कुरुक्षेत्र की धर्मभूमि में तपस्यारत ऋषि मुद्गल के आदर्श धर्माचरण, आराधन और बीजोच्छवृत्ति द्वारा जीवन-निर्वाह थे। मास के पहले पक्ष में वे खेतों से बीज बीनकर चावल एकत्र करते और दूसरे पक्ष में उसे यज्ञ और अतिथियोँ के सत्कार में व्यय कर देते थे। ऋषिश्रेष्ठ दुर्वासा छह हजार शिष्यों सहित मुद्गल की परीक्षा हेतु उनके आश्रम पर गए और निस्पृह मुद्गल ने उन्हें हर बार आतिथ्य द्वारा पूर्णतः संतुष्ट कर दिया।
दुर्वासा ऋषि मुद्गल पर कृपालु हुए। उन्होंने कुरुक्षेत्र के इस तपस्वी को स्वर्गप्राप्ति का वरदान दिया। देवदूत ऋषि मुद्गल को स्वर्ग ले जाने के लिए आए तो तपस्वी ने पूछा— ”दूत ! पहले स्वर्ग निवासियों के गुण, वहाँ के सुख और दुःखों का वर्णन करो, तभी मैं वहाँ चलने के विषय में विचार करूँगा।” देवदूत ने नम्र स्वर में कहा— "तपस्वीश्रेष्ठ! आप जैसे धर्मात्मा, जितेंद्रिय और दानी ही स्वर्ग के अधिकारी हैं। वहाँ शोक का नाम नहीं, मात्र सुख ही सुख है। दोष यह है कि वह भोगभूमि है; अतएव वहाँ कर्म का कोई स्थान नहीं। वहाँ मृत्युलोक में किए शुभकर्मों का फल ही भोगा जाता है, नया कर्म नहीं किया जा सकता।”
मुद्गल ने गंभीर स्वर में कहा— "हे दूत! खेद है, तुम्हें एकाकी स्वर्ग लौटना पड़ेगा। मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकूँगा। जिस लोक में कर्म नहीं, वहाँ केवल भोग हेतु जाना मुझे पसंद नहीं। तुम्हारे स्वर्ग की अपेक्षा मुझे अपना यह मृत्युलोक प्रिय है, जहाँ कर्म और साधन द्वारा मैं निर्वाण प्राप्त कर सकता हूँ।”
तपस्वी मुद्गल ने मृत्युलोक में ही लोक-मंगल के लिए चिरसाधना करते हुए अविरत कर्मयोग द्वारा आवागमन से परे निर्वाण को प्राप्त किया।