मंत्रों की चमत्कारी शक्ति के दो उद्गम स्रोत

June 1972

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जीभ और हृदय का कोई सीधा तारतम्य शरीरशास्त्र की दृष्टि से मालूम नहीं पड़ता। यों तो सभी अंग एकदूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। मस्तिष्क सभी अंगों को चेतना देता है तो हृदय रक्त, फेफड़े वायु और आमाशय रस। इस प्रकार यह चारों ही संस्थान महत्त्वपूर्ण हुए और परस्पर एकदूसरे का संबंध भी बना, पर जहाँ तक अतिनिकटता और सघनता का संबंध है, जीभ और हृदय के बीच कोई असाधारण एवं अतिरिक्त घनिष्ठता नहीं है।

पर आत्म विज्ञान की दृष्टि से इनमें अत्यधिक संबंध है। शब्द विज्ञान की गहनशक्ति इन दोनों के समन्वय से ही उत्पन्न होती है। यों जीभ स्वादेंद्रिय भी है और शब्दोच्चारण का प्रयोजन भी पूरा करती है, पर उसमें एक विशेष क्षमता है— शब्दों के साथ जुड़े हुए असामान्य प्रभाव की। यदि वह तत्त्व न हो तो फिर वह ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह केवल जानकारी देने भर का ही काम दे सकती है और उससे किसी व्यक्ति को अथवा व्यापक अंतरिक्षीय वातावरण को प्रभावित नहीं किया जा सकता।

शारीरिक विज्ञान जिह्वा की मोटी जानकारी देकर और मोटी मांसल परिभाषा प्रस्तुत करके चुप ही हो जाता है। उसकी थोड़ी-सी जानकारी यह है कि जीभ स्वादेंद्रिय और वाणी दोनों का काम करती है; पर वह एकाकी नहीं है— अनेक घटकों का समूह है। जीभ एक परिवार है। जिसके अनेक विभाग हैं और वे सब परस्पर मिल-जुलकर काम करते हैं, तभी जिह्वा अपना प्रयोजन पूरा कर पाती है।

जीभ की नोंक पर कोई चीज रख दी जाए तो वह उसके स्वाद का पता न लगा सकेगी। इस जाँच-पड़ताल में उसे अपने अन्य सहायकों का सहयोग लेना पड़ता है। पदार्थ के साथ मुँह की लार का सम्मिश्रण होता है। वह गीला पदार्थ स्वादकलिकाओं को स्पर्श करता है और वे अपनी प्रतिक्रिया मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं। इतना हो चुकने के बाद ही यह पता चलता है कि जो पदार्थ मुँह में है, वह किस स्वाद का है। यदि लार का मिश्रण न हो और सूखी वस्तु जीभ पर रखी रहे तो उसके स्वाद का कुछ भी पता न चल सकेगा। स्वाद अनेक होते हुए भी वैज्ञानिक वर्गीकरण के अनुसार वे केवल चार हैं— (1) मीठा, (2) खट्टा, (3) कडुआ और (4) खारा। इन्हें परखने के स्थान भी मुँह में अलग-अलग स्थानों पर हैं। जीभ के अग्रभाग में मीठा, पिछले भाग में कडुआ, दोनों पार्श्वों में खट्टा और खारा परखने के संवेदक तंतु हैं।

नासिका और जिह्वा के संवेदक तंतुओं में परस्पर घना संबंध है। जुकाम हो जाने पर मुँह का जायका बिगड़ जाता है और वस्तुओं का स्वाद ठीक से पहचानने में नहीं आता। स्वादिष्ट व्यंजनों की गंध जीभ को प्रभावित करती है। मुँह में पानी भर आता है और पता चलता है कि किस स्वाद के व्यंजन कितनी दूरी पर बन रहे हैं। मिर्च-मसालों के छोंक-बघार नासिका की गंधशक्ति द्वारा मुँह को उनके स्वाद का परिचय कराते हैं। खरबूजा, आम आदि फलों को सूँघकर उनके खट्टे-मीठे होने का निर्णय किया जा सकता है। यह नासिका और जिह्वा के संवेदकों में परस्पर घनिष्ठता होने का ही प्रमाण है।

