कर्मफल की सुनिश्चितता समझें

June 1972

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गधे के पेट से गधा पैदा होता है और बंदर के पेट से बंदर। गेहूँ बोया जाएगा तो गेहूँ उगेगा और चना बोए तो चने की फसल सामने आएगी। आम की गुठली आम का ही पौधा पैदा करती है और बबूल का बीज काँटे वाला बबूल। हम जो बोते हैं, वही काटते हैं।

कर्म बीज है और सुख-दुःख उसके फल। बुरे कर्म दुःख और दुष्परिणाम उत्पन्न करते हैं और सत्कर्मों के प्रतिफल सुख एवं अन्य सत्परिणामों के रूप में सामने आते हैं। समय में अंतर हो सकता है, पर परिणाम अन्यथा होने की कोई गुंजाइश नहीं है। सरसों का बीज दो दिन में अंकुरित होता है और ताड़ वृक्ष के बीज का अंकुर एक वर्ष में फूटता है। किस कर्म का फल मिलने में कितना समय लगेगा, यह निश्चित नहीं; पर इसे संदेहरहित ही मानना चाहिए कि कर्मों का फल मिलकर रहता है।

कल का दूध आज दही है। कल वह पतला और मीठा था, आज उसका स्वरूप गाढ़ा और खट्टा है। नाम भी बदल गया। कल उसे दूध के नाम से पुकारा जाता था, आज उसका परिवर्तित नाम दही है। कल के कर्म आज सुख या दुःख के रूप में प्रस्तुत हैं अथवा अगले दिन वे फलित होकर उपस्थित होंगे।

यह विश्व-व्यवस्था कर्म और उसके फल के परस्पर अन्योन्याश्रित होने के कारण ही टिकी हुई है। यदि ऐसा न होता तो कोई दुष्कर्मों के तात्कालिक लाभ को छोड़ता नहीं और न सत्कर्मों में जो उचित लाभ मिलता है, उतने से ही कोई संतुष्ट होता। दूरगामी परिणामों की सुनिश्चितता ही वह आधार है, जिसने मनुष्य को मर्यादा में रहने और कर्त्तव्य को अपनाए रहने के लिए सहमत किया है।

यह हो सकता है कि कभी सत्कर्मों के परिणाम देर से मिले और यह भी संभव है कि कुकर्मी सफलताएँ एवं समृद्धियाँ प्राप्त करते चले जाएँ। ऐसे प्रसंगों में कालचक्र का हेर-फेर ही समझा जा सकता है। नशा पीते ही तुरंत खुमारी नहीं आती। थोड़ी देर लगती है। पिया हुआ नशा अपना असर दिमाग तक पहुँचाए,  तब तक यही प्रतीत होता है कि नशे का कोई असर नहीं हुआ। जानकार जानते हैं कि थोड़ा समय लग जाने के कारण यह नहीं कहा जाता कि नशे का असर होता ही नहीं।

कर्मफल तुरंत न मिलकर थोड़ी देर से मिलने की व्यवस्था इसलिए है कि मनुष्य के निजी विवेक और चरित्र की परीक्षा हो सके और आत्मसंयम तथा दूरदर्शिता की कसौटी पर उसे परखा जा सके। स्वतंत्र कर्तृत्व की सुविधा देकर भगवान ने मनुष्य को अपने उत्थान और पतन की छूट दी है। यह मनुष्य को गौरव दिया गया है, उत्तरदायित्व सौंपा गया है और प्रामाणिक समझा गया है कि वह इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग न करेगा। अन्यथा कर्मफल की तुरंत व्यवस्था होती तो मनुष्य यंत्रवत् रह जाता। उसकी स्वतंत्र चेतना को न सम्मान मिलता, न उत्कृष्टता सिद्ध करने का अवसर। झूठ बोलते ही जीभ कट जाती तो लोग डरकर झूठ तो न बोलते, पर अपनी स्वतंत्र गरिमा सिद्ध करने का अवसर ही हाथ से चला जाता। उस यांत्रिक व्यवस्था में श्रेष्ठता और निकृष्टता की परख और प्रतिस्पर्धा ही न रहती।

कर्मफलों से छूटने के लिए मनौती मनाना या पूजा-पत्री के कर्मकांडों का सहारा लेना निरर्थक है। ऐसी सस्ती व्यवस्था यहाँ यदि होती तो लोग दोनों हाथों से पाप कमाते और चट-पट उसे माफ कराने की टंट-घंट करके निपट जाते। तब इस संसार में न न्याय रहता और न व्यवस्था, हर कोई पाप तो करता, पर उसके फल से बच निकलने की सस्ती तरकीबें अपना लेता।

हमें दुष्कर्मों से बचना चाहिए। सत्कर्मों में प्रवृत्त रहना चाहिए। जो कर चुके हैं, उसे साहस और धैर्यपूर्वक भोगना चाहिए। संभव हो तो स्वेच्छापूर्वक         आत्मदंड स्वीकार करने को—प्रायश्चित्त-व्यवस्था अपनाकर प्रखर आत्मबल का परिचय देना चाहिए।





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