पुष्प-वाटिका में भी गोबर का कीड़ा अपनी रुचि के अनुरूप गंदगी ही तलाश करता है और उसी में लिपटा रहता है। मधुमक्खी फूलों को ढूँढ़ती है और पराग चूसकर शहद जमा करती है। ओछी प्रकृति के मनुष्य संसार की गंदगी को ही देखते-सोचते हैं और उसी में उलझे रहते हैं, पर अच्छे लोग श्रेष्ठता देखते, श्रेष्ठता सोचते और श्रेष्ठता में ही निमग्न रहते हैं।
प्याज खाने वाले के मुँह से निकलने वाली गंध को सूँघकर यह बताया जाता है कि उसने प्याज खाई है। निकृष्ट वचन बोलने वाले के भीतर दुर्बुद्धि भरी है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
सूर्य की किरणें यों सभी जगह चमकती हैं, पर दर्पण पर उनका प्रतिबिंब विशेष रूप से दमकता है। ईश्वर की सत्ता यों सर्वत्र विद्यमान है, पर उसका विशेष वैभव संतों में ही दृष्टिगोचर होता है।
जल को वरुण देवता कहते हैं, पर हर जगह का जल पीने के योग्य नहीं होता। कहीं का जल पीते हैं तो किसी जगह का सिर्फ धोने के काम आता है और कहीं ऐसा जल भी होता है, जिसे छूते तक नहीं। इसी प्रकार आत्मा हर किसी में है, पर वह सभी की समान रूप से पूजा या विश्वास के योग्य नहीं है।
हाथी चला आ रहा था। रास्ते में खड़े लड़के को देखकर महावत चिल्लाया— "ऐ लड़के हट, हाथी आ रहा है।" लड़का बोला—"हाथी में भी नारायण हैं, फिर मैं क्यों डरूँ, क्यों हटूँ?" लड़का हटा नहीं। हाथी आया और उसे सूँड से पकड़कर एक ओर धकेल दिया। थोड़ी चोट लग गई। लड़का रोता हुआ उन महात्मा जी के पास पहुँचा, जिनने सब में नारायण होने की बात कही थी। उसने पूछा—"यदि हाथी में भी नारायण थे, तो उसने मुझे मारा क्यों?" संत ने कहा—"बेटा! महावत में भी तो नारायण था। तूने उसका कहना क्यों नहीं माना?" सबमें नारायण मानने का अर्थ यथोचित क्रियाकलाप करने की विवेक-बुद्धि को त्याग देना नहीं है।
सज्जनों का क्रोध ऐसा होता है जैसे पानी पर खींची गई लकीर। जब खींचते हैं तभी वह दीखती है, इसके बाद तुरंत मिट जाती है। इसी प्रकार सज्जन यदि कारणवश क्रोध भी करें तो वह दूसरे क्षण ही समाप्त हो जाता है, उनके मन में राग-द्वेष नहीं जमता।
भगवान अपने भक्तों का खरा-खोटापन परखते हैं। जो खरा होता है, उसे ही उनका प्यार मिलता है। यह कसौटी है— मनुष्य की स्वार्थपरता और परमार्थपरायणता। वे स्वार्थी को खोटा और परमार्थी को खरा मानते हैं।
चित्त में उद्विग्नता तभी तक रहती है जब तक तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं होता। भौंरा तब तक गूँजता और चक्कर काटता रहता है जब तक कि फूल पर बैठता नहीं। जैसे ही वह फूल पर बैठा और रसपान का स्वाद मिला कि वह पूरी शांति और तन्मयता के साथ उसी आनंद में निमग्न हो जाता है, फिर उसके न गुँजन करने की आवश्यकता होती है, न चक्कर लगाने की।
चिकित्साग्रंथ में ज्वर की औषधि लिखी थी। एक अंधश्रद्धालु रोगी ने पुस्तक में ज्वर की औषधि वाला पन्ना फाड़ा और खा लिया। तब भी ज्वर अच्छा नहीं हुआ। शास्त्र में लिखी बात झूठी क्यों हो गई? ऋषिवचनों से नीरोग क्यों न हुआ? वह इसी असमंजस में पड़ा था। इतने में एक विज्ञ व्यक्ति आए। रोगी ने अपना असमंजस सुनाया। उनने यही कहा—"पुस्तक में जो औषधि लिखी थी। उसे प्राप्त करके खाने से ज्वर दूर होता। पुस्तक तो मार्गदर्शन कर सकती है, पर उसमें रोग दूर करने की शक्ति नहीं है।"
कितने ही व्यक्ति धर्मग्रंथों का पाठ-पारायण इसी दृष्टि से करते हैं कि इन्हें पढ़ने-दुहराने से ही कल्याण हो जाएगा। वे यह भूल जाते हैं कि धर्मग्रंथों में जो राह बताई है, उस पर चलने से ही कुछ काम बनेगा।
