विरानों को प्यार— अपनों का तिरस्कार, ऐसा क्यों?

June 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

दूसरों से हमें प्यार करना चाहिए, पर उस प्रेम-परिधि से अपने को अलग नहीं रखना चाहिए। सेवा-सहायता दूसरों की भी करनी चाहिए, पर उससे वंचित अपने को भी नहीं रखना चाहिए।

वस्तुतः हम दूसरों से प्यार और अपने से शत्रुता बरतते रहते हैं। वस्त्रों को साफ-सुथरा रखते हैं, पर शरीर को रोगों से ग्रसित और फटा-टूटा ही बनाए रहते हैं। वस्त्र भी अपने हैं, उनकी साज-सँभाल रखनी चाहिए। उन्हें प्रभावोत्पादक और करीने का होना चाहिए, पर कम से कम उतना ही ध्यान शरीर का भी तो रखा जाए। वस्त्र संबंधी सतर्कता और सुरुचि के साथ शरीर को भी विकसित किया गया होता तो जरूर आहार-विहार की व्यवस्था पर ध्यान जाता। जिससे काया ऐसी जीर्ण-शीर्ण और मैली-कुचैली न होती, जैसी कि इन दिनों हो रही है।

पुत्र और पुत्री को सुखी, समुन्नत और सम्मानित रखने के लिए आवश्यक साधन जुटाना ठीक है। जिन्हें हम प्यार करें, उनकी सेवा-सहायता भी करनी चाहिए और उनकी अच्छी स्थिति से संतुष्ट होना चाहिए। इस दृष्टि से पुत्र और पत्नी के लिए किए गए प्रयत्नों को उचित ही कहा जाएगा। ध्यातव्य यह है कि मनरूपी पुत्र और बुद्धिरूपी पत्नी दयनीय स्थिति में रहे एवं दुख पाए।  वे असम्मानित, अभावग्रस्त और असंतुष्ट रहें,पर उनकी ओर ध्यान न जाए।  इस उपेक्षा को क्यों स्वीकार किया जाए?

पुत्र को आवारागरदी से रोकते हैं, कुसंग से बचाते हैं और सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न करते हैं, पर क्या वे ही प्रयत्न हमने मन के लिए किए? पुत्र इसी जन्म का साथी है। अतः उसकी वफादारी संदिग्ध है, पर मन तो जन्म-जन्मांतरों का अभिन्न साथी, मित्र और पुत्र है। उसकी आवारागरदी, कुसंगति क्यों सहन की जाती है? उसे रोकने का प्रयत्न क्यों नहीं किया जाता?

बुद्धि से बढ़कर अर्द्धांगिनी और कौन हो सकती है। शरीर न रहने पर पत्नी बिछुड़ जाती है। निरंतर साथ रहने वाली और अपनी समग्र चेष्टा एक ही केंद्र पर नियोजित करने वाली पत्नी किसकी है। स्त्री को अपने बच्चे, शरीर, परिवार और भविष्य को भी देखना पड़ता है। इसके साथ ही वह पति की सुविधा सँजोती है, पर बुद्धिरूपी पत्नी की तो समस्त चेष्टाएँ अपने लिए ही समर्पित हैं। वह हर जन्म में साथ सती होती है और सच्चे अर्थों में अर्द्धांगिनी होकर रहती है। उसे सुयोग्य, सुसंस्कृत, सन्मार्गगामिनी, सशक्त और सुविधासंपन्न बनाने के लिए जिस स्वाध्याय और सत्संग आदि जुटाने की आवश्यकता थी, वह विद्या की व्यवस्था कहाँ की? बुद्धि का पोषण जिस विद्या से होता है, उसके लिए हमारा प्रयास कितना है? शरीर की पत्नी के लिए बहुमूल्य उपहार मिले, यह ठीक है और बुद्धिरूपी अर्द्धांगिनी को दीन-दुखी, भूखी-प्यासी, निर्वस्त्र, रुग्ण, चिंतित रहने और जहाँ-तहाँ भटकने दिया जाए, यह भी तो शोभनीय नहीं। प्यार से उस बेचारी को वंचित क्यों रखा जाए?

अहंकार की तृप्ति के लिए सारा सरंजाम खड़ा किया गया। बड़ा-सा ठाठ-बाट रोपा गया, पर आत्मा एक कोने में पड़ी सिसकती रही। उसकी इच्छा-आवश्यकता को कभी सुना या पूछा ही नहीं गया। गधे को शाही-सज्जा के साथ सजाया गया, पर गाय प्यासी मर गई। यह पक्षपात क्यों? यह एकांगी असंतुलन क्यों?

लोक में यश-वैभव पाने के लिए भारी दौड़-धूप की जाती रही, पर परलोक की बात कभी सोची भी नहीं गई। सराय पर दौलत निछावर कर दी, पर घर की टूटी झोंपड़ी पर छप्पर तक न बना। वर्तमान ही सामने रहा, भविष्य तो आँखों से ओझल ही बना रहा।

बाहर प्यार बिखेरे और भीतर निष्ठुरता बनी रहे तो बात कुछ बनेगी नहीं? बाहर वालों की मनुहार और अपनों की उपेक्षा की यह रीति-नीति कुछ जँचेगी नहीं?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118