जीभ की संरचना का यदि वर्गीकरण किया जाए तो उसे लंब पेशियाँ, जीनियो ग्लोसस पेशियाँ, जिह्वा ग्रंथि, जिह्वावरण, लेपेक्स, तंत्रिकाएँ, स्वादकलिकाएँ, स्वादकोशिकाएँ, स्पिंडल कोशिकाओं के विभागों में विभक्त किया जा सकता है। इन सबका सहयोग ही जीभ को अपना काम ठीक तरह से करते रह सकने के योग्य बनाता है।

जीभ का यह भौतिक परिचय हुआ। उसका आत्मिक परिचय भगवती सरस्वती के प्रतीक रूप में है। जिह्वा शब्दोच्चारण करती है और उस उच्चारण के पीछे मनुष्य के मस्तिष्क और अंतःकरण को ही नहीं, शरीर को भी प्रभावित करने की शक्ति रहती है। इससे भी आगे बढ़कर वह शक्ति वस्तुओं को भी प्रभावित करती है। इसी रहस्यमय शक्ति को चमत्कारी ढंग से प्रयुक्त करने के विधान का नाम मंत्रशास्त्र है। सामान्य जानकारी का आदान-प्रदान तो वाणी से होता ही रहता है, पर जब वह एकाग्र, समग्र और शब्दशास्त्र के अनुसार कुछ विशेष शब्दों का विशेष स्वर-साधना के साथ उच्चारण करती है तो उस शब्दसमूह को ‘मंत्र’ कहते हैं। मंत्रों की चमत्कारी शक्ति से अध्यात्म विज्ञान का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है। जप के बिना किसी भी धर्म-संप्रदाय की कोई साधना नहीं हो सकती। इसे आत्मशक्ति-संवर्द्धन का आधारभूत स्रोत माना गया है।

जहाँ तक मंत्रोच्चारण का संबंध है, यह कह सकते हैं कि जिह्वातंतुओं का संबंध जिन चक्रों, उपत्यिकाओं, मातृकाओं से है। वे इस उच्चारण के साथ वैसे ही प्रभावित होती हैं, जैसे— टाइप राइटर की कुंजियाँ दबाने से उससे संबंधित तीलियाँ उछलती हैं और कागज पर अक्षर छप जाता है। शरीर के विभिन्न स्थानों पर विभिन्न सूक्ष्मशक्तियों के भंडार दबे पड़े हैं। वाणी का प्रभाव बाहर ही नहीं निकलता, भीतर भी चलता है। शब्दोच्चारण के साथ-साथ जिह्वा की नस-नाड़ियाँ और ध्वनिलहरियाँ उन प्रसुप्त संस्थानों को जगाती हैं। क्रम विशेष से सितार के तारों को बजाने से उसमें से विभिन्न स्वरलहरियाँ निकलती हैं। इसी प्रकार शब्दों का उच्चारण तथा स्वरक्रम मिलकर एक ऐसी गूँज उत्पन्न करते हैं, जिससे शरीरगत सूक्ष्मसंस्थान में हलचल मच जाती है और जो मंत्र जिस प्रयोजन के लिए निर्धारित है, उसके अनुकूल ध्वनि कंपनों का— ऊर्जा-तरंगों का निर्माण होता है। इस प्रकार मंत्रशक्ति अपना काम करती है। मंत्रोच्चारण के अवसर पर सारा स्वर-संस्थान एक शक्तिस्रोत के रूप में परिणत हो जाता है और अपने भीतर लक्ष्य किए हुए मनुष्य या देवता के ऊपर अथवा अनंत आकाश में एक प्रभाव उत्पन्न करता है, जिससे शास्त्रोक्त अभीष्ट परिणाम उत्पन्न होने की संभावना बन जाए।