दो मित्र एक बगीचे में गए। माली से उन्होंने एक घंटे वहाँ रहने और इच्छित फल खाने की स्वीकृति प्राप्त कर ली। एक व्यक्ति बहुत तार्किक था, वह बगीचे का मूल्य, पेड़ों की संख्या, फलों की किस्में, हर साल का नफा-नुकसान आदि की खोज-बीन करने में लगा रहा। दूसरे ने इस झंझट में पड़ना व्यर्थ समझा और मीठे फल ढूँढ़-ढूँढ़कर खाने में लग गया। एक घंटा समाप्त होने पर माली ने दोनों को विदा कर दिया। एक का पेट भर गया था और दूसरा खाली हाथ लौटा।
लोग ईश्वर, जीव, प्रकृति, द्वैत-अद्वैत की दार्शनिक गुत्थियों में तो उलझे रहते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि जीवन के बहुमूल्य क्षणों का श्रेष्ठतम उपयोग जिस प्रकार किया जा सकता है, उसी रीति-नीति को कार्यान्वित करने का प्रयत्न अधिक आवश्यक है।
एक ब्रह्मचारी परमहंस जी के पास बैठकर शिवोऽहं, सच्चिदानंदोऽहं की रट लगाने लगा। उसे टोकते हुए परमहंस जी ने कहा—"भाई! पहले शिव और सच्चिदानंद बनने का प्रयत्न करो। जब वैसे बन जाओ तो घोषणा करना कि मैं शिव या सच्चिदानंद हूँ। राज्य न होने पर भी कोई व्यक्ति अपने को राजा-राजा कहता फिरे तो उसे और उसकी समझ को संदेह की दृष्टि से ही देखा जाएगा।
स्त्रियाँ धान कूटती हैं। एक हाथ से कूटने की क्रिया करती हैं और दूसरे से गोद के बच्चे को सँभालते हुए उसे दूध पिलाती हैं। इसी प्रकार, शरीर से सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन और मन से भगवान का स्मरण दोनों काम साथ-साथ चल सकते हैं।
आदमी सिर पर बोझ लादे हुए मुँह से साथी से बातचीत करता चलता है; इसी प्रकार मनुष्य सांसारिक कर्त्तव्यों का बोझ वहन करते हुए भी मन से प्रभुपरायण रह सकता है।
जिस ओर ज्यादा वजन होता है, तराजू का वही पलड़ा नीचे हो जाता है। जिसमें सज्जनता और गंभीरता का वजन होता है, वह नम्र बनकर चलता है और जो ओछे होते हैं, वे ऊपर उठे हुए पलड़े की तरह अपना बड़प्पन बघारते फिरते हैं।
दो किसानों के खेत पास-पास थे। वर्षा खूब हुई। एक किसान के खेत में पानी भरा रहा तो फसल अच्छी हुई। दूसरे के खेत का पानी सूख गया और बीज नहीं जमा। अपने दुर्भाग्य पर पछताते हुए उस भुलक्कड़ को सांत्वना देते हुए चतुर किसान ने समझाया कि, "चूहों के बिल बंद न करने की असावधानी से तुम्हें यह हानि उठानी पड़ी। आगे यह दुर्भाग्य फिर न देखना चाहो तो चूहों के बिल बंद कर दो अन्यथा उनमें होकर खेत का पानी फिर निकल जाएगा।" लोभ-मोहरूपी चूहों के बिल मनुष्य की सारी श्रेष्ठता को बहा देते हैं और जीवन का खेत सूखा—ऊसर रह जाता है।
सिखाया हुआ तोता यों तो राधा- कृष्ण, राधा-कृष्ण कहता रहता है, पर बिल्ली को देखते ही अपनी असली बोली ‘टें-टें’ बोलने लगता है। लोग मनोरंजन के लिए तो धर्म-कर्म की बातें करते हैं, पर जब प्रलोभन सामने आते हैं तो कुकर्म में फिसल जाते हैं।
नाव पानी में चले तो हर्ज नहीं; पर यदि पानी नाव में घुस जाए तो संकट ही समझना चाहिए। मनुष्य संसार में रहे तो कोई हर्ज नहीं; पर यदि संसार मन में घुस जाए तो फिर अनर्थ ही होकर रहेगा।
दूध में थोड़ा पानी हो तो थोड़ी लकड़ी में जल्दी ही ‘खोया’ बन जाता है, पर यदि पानी बहुत और दूध जरा-सा हो तो घंटों आग जलाने पर उतना 'खोया' नहीं मिलता, जितनी की लकड़ी जल गई। जीवनरूपी दूध में थोड़ी सी तृष्णा हो तो भजन का लाभ मिल सकता है, पर यदि दुर्बुद्धि ही समा रही हो तो फिर बहुत साधना से भी कुछ विशेष परिणाम नहीं निकलता।