प्रायश्चित्तो परावसुः

June 1972

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“मेरे अंतःकरण में पाप की भावना नहीं थी, गुरुदेव! लक्षा दूसरों की दृष्टि में वेश्या होगी; पर मेरी दृष्टि में वह विश्वव्यापी अंतश्चेतना का ही एक अंग— एक आत्मा है। लक्षा की जीवनचर्या क्या है? शारीरिक सौंदर्य पर आत्मा के प्रकाश को बुझा देने वाले कीट-पतंगों की मनुहारें देखने की जिज्ञासा मुझे खींचकर वहाँ ले गई। लक्षा का सौंदर्य वर्णनातीत है, आर्यश्रेष्ठ! किंतु उसमें मेरा किंचितमात्र आकर्षण नहीं था। प्रमादवश सुरापात्र को मैंने जलपात्र समझकर सुरापान कर लिया— इतना भर मेरा दोष है, सो उसके लिए शास्त्रनिर्धारित प्रायश्चित्त करने के लिए मैं तैयार हूँ।”

परावसु के इस संवाद को सुन सारा गुरुकुल स्तब्ध रह गया। अब आचार्य देवधर उठे और बोले— "शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार वेश्यागमन और सुरापान के पाप का प्रायश्चित्त यह है कि पिघला हुआ स्वर्ण पिलाया जाए और तदनंतर स्नातक परावसु वाराणसी की पदयात्रा करें और भगवती गंगा के जल का मज्जन और पान करें, तभी इस पाप से मुक्ति हो सकती है।"

अनेक पंडितों तथा आचार्यों ने अपनी-अपनी सम्मतियाँ व्यक्त कीं। उन सबका आशय ऐसे प्रायश्चित्त का प्रतिपादन था, जो या तो परावसु के प्राण ले लेता या उसे जीवन भर के लिए अपंग बना देता। परावसु धर्मनिष्ठ स्नातक थे। वे धार्मिक मान्यताओं की रक्षा के लिए वैसा करने के लिए तैयार भी थे; किंतु अंधी परंपराओं का प्रतिपादन उनका स्वभाव नहीं था। परावसु ने ओजभरी वाणी में कहा— "भूल से पाँव पानी की अपेक्षा आग में गिर जाने का कर्मफल अपने आप मिल जाता है, मेरे प्रमाद का फल मुझे उदरशूल और मूर्छा के रूप में पहले ही मिल चुका है। सामान्य भूल के लिए प्राण लेने की परंपरा धर्म के पतन का कारण हो सकती है। अतएव विद्वज्जनों को इन प्रतिपादनों पर फिर से विचार करना चाहिए और आचार संहिता को विवेकसम्मत तथा उदार बनाना चाहिए। हाँ! मेरी पवित्रता की परीक्षा ली जाए तो बेशक मैं उसके लिए तैयार हूँ।

परावसु का तर्क अकाट्य था। उसका प्रतिवाद किसी ने नहीं किया। महामात्य भतृयज्ञ भी वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने खड़े होकर कहा— "यदि परावसु वस्तुतः हृदय से पवित्र हैं तो इन्हें आज संपूर्ण सभा के मध्य अपनी पवित्रता सिद्ध करनी होगी। लक्षा को यहीं बुलाया जाए। उसे अभिसार के समस्त परिधान और आभूषणों से अलंकृत किया जाए। उस समय परावसु लक्षा का स्तनपान करें। यदि इनकी आत्मपवित्रता लक्षा में मातृ-भावना आरोपित कर दे और उसके मन में वासना के स्थान पर वात्सल्य उमड़ पड़े तो यह माना जाएगा— परावसु शुद्ध हैं; अन्यथा इन्हें शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार ही दंड का भागी बनना पड़ेगा।"

"किंतु इस बात की यथार्थता कैसे सिद्ध होगी?"— आचार्य देवधर ने प्रश्न किया। भतृयज्ञ ने समाधान किया— "उस समय लक्षा के स्तनों में दूध आ जाएगा और उस दूध से अशुद्ध हुआ परावसु का मुख तत्काल शुद्ध हो जाएगा।"

ऐसा ही किया गया। इक्कीस वर्ष की अनिंद्य सुंदरी लक्षा और २४ वर्ष के प्रलंबबाहु परावसु— विलक्षण परीक्षा थी। लक्षा ने राजसी वेशभूषा में सभामंडप में प्रवेश किया। सारा वातावरण अर्धरात्रि की नीरवता के समान स्तब्ध हो गया। परावसु ने चिरकल्याणी भगवती सरस्वती का आवाह्न किया, संपूर्ण जगत ही उन्हें कला की देवी— जगज्जननी के रूप में दिखाई देने लगा। एक नन्हें से बच्चे की भावना लिए वे आगे बढ़े और भावविभोर होकर उन्होंने लक्षा के अंक में बैठकर उसका दक्षिण स्तन मुँह में डाल लिया। लक्षा ने परावसु के कोमल बालों पर उँगली फेरी और उसके उरोज से पयधारा फूट पड़ी। परावसु का मुख पय से पूरित हो गया। साधुवाद! से सारी सभा गूँज उठी। परावसु की पवित्रता को स्वीकार कर लिया गया।

स्नातक परावसु जैसी चरित्रनिष्ठा की तुलना आज कौन कर सकता है?


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