भावनात्मक चेतना— जीवन की सर्वोपरि सत्ता

June 1972

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मानव मस्तिष्क का एक और भाग है, जिसकी ओर अभी बहुत कम ध्यान दिया गया है और जिसकी खोज का कार्य अभी नितांत आरंभिक अवस्था में ही माना जा सकता है। यह भाग है— 'भावनात्मक मस्तिष्क'।

मस्तिष्क के भीतर मोटी और काफी लंबाई तक फैली हुई अंतस् त्वचा के भीतर विशिष्ट प्रकार की तंत्रिकाएँ फैली हुई हैं। यद्यपि यह मस्तिष्क के प्रचलित वर्गीकरण में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं कर सकी हैं, पर यह देखा जाता है कि सुख-दुख, भय, हर्ष, क्रोध, आवेश, करुणा, सेवा-स्नेह, कामुकता, उदारता, संकीर्णता, छल, प्रेम, द्वेष आदि भावनाओं का इसी स्थान से संबंध है। ये भावनाएँ ही हैं जो चेतन ही नहीं, अचेतन मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं और इच्छा से और अनिच्छा से संचालित केंद्रों में भारी उलट-पुलट प्रस्तुत करती हैं।

कुछ दिन पहले शारीरिक आवश्यकतानुसार मानसिक क्रियाकलाप की गतिविधियों का चलना माना जाता था। भूख लगती है तो पेट भरने की चिंता मस्तिष्क को होती है और पैर वैसी सुविधा वाले स्थान तक पहुँचते हैं। हाथ खाद्य पदार्थों को प्राप्त करते हैं। मुँह चबाता है और पेट पचाता है। इसी प्रकार आहार के उपरांत विश्राम या निद्रा के लिए छाया, शैया, बिस्तर, घर, निवास आदि की आवश्यकता अनुभव होती है। आत्मरक्षा के लिए वस्त्र, छाता, शस्त्र आदि संग्रह करने पड़ते हैं। कामक्रीड़ा के लिए जोड़ीदार ढूंढ़ना पड़ता है और फिर सृष्टि-संचालन के लिए संतानप्रेम की प्रेरणा से अन्य काम करने पड़ते हैं। इंद्रियरसनाएँ भी शारीरिक इच्छा-आवश्यकता की श्रेणी में आती हैं। काया की ऐसी ही आवश्यकताओं के अनुरूप मस्तिष्क की उधेड़बुन चलती रहती है।

अचेतन मन शरीर को जीवित रखने के लिए निरंतर चलने वाले क्रियाकलापों का संचालन करता है। सोते-जागते जो कार्य अनवरत रूप से होने आवश्यक हैं, उन्हें सँभालना उसी के द्वारा होता है। रक्तसंचार, श्वास-प्रश्वास, हृदय की धड़कन, आकुंचन-प्रकुंचन, पाचन-विसर्जन आदि अनेक कार्य अचेतन मस्तिष्क अपने आप करता-कराता रहता है और हमें पता भी नहीं लगता। जागते में पलक झपकने की और सोते में करवट बदलने की क्रिया सहज ही होती रहती है।

मस्तिष्क संबंधी मोटी जानकारी इतनी ही है। प्रियप्राप्ति पर हर्ष, अप्रिय प्रसंगों पर विषाद, भय, क्रोध, प्रेम प्रसंग, छल, संघर्ष जैसी मानसिक क्रियाओं को भी सामाजिक एवं चेतनात्मक आधार पर विकसित माना जाता रहा है, पर भूल उसके भी शरीर पर पड़ने वाले वर्तमान एवं भावी प्रभाव को ही समझा गया है। शरीरशास्त्रियों की दृष्टि से मस्तिष्क भी शरीर में शारीरिक प्रयोजनों की पूर्ति करने वाला एक अवयव ही है। मुँह में ग्रास जाने पर सहज प्रक्रिया के अनुसार ग्रंथियों से रसस्राव आरंभ हो जाता है। दाँत, जीभ आदि अपना काम सहज प्रेरणा से ही आरंभ कर देते हैं। उसी प्रकार समझा जाता रहा है कि शरीर से संबद्ध समस्याओं को हल करने का उपाय ढूंढ़ने और उसकी व्यवस्था बनाने का कार्य मस्तिष्क करता है। विभिन्न अवयवों पर उसका नियंत्रण तो है, पर क्यों है? किस प्रयोजन के लिए है? उसका उत्तर यही दिया जाता रहा है कि शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मस्तिष्क का अस्तित्व है।

पर भावनात्मक प्रसंगों का जब सिलसिला आरंभ होता है और उनका प्रभाव इतना अधिक होता है कि शारीरिक और मानसिक समस्त चेष्टाएँ उसी पर केंद्रित हो जाएँ। यहाँ तक कि शरीर जैसे प्रियपात्र को त्यागने में भी संकोच न हो तो उस भाव-प्रवाह का विश्लेषण करना कठिन क्यों हो जाता है? जब हर चिंतन और प्रयत्न शरीर की सुविधा के लिए ही नियोजित होना चाहिए तो फिर उन भावों का अस्तित्व कहाँ से आ गया? जिनका शारीरिक लाभ से कोई संबंध तो नहीं है, वरन और उलटी हानि होती है। तब मस्तिष्क शारीरिक लाभ को, अपनी मर्यादा को छोड़कर हानि की संभावनाओं का समर्थन क्यों करता है? इस प्रश्न का उत्तर दे सकना भौतिक मनःशास्त्र के लिए अभी भी संभव नहीं हो सका है।