पर उतना ही पर्याप्त नहीं माना जाता। इस मंत्रोच्चारण की शब्दशृंखला के पीछे हृदयगत ऊर्जा का प्रचंड-शक्तिधाराओं का सम्मिश्रण भी होना चाहिए। हृदय का अर्थ दो प्रकार का होता है। जिह्वा की तरह वह भी दो प्रयोजन पूरे करता है। एक तो रक्ताभिषरण का केंद्रबिंदु होने से वहाँ उत्पन्न होने वाली प्रचंड ऊर्जा का वह भंडार बना होता है, दूसरे उसे भाव संस्थान का केंद्रबिंदु भी माना गया है। धड़कन से उत्पन्न ऊर्जा और श्रद्धा, निष्ठा, भक्ति, एवं विश्वास की समन्वयात्मक भाव गरिमा— इन दोनों का समन्वय ही मंत्र का प्राण है। उच्चारण को मंत्र का कलेवर और भावनाओं को उनका प्राण कहा गया है। इस प्रकार जहाँ तक आत्मसाधना के विज्ञान का संबंध है, जिह्वा और हृदय दोनों को एक ही रथ के दो पहिए माना गया है। मंत्र-साधना में दोनों का सहयोगात्मक समन्वय समान रूप से रहने पर ही अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध होता है।

शरीर विज्ञान की दृष्टि से जिह्वा की तरह ही थोड़ा परिचय यह है—

हृदय को शरीर नगर की जल-व्यवस्था— रक्तसंचार-प्रणाली को सुचारु रूप से व्यवस्थित रखने वाला ‘पंपिंग स्टेशन’ कहना चाहिए। हृदय का फेंका हुआ रक्त समस्त शरीर के अंग-प्रत्यंगों में धमनियों द्वारा भ्रमण करता है। वायु एवं पोषण से उन अंगों को पुष्ट करता हुआ वहाँ की विकृतियों को भी अपने साथ समेटता लाता है और वापिस हृदय में आ जाता है। फेफड़े उस संग्रहीत कूड़े-कचरे को साँस के द्वारा बाहर निकालकर उसमें ऑक्सीजन— प्राणवायु घोल देते हैं। इसके बाद रक्त का वही भ्रमणक्रम फिर चल पड़ता है। हृदय इसी रक्तसंचार-प्रक्रिया का निर्वाह करते रहने वाला प्रधान अंग है।

यों हृदय में रक्त सदा ही भरा रहता है, पर वह उसमें से सीधा एक बूँद भी ग्रहण नहीं करता। उसे जो मिलता है, वह एक कायदे-कानून— प्रथा-प्रक्रिया के अनुसार मिलता है। इसके लिए हृदय की मांस-पेशियों को खुराक देने वाली छोटी-छोटी धमनियाँ अलग से विनिर्मित हैं। वस्तुतः वे ही हृदय की धाय हैं, उन्हीं के माध्यम से उसे पोषण मिलता है। ये किसी प्रकार थक जाएँ या गड़बड़ा जाएँ तो हृदय को या उसके किसी भाग को खुराक मिलनी बंद हो जाती है या कम पड़ जाती है। इस थोड़े से अवरोध का प्रभाव बहुत भयंकर होता है। हृदय को या उसके किसी भाग को ही उस कमी से कष्ट नहीं होता, वरन शरीर के अन्य भागों को भी खुराक मिलनी बंद हो जाती है। मस्तिष्क को तो यह कमी तनिक भी बर्दाश्त नहीं होती और सारे शरीर में भयंकर हलचल मच जाती है। इसका नाम हृदय का दौरा है। यदि यह अवरोध 1 मिनट भी बना रहे तो मरण निश्चित ही समझना चाहिए। इस भयंकर आपत्ति के समय हृदय— ग्राह के मुख में पड़े हुए गज की तरह करुण क्रंदन करता हुआ चिल्लाता है। इसी को हृदय का दर्द कहा जाता है।

