क्षुद्रता छोड़ें— महानता की ओर बढ़ें

June 1972

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खगोल विद्या के अनुसार यह ब्रह्मांड निरंतर बढ़ और फैल रहा है। विराट की पोल में प्रत्यक्ष ग्रह-नक्षत्र किसी असीम-अनंत की दिशा में द्रुतगति से भागते चले जा रहे हैं। यों यह पिंड अपनी धुरी और कक्षा में भी घूमते हैं, पर हो यह रहा है कि वह कक्षा, धुरी और मंडली तीनों ही असीम की ओर दौड़ रहे हैं। सौरमंडल एकदुसरे से दूर होते जा रहे हैं। यह दौड़ प्रकाश की गति से भी कहीं अधिक है; जो तारे कुछ समय पूर्व दीखते थे वे अब अधिक दूरी पर चले जाने के कारण अदृश्य हो गए।

इसे विस्तार भी कह सकते हैं, विघटन भी और यह भी कह सकते हैं कि इसका अंत एकता में होगा। गोलाई का सिद्धांत अकाट्य है। प्रत्येक गतिशील वस्तु गोल हो जाती है। स्वयं ग्रह-नक्षत्र इसी सिद्धांत के अनुसार चौकोर, तिकोने, आयताकार न होकर गोल हुए हैं। यह ब्रह्मांड भी गोल है। नक्षत्रों की कक्षाएँ भी गोल हैं। इस गोलवृत्त की लपेट में आगे यह दौड़ अंत में किसी न किसी बिंदु पर पहुँचकर मिल ही जाएगी और इस वियोग-प्रक्रिया को संयोग में परिणत होना पड़ेगा।

सौरमंडल इसलिए व्यवस्थित, जीवित और गतिशील है कि वहाँ प्रत्येक ग्रह अपनी मर्यादाओं में चल रहा है और एकदूसरे के साथ अदृश्य बंधनों में बँधा हुआ है। यदि यह प्रकृति इन ग्रहों की न होती तो वह न जाने कब का बिखर गया होता और टूट-फूटकर नष्ट हो गया होता।

मानव समाज को सौरमंडल से ऊर्जा ही नहीं, प्रेरणा भी ग्रहण करनी चाहिए। हम सब अपनी मर्यादाओं में रहें। कर्त्तव्य और उत्तरदायित्वों को समझें और उस तरह का उद्धत आचरण न करें, जिससे दूसरों के साथ अन्याय होता हो या उनके उचित अधिकारों का हनन होता हो।

स्वार्थवादी अलगाव की वृत्ति मोटी दृष्टि से लाभदायक प्रतीत होती है। क्यों हम किसी के प्रति स्नेह-सद्भाव रखें, क्यों हम किसी की सेवा-सहायता की बात सोचें, क्यों अपना समय और ध्यान दूसरों के हितचिंतन में लगाएँ? अपनी योग्यता का लाभ स्वयं ही क्यों न उठाएँ? यह सोचना अदूरदर्शितापूर्ण है, क्योंकि इससे उस परंपरा का व्यतिरेक होता है जिसको अपनाकर मनुष्य जाति को इतना आगे बढ़ सकने का अवसर मिला है। हम सब स्वार्थरत रहें और दूसरे लोग हमारे प्रति सहयोग-सद्भाव रखें, यह कैसे होगा? क्रिया की प्रतिक्रिया नितांत स्वाभाविक है। हम जितने स्वार्थी होते जाएँगे, उसका असर समीपवर्ती लोगों पर सुनिश्चित रूप से पड़ेगा। वे भी इसी प्रकार की संकीर्णता का परिचय देंगे और अपने लिए किसी का सहयोग-सद्भाव प्राप्त कर सकना संभव न रहेगा। मनुष्य कितना ही बुद्धिमान या सक्षम क्यों न हो, उसकी भौतिक प्रगति और आंतरिक प्रसन्नता दूसरों के सहयोग के बिना एक कदम भी आगे चल नहीं सकती। स्वार्थपरायण होने में अपनी शक्ति दूसरों के लिए खर्च न करने का जितना लाभ है उससे हजारगुनी हानि दूसरों के सहयोग और सद्भाव से वंचित हो जाने की है, इसलिए यदि विशुद्ध गणित के आधार पर लौकिक दृष्टि रखकर ही विचार करें तो भी स्वार्थपरायणता की रीति-नीति अपनाना प्रत्यक्ष घाटे का सौदा है। आत्मिक प्रगति तो निश्चित रूप से मर्यादापालन और उदार दृष्टिकोण पर पूर्णतया अवलंबित है। अपने आप की दृष्टि में और दूसरों की दृष्टि में केवल उदात्त रीति-नीति अपनाने वाला ही सम्मानास्पद हो सकता है। जड़ दीखने वाले ग्रहों में भी चेतन जगत में प्रयुक्त होने वाले आदर्श विद्यमान हैं। ऐसा न हो तो वे इतनी विशालता लेकर विशाल ब्रह्मांड में शांति और स्वच्छंदतापूर्वक विचरण न कर सकते।