दूसरों को दुखी देखकर दया क्यों आती है? किसी की सेवा करने के लिए रात भर जागने को तैयार क्यों हो जाते हैं? अपने सुविधा-साधनों का दान-पुण्य क्यों किया जाता है? प्रेमपात्र के मिलने पर उल्लास और वियोग में वेदना क्यों होती है? समाज, देश और विश्व की समस्याएँ क्यों प्रभावित करती हैं? धर्मरक्षा के लिए त्याग और बलिदान का साहस क्यों होता है? व्रत, संयम, ब्रह्मचर्य, तप, तितीक्षा, जैसे कष्टकर आचरण अपनाने के लिए उत्साह और संतोष क्यों होता है? भक्तिभावना में आनंद की क्या बात है? इस प्रकार के भावनात्मक प्रयोजन, जिनके साथ शारीरिक आवश्यकता एवं अभाव की पूर्ति का कोई संबंध नहीं है। मनुष्य द्वारा क्यों अंगीकार किए जाते हैं और मस्तिष्क उनकी पूर्ति के लिए क्यों क्रियाशील हो उठता है?

भावनाएँ क्रियाशीलता उत्पन्न करती हों,सो ही नहीं। कई बार वे इतनी प्रबल होती हैं कि आँधी-तूफान की तरह शरीर और मन की सामान्य क्रिया को ही अस्त-व्यस्त कर देती हैं। किसी प्रियपात्र की मृत्यु का इतना आघात लग सकता है कि हृदय की गति ही रुक जाए या मस्तिष्क विकृत हो जाए। किसी नृशंस कृत्य को देखकर भयभीत मनुष्य मूर्च्छित हो सकता है। आत्महत्या करने वालों की संख्या कम नहीं और वे भावोत्तेजना में ही वैसा करते हैं । ये भावनाएँ मात्र शारीरिक आवश्यकता को लेकर ही नहीं उभरी होतीं।

चिंता, भय, शोक, क्रोध, निराशा आदि आवेशों के द्वारा होने वाली निषेधात्मक हानियों से सभी परिचित हैं। वे शारीरिक रोगों से भी भयावह सिद्ध होती हैं। चिंता को चिता से बढ़कर बताया जाता है और कहा जाता है कि चिता मरने पर जलाती है, किंतु चिंता जीवित को ही जलाकर रख देती है। यह भावना निषेधात्मक दिशा में गतिशील होने पर क्यों संकट उत्पन्न करती है और विधेयात्मक मार्ग पर चलकर क्यों अद्भुत परिणाम प्रस्तुत करती है? हमारे शरीर और मस्तिष्क क्यों उन्हें स्वीकार करते हैं: जबकि प्रत्यक्षतः उनके साथ शरीर की आवश्यकताओं या सुविधाओं का कोई सीधा संबंध भी तो नहीं है।

इस प्रश्न का उत्तर खोजते-खोजते विज्ञान ने अब मस्तिष्क का भावचेतनाकेंद्र तलाश किया है। उसकी स्वल्प जानकारी अभी इतनी मिली है कि मस्तिष्क के भीतर मोटी और लंबाई में फैली हुई अंतस् त्वचा की तंत्रिकाएँ अपने में कुछ ऐसे रहस्य छिपाए बैठी हैं, जो कारणवश भावनाओं को उद्दीप्त करती हैं अथवा उनसे प्रभावित होकर उद्दीप्त होती हैं। इस संस्थान को ‘भावनात्मक मस्तिष्क’ नाम दिया गया है।

अमेरिका के 'राष्ट्रीय स्वास्थ्य अनुसंधान संस्था' के डॉ. पाल मैकलीन, येल विश्वविद्यालय के डॉ. जोसे डेलगेडी प्रभृति वैज्ञानिकों ने मनःशास्त्र के गहन विश्लेषण के उपरांत यह निष्कर्ष निकाला है कि शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक प्रखरता की कुंजी इस भावनात्मक मस्तिष्क में ही केंद्रीभूत है। आहार-विहार का अपना महत्त्व है, पर उतनी व्यवस्था ठीक रखने पर भी यह निश्चित नहीं कि स्वास्थ्य ठीक ही बना रहेगा। इसी प्रकार शिक्षा एवं संगति का मस्तिष्कीय विकास से संबंध अवश्य है, पर यह निश्चित नहीं कि वैसी सुविधायें मिलने पर कोई व्यक्ति मनोविकारों से रहित और स्वस्थ मस्तिष्कसंपन्न  होगा ही। उन्होंने भावनाओं का महत्त्व सर्वोपरि माना है और कहा है कि, "सद्भावसंपन्न मनुष्य शारीरिक सुविधाएँ और मानसिक अनुकूलताएँ न होने पर भी समग्र रूप से स्वस्थ हो सकता है। मनोविकारों से छुटकारा पाने से दीर्घजीवी बन सकता है और रोगमुक्त्त रह सकता है।"

कहना न होगा कि स्वास्थ्य को नष्ट करने में मनोविकारों का हाथ विषाणुओं से भी अधिक है। साथ ही समग्र स्वास्थ्य के संपादन में भावनात्मक उत्कृष्टता का असाधारण योगदान है। अतः भावनात्मक मस्तिष्क की गरिमा मानवीय सत्ता में सर्वोपरि सिद्ध होती है। अध्यात्म विज्ञान इसी को अमृतघट मानता है और उसी के परिष्कार-अभिवर्द्धन की प्रक्रिया प्रस्तुत करता है।



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