हृदय क्या है? साढ़े तीन इंच चौड़ी-पाँच इंच लंबी पान के पत्ते जैसे आकार की 12॥ ओंस भारी छाती की बाँई ओर पाँचवीं और छठवीं पसली के बीच की एक मांसल थैली, जो सदा धड़कती रहती है। यह चार कोष्ठों में विभाजित है। दो ऊपर वाले भाग आरीकिल (अलिंद) कहलाते हैं। नीचे के दो भाग वेंट्रीकिल (निलय) कहे जाते हैं। शरीर में रक्त का संचार और नियंत्रण उनका काम है।

बंद मुट्ठी जैसी आकृति के इस नरम और मुलायम हृदय की धड़कन हर मिनट में 70-75 बार होती है। हर सेकेंड में प्रायः 1 से 2 बार धड़कन होती है। इस प्रकार वह एक साल में प्रायः तीन करोड़ सत्तर लाख बार धड़क लेता है। नवजात शिशु के हृदय की धड़कन प्रतिमिनट 120 से 140 बार तक होती है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, यह धड़कन घटती जाती है और अंत में प्रायः 60-70 तक रह जाती है। इसका कारण आयुवृद्धि के साथ-साथ ऑक्सीजनयुक्त नीले खून वाली शिराओं की लचक घटते जाना है। उनकी दीवारें मोटी होती जाती हैं। जिससे धमनियों के फैलने-सिकुड़ने की क्षमता घटती जाती है। तदनुसार धड़कन का क्रम भी कम होता चला जाता है।

अपने आकार और वजन को देखते हुए शरीर के अन्य अवयवों की तुलना में हृदय को कहीं अधिक काम करना पड़ता है। वह एक मिनट में 72 बार धड़कता है— वर्ष में 3 करोड़ 70 लाख बार। यदि कोई व्यक्ति 60 वर्ष जीवित रहे तो उसका हृदय 220 करोड़ बार धड़क चुका होगा। 18000 टन रक्त बहा चुका होगा। 62000 मील रक्तनलिकाओं की सड़क-पगडंडियों पर चल चुका होगा। यह लंबाई समस्त पृथ्वी की परिक्रमा से ढाईगुनी अधिक है। इस कार्य में उसे इतनी शक्ति खरच करनी पड़ती है, जितने में संसार का सबसे भारी युद्धपोत धरती से पाँच गज ऊँचा उठाकर अधर में टाँगा जा सकता है। मनुष्य की बनाई अब तक की कोई मशीन इतने लंबे समय तक— बिना टूट-फूट— बिना विश्राम लिए चल सके, ऐसी नहीं बनी है।

यों यह कर्तृत्व भी इस छोटी-सी मांसथैली का आश्चर्यजनक है, पर बात इतनी-सी ही नहीं है। अपने आकार को देखते हुए हृदय जितना काम करता है, उसके अनुपात को देखते हुए उसकी कार्यक्षमता की तुलना में संसार का कोई यंत्र नहीं बैठता। आकार और साधन स्वल्प होते हुए वह जितना बड़ा उत्तरदायित्व सँभालता है, निस्संदेह उसी अनुपात का मनुष्यकृत यंत्र बन सकना, अभी तक संभव नहीं हुआ। इतनी प्रचंड ऊर्जा का योगदान मंत्रशक्ति से मिल जाता है तो उसकी शक्ति को करोड़ों गुना अधिक बढ़ना ही चाहिए।

आकाशवाणी से उच्चारण किए हुए शब्द इसलिए प्रखर हो उठते हैं कि उनमें विद्युतशक्ति का सम्मिश्रण किया जाता है। उसी के अभाव में हमारी आवाज हजार गज पर भी नहीं सुनी जाती, जबकि रेडियो की आवाज सारा संसार सुनता है। ठीक मंत्रोच्चारण को प्रचंड और व्यापक बनाने के लिए हृदय की विद्युतधारा का उपयोग करना पड़ता है। साथ ही श्रद्धा, विश्वास और भक्ति का समन्वय करके उसी जप शब्दावली को इतना प्रखर बनाना पड़ता है कि वह साधारण उच्चारण न रहकर एक शक्ति-प्रवाह के रूप में प्रादुर्भूत होकर अपना अभीष्ट प्रयोजन पूरा कर सके।