सौर परिवार अतिविशाल है। सूर्य की गरिमा अद्भुत है। सौर परिवार के समस्त ग्रह-उपग्रहों के सम्मिलित वजन से उसका वजन 750 गुना अधिक है। नौ ग्रहों के अतिरिक्त उसके 3 हजार क्षुद्र ग्रह भी हैं। कई हजार धूमकेतु और असंख्य उल्का समूह इस परिवार में सम्मिलित हैं।

सौर परिवार के ग्रहों को यदि दूरी के हिसाब से क्रमबद्ध किया जाए तो उस शृंखला में क्रमशः बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस, नेपच्यून और प्लूटो को बिठाना पड़ेगा। इसमें बुध सबसे छोटा है और बृहस्पति सबसे बड़ा। बुध पृथ्वी से एक तिहाई है और बृहस्पति 11 गुना बड़ा है।

बुध 88 दिनों में सूर्य की परिक्रमा करता है। उसका सूर्य के सम्मुख रहने वाला भाग पृथ्वी से नौगुना अधिक गरम रहता है और पृष्ठभाग अत्यधिक शीतल। पृथ्वी के सबसे समीप शुक्र है। उसका वर्ष 225 दिन का होता है।

पृथ्वी सूर्य से 9 करोड़ 30 लाख मील दूर है। पृथ्वी का लगभग 84 प्रतिशत भाग समुद्र में डूबा है और 16 प्रतिशत जमीन है। पृथ्वी के चारों ओर वायुमंडल है जो ऊपर उठते-उठते झीना होता जाता है। दो हजार मील ऊपर जाकर तो नाममात्र की वायु ही शेष रह जाती है।

मंगल का वर्ष 687 दिन का होता है। उसका व्यास पृथ्वी से आधा है और सूर्य से दूरी 14 करोड़ 20 लाख मील।

बृहस्पति सूर्य की परिक्रमा 12 वर्ष में पूरी करता है, पर उसकी अपनी धुरी पर घूमने की चाल बहुत तेज है। 10 घंटे में ही उसका एक चक्कर पूरा हो जाता है। यह ग्रह बहुत ठंडा है। हिमांक से भी 20 डिग्री कम उसका तापमान है। पृथ्वी की अपेक्षा बृहस्पति का गुरुत्वाकर्षण बहुत अधिक है। अपने यहाँ की 18 किलो भारी वस्तु का वजन बृहस्पति पर 420 किलो बैठेगा। उसके 12 चंद्रमा हैं।

शनि को सूर्य की परिक्रमा करने में साढ़े उनतीस वर्ष लगते हैं; अपनी धुरी पर डेढ़ घंटे में चक्कर पूरा कर लेता है। सूर्य से 88 करोड़ 70 लाख मील दूर है। यह भी बहुत अधिक ठंडा है, शनि के आस-पास तीन छल्ले घूमते हैं। यह छोटे पत्थरों, धूलि-कणों, बर्फ के टुकड़ों से बने हैं। इन छल्लों की मुटाई 20 मील से ज्यादा नहीं, पर व्यास 1 लाख 70 हजार मील है। शनि पर 9 चंद्रमा उदय होते हैं।

यूरेनस की सूर्य-परिक्रमा 84 वर्ष में पूरी होती है। उसके 5 चंद्रमा हैं। वरुण 165 वर्ष में परिक्रमा करता है और 2 चंद्रमा हैं।

