा जुटाना— साधना। साधन अर्थात प्रयत्न, उपकरण, क्रियाकलाप। साध्य— ईश्वर की अनुकंपा की— प्रसन्नता और सहायता की प्राप्ति। साधना एक उपाय भर है। प्रार्थना, स्तुति, पूजा, जप उस कर्त्तव्य का स्मरण दिलाता है, जो हमें ईश्वरप्राप्ति के लिए करना है। आत्मपरिष्कार— लोक-मंगल, परमार्थ से युक्त मनोभूमि और क्रियापद्धति ही वह मार्ग है, जिस पर चलकर ईश्वरप्राप्ति होती है। पूजा-उपासना इस कर्त्तव्य से विमुख न होने— इसके लिए निरंतर सचेष्ट रहने की प्रेरणा करती है; इसलिए उसे भी प्रथम चरण के रूप में आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी माना गया है।


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