आत्मिक-क्षेत्र में हृदय का सूक्ष्म अर्थ ‘सहृदयता’ लिया गया है। निष्ठुर प्रकृति के दुष्ट-दुराचारियों को ‘हृदयहीन’ कहा जाता है। इसका अर्थ खून फेंकने वाली थैली का होना या न होना नहीं, वरन यह है कि उच्चस्तरीय संयम, सदाचार, निर्मलता, निष्कपटता, ममता, आत्मीयता, उदारता जैसी सद्भावनाओं का उद्गमकेंद्र है या नहीं। यदि वह परिप्लावित हो तो अन्य आत्मिक शक्तियाँ भी उगेंगी, फलेंगी और फूलेंगी। यदि श्मशान जैसी निष्ठुरता और प्रेत-पिशाचों जैसी दुष्टता भर रही होगी तो उस मरघट की जली हुई भूमि में कोई भी आत्मिक विभूति पल्लवित और फलित न होगी। इसके अतिरिक्त उच्चसत्ता पर— आत्मा की महत्ता पर— साधन-प्रक्रिया तथा उसकी परिणति पर गहन श्रद्धा-विश्वास का होना भी हृदयवान होने का चिह्न है। इन विशेषताओं से जो संपन्न हो उनकी हृदयगत भावशक्ति— जिह्वागत स्वरशक्ति को सम्मिश्रित करके समग्र मंत्रशक्ति उत्पन्न करेगी और उसका प्रभाव-परिणाम निश्चित रूप से आशाजनक होगा।

हृदय को शिव और जिह्वा को शक्ति कहते हैं। हृदय प्राण और जिह्वा रयि है। हृदय को अग्नि और जिह्वा को सोम कहते हैं। दोनों का समन्वय धन और ऋण विद्युतधाराओं के मिलने से जो शक्ति-प्रवाह उत्पन्न करता है, वही मंत्र के चमत्कार के रूप में देखा जा सकता है।

मंत्र की एक प्रकट ध्वनि होती है, एक अप्रकट। शब्दोच्चार के साथ-साथ एक प्रतिध्वनि और उत्पन्न होती है, जो प्रत्यक्ष उच्चारण से अधिक सूक्ष्म होने के कारण और भी अधिक बलवती होती है। कान की पकड़ में न आने वाली ध्वनियों को आजकल वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा पकड़ा और प्रयुक्त किया जा रहा है। उनकी अद्भुत सामर्थ्य ने विज्ञान जगत को आश्चर्यान्वित कर दिया है।

आवाज उतनी ही नहीं है, जितनी कानों से सुनी जाती है। कानों की एक सीमित मर्यादा है। वे अपनी पकड़ में आने वाली आवाजों को ही सुन पाते हैं। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि जो हम सुन सके, उतनी ही ध्वनि होती है। शब्द-तरंगों का बहुत बड़ा भाग कानों की पकड़ में नहीं आता, पर वह इस आकाश में चलता निरंतर रहता है। रेडियो-तरंगों के साथ मिली हुई आवाजें आकाश में हर घड़ी गूँजती रहती हैं। हम उन्हें सुन तभी पाते हैं, जब रेडियो यंत्र पास में हो और उस कानों की पकड़ से बाहर की आवाज को बिजली के सहारे तीव्र करें। शब्द-तरंगों की अपनी स्वतंत्र सत्ता है। वे इस संसार में चल रही अनेक हलचलों के कारण जो ध्वनियाँ होती हैं, उन्हें इधर से उधर लाती— ले जाती रहती हैं। योगाभ्यास में ‘नादानुसंधान’ की पद्धति से इन्हीं ध्वनियों को सुना-अपनाया जाता है।