प्लूटो पृथ्वी से आधा है, पर सूर्य से बहुत दूर 3 अरब 67 करोड़ मील होने के कारण उसकी परिक्रमा 248॥ वर्ष में पूरी होती है।

ब्रह्मांड के विस्तार और दूरी की चर्चा ऊपर हुई। अब समय की दृष्टि से जरा विचार करें। उपलब्ध दूरबीनों से जो दूरस्थ नक्षत्र देखे जा सके हैं उनका प्रकाश पृथ्वी तक पहुँचने में 50 करोड़ वर्ष लगते हैं। वह दूरवर्ती तारा आज हमें उस रूप में दीख रहा है जैसा कि वह 50 करोड़ वर्ष पहले था।

इतना विशाल सौर परिवार कैसे बन गया? यह आत्मविस्तार की ही प्रक्रिया है। एक से अनेक बनने की— अपनी क्षुद्रता को महानता में विकसित करने की हलचल ने ही इस ग्रह परिवार को इतना विशाल बनाकर खड़ा कर दिया। चिर अतीत में सूर्य एकाकी था। उसे अपने अहं’ को एकाकी रहना सहन न हुआ। सोचा ‘मैं’ नहीं ‘हम सब’ में आनंद और उल्लास सन्निहित है, इसलिए अपनी सत्ता को केंद्रित-संग्रहीत नहीं रखा जाना चाहिए, वरन उसे बिखेर देना चाहिए। सूर्य में विस्फोट हुआ— वह टुकड़े-टुकड़े छितर गया। मोटी आँख वालों के अनुसार, इसे सूर्य की क्षति और अबुद्धिमत्ता कहा जा सकता है। अपने वैभव को उसने बिखेरा क्यों? तात्त्विक दृष्टि से देखने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि यह सूर्य की बुद्धिमत्ता थी। सौरमंडल का सुशोभित, सराहनीय और सुविस्तृत क्षेत्र पर अधिकार किए हुए जो स्वरूप आज है, वह सूर्य के स्वार्थी बने रहने पर कदापि संभव न हो सका होता।

सूर्य ही क्यों— सारा ब्रह्मांड इसी आधार पर बना और विकसित हुआ है। ब्रह्मांड के प्रारंभ में एक ही पिंड था। उसमें विस्फोट होने से आकाशगंगाओं और ग्रह-नक्षत्रों का सृजन हुआ। यह फैलाव अभी भी चल रहा है। हर ग्रह-नक्षत्र प्रगति के पथ पर बढ़ रहा है,विस्तार कर रहा है और आगे बढ़ रहा है। लगता है, उनकी दूरी फैल रही है और अनंत में अज्ञात लक्ष्य की ओर वे दौड़े जा रहे हैं। यह अज्ञात लक्ष्य एकता ही है। जितना ही हम स्वार्थ की परिधि से आगे बढ़ते हैं उतना ही ऐक्य का,प्रेम का और स्नेह-सहयोग का लक्ष्य समीप आता चला जाता है।

सृष्टि-निर्माण के कारणों पर प्रकाश डालने वाले अनेक सिद्धांतों में से आज दो को ही मान्यता प्राप्त है। एक है— जार्ज गैमोव का ‘महाविस्फोट सिद्धांत’। जिसमें कहा गया है कि 10 अरब वर्ष पूर्व एक विशाल अग्निपिंड का विस्फोट हुआ। उसके मलबे से छितरकर आकाशगंगाएँ, ग्रह-नक्षत्र , गैस, मेघ आदि बनकर तैयार हो गए। दूसरा प्रतिपादन है— प्रो. फ्रेड हायल का ‘सतत सृष्टि सिद्धांत’।  जिसमें उन्होंने सिद्ध किया है कि यह ब्रह्मांड अनादिकाल से ऐसा ही था और अनंतकाल तक वैसा ही बना रहेगा। तारकों का जन्म-मरण होता रहता है, पर इससे स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आता। नष्ट स्वार्थ होता है। जहाँ परमार्थ की प्रवृत्ति विद्यमान है वहाँ अमृत और अमरत्व का ही बोल-बाला रहेगा। ब्रह्मांड की आत्मविस्तार प्रवृत्ति उसे अजर-अमर ही बनाए रहेगी।

बड़ों का बड़प्पन इस बात पर निर्भर है किव वे छोटों को भी सँजोये-सँभाले रहें। क्षुद्र ग्रहों की भी एक बड़ी शृंखला अपने सौरमंडल में विद्यमान है। इन बालकों को मंगल और बृहस्पति ने अपने अंचल में सँभाल कर रखा है, वे उनकी साज-सँभाल यथावत् रखते हैं। सौरमंडल केवल विशाल ग्रह और उपग्रहों का ही सुसंपन्न परिवार नहीं है, उसमें छोटे और नगण्य समझे जाने वाले क्षुद्र ग्रहों का अस्तित्व भी अक्षुण्ण है और उन्हें भी समान सम्मान एवं सुविधाएँ उपलब्ध है। मानव समाज का कल्याण भी उसी राह पर चलने में है। यह क्षुद्र ग्रह बने कैसे? बात मोटी-सी थी। दो समर्थ ग्रह परस्पर टकरा गए। टकराहट किसी को लाभांवित नहीं होने देती। उसमें दोनों का ही विनाश होता है। विजेता का भी और पराजित का भी। यह विश्व आपसी सहयोग पर टिका हुआ है, संघर्ष पर नहीं। संघर्ष की उद्धत-नीति अपनाकर बड़े समझे जाने वाले भी क्षुद्रता से पतित होते हैं। ये क्षुद्र ग्रह यह बताते रहते हैं कि हम कभी महान थे, पर संघर्ष के उद्धत आचरण ने हमें इस दुर्गति के गर्त्त में पटक दिया।

मंगल और बृहस्पति के बीच करोड़ों मील खाली जगह में क्षुद्र ग्रहों की एक बहुत बड़ी सेना घूमती रहती है। सीरिस, पैलास, हाइडाल्गो, हर्मेस, वेस्ट, ईरास आदि बड़े हैं। छोटों को मिलाकर इनकी संख्या 44 हजार आँकी गई है। इनमें कुछ 427 मील व्यास तक के बड़े हैं और कुछ पचास मील से भी कम है।

कहा जाता है कि कभी मंगल और बृहस्पति के बीच कोई ग्रह आपस में टकरा गए हैं और उनका चूरा इन क्षुद्र ग्रहों के रूप में घूम रहा है। यह बात भी कुछ कम समझ में आती है, क्योंकि इन सारे क्षुद्र ग्रहों को इकट्ठा कर लिया जाए तो भी वह मसाला चंद्रमा से छोटा बैठेगा। दो ग्रहों के टूटने का इतना कम मलबा कैसे? एक कल्पना यह है कि सौरमंडल बनते समय का बचा-खुचा फालतू मसाला इस तरह बिखरा पड़ा है और घूम रहा है।

वैज्ञानिकों का इन क्षुद्र ग्रहों पर बड़ा दाँव है। एक योजना यह है कि इनमें से जो कीमती हैं उनको पकड़कर धरती पर लाया जाए और उनमें से धातुएँ निकाली जाएँ। एक योजना यह है कि इनमें से कइयों को पकड़कर एक साथ बाँध दिया जाए ताकि अंतर्ग्रही यात्रा के लिए जाने वाले यानों के लिए उस पर विश्रामस्थल बनाया जा सके।

विशाल ग्रह-उपग्रहों से धातुएँ निकालने, उनको पुल के पत्थरों की तरह प्रयोग करने या जंगली हाथियों की तरह पकड़कर घसीट लाने की कोई वैज्ञानिक योजना नहीं है। किसी ने ऐसा सोचा भी नहीं कि शनि या बृहस्पति को पकड़कर धरती के किसी अजायबघर में रखा जाना चाहिए, पर बेचारे क्षुद्र ग्रहों के लिए कितने ही तरह के जाल बुने जा रहे हैं। क्षुद्रता एक प्रकार की विपत्ति ही है, हमें आत्मविस्तार की बात सोचनी चाहिए। व्यक्तिवाद की, निजी लाभ की, स्वार्थ भरी संकीर्णता की परिधि छोड़कर आत्मविस्तार की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। निखिल विश्व में यही क्रम चल रहा है। ग्रह-नक्षत्र इसी रीति-नीति का अनुसरण कर रहे हैं। क्यों न हम भी इसी श्रेयपथ पर चलने के लिए कदम बढ़ाएँ?



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