ध्वनि-तरंगें केवल आवाज को कान तक पहुँचाकर उसके द्वारा जानकारी बढ़ाने का ही काम नहीं करतीं, उनमें एक प्रचंड बिजली भी भरी रहती है और वह इतनी सामर्थ्यवान होती है कि डाइनामाइट जैसी पुल और किले उड़ा देने वाली बारूद को पीछे छोड़ दें। अब इस ध्वनि-तरंगों का वह प्रवाह भी वैज्ञानिकों की पकड़ में आ गया है, जो कानों द्वारा सुने जाने की मर्यादा से कहीं अधिक सूक्ष्म है। उनका उपयोग सुनने के लिए नहीं, वरन उन कार्यों के लिए सफलतापूर्वक किया जा रहा है जो बिजली की सामर्थ्य से भी कहीं अधिक गहरी शक्ति की अपेक्षा करते हैं। अभी इनके प्रयोग का प्रथम चरण है। आगे चलकर सोचा यह जा रहा है कि इन तरंगों द्वारा संसार की शक्ति की आवश्यकता, सस्तेपन और सरलता के साथ संपन्न की जाए।

जिन कर्ण-कुहरों से आगे की ध्वनि-तरंगों की यहाँ चर्चा हो रही है, उन्हें विज्ञान की भाषा में ‘अतिस्वन’ कहा जाता है। इन्हें छिटपुट अनेक उद्योगों में प्रयुक्त किया जा रहा है। कपड़ों को धोना, सुखाना, सफाई, तेल निकालना, कागज बनाना जैसे छोटे-मोटे उद्योगों में इनका सफल प्रयोग किया गया है। जर्मनी में उन्हें धातुओं की ढलाई के काम में लाया जा रहा है। ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने धागे के संबंध में उनका प्रयोग किया है। बी.एफ. गुडरिच कंपनी का अनुसंधान विभाग इस अन्वेषण में लगा हुआ है कि इन ध्वनि-तरंगों को किस उद्योग में किस प्रकार काम में लगाया जा सकता है। रेथ्यान कंपनी का बना होमोजिनाइजिंग यंत्र दुग्ध-साधनों के लिए इसी आधार पर बना है और हजारों की संख्या में बिक रहा है।

ध्वनि-तरंगें— कंपन के रूप में होती हैं। वे गैसों, द्रवों एवं ठोस पदार्थों में वास्तविक धड़कनों की तरह हैं।

रेडियो-तरंगों में और इनमें मुख्य अंतर यह है कि रेडियो-तरंगें शून्य में यात्रा करती हैं, पर ये ध्वनि-तरंगें वैसा नहीं करतीं। इन दिनों तीन प्रकार के ध्वनि-तरंग यंत्र बने हैं। एक वे उच्च दबाव पर वायु के उपयोग से उच्च आवृत्ति के कंपन उत्पन्न करते हैं। दो किस्म की शक्ति के लिए विद्युत-ऊर्जा का उपयोग करते हैं। अमेरिका की अल्ट्रासोनिक कार्पोरेशन गैसों के लिए साइरन औद्योगिक स्तर पर उत्पादन करता है। इन तरंगों के उपकरण अल्ट्रासोनिक (अतिस्वन) और सुपरसोनिक (महास्वन) नाम से पुकारे जाते हैं। वैज्ञानिकों ने खोज तो निकाला है, पर इनसे इनकी गौरव-गरिमा के उपयुक्त काम लिया जा सके, यह प्रयोग करना शेष है।

मंत्रविद्या के महान विज्ञान को यदि ठीक से समझा जा सके, शब्द ब्रह्म की भावनापूर्वक साधना की जा सके, तो अदृश्य और अप्रत्यक्ष विभूतियों को हम सामने खड़ी दृश्य और प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं।



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