पृथकता छोड़ें— सामूहिकता अपनाएँ

June 1972

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यह समस्त विश्व एक शरीर की तरह है। इसमें मनुष्य का स्थान एक उँगली के बराबर समझा जा सकता है। उँगली का महत्त्व तभी तक है, जब तक कि वह शरीर के साथ जुड़ी हुई है।

असंख्य आत्माओं में जगमगाने वाली चेतना की ज्योति का केंद्र एक ही है। पानी की प्रत्येक लहर पर एक अलग सूर्य चमकता है, पर वस्तुतः वह एक ही सूर्य की अनेक प्रतिच्छवियाँ हैं। समुद्र की हर लहर का अस्तित्व भिन्न दिखाई पड़ने पर भी वस्तुतः वे विशाल सागर की हिलोरे ही हैं। इस समस्त विश्व में केवल एक ही समष्टि आत्मा है— जिसे परमात्मा के नाम से पुकारते हैं। सबमें वही प्रतिभाषित हो रहा है। वह माला की मणियों के मध्य पिरोए हुए धागे की तरह पृथक दीखने वाले प्राणियों को परस्पर एक ही सूत्र में बाँधे हुए है।

इस बंधन में बँधे रहना ही श्रेयस्कर है। समग्र का परित्यागकर जब हम पृथक होते हैं, अपने अहंकार की पूर्ति के लिए अपना वर्चस्व प्रकट करने और अलग रह कर अधिक सुविधा प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं तो हम भारी भूल करते हैं। पाते कुछ नहीं, पर खोते बहुत हैं। समग्रता के वैभव से लाभान्वित होने की सुविधा खो बैठते है और एकाकीपन के साथ मिलने वाली तुच्छता— हर दृष्टि से अपर्याप्त सिद्ध होती है।

उँगली हाथ से अलग रहने की तैयारी करते समय यह सोचती है कि मैं क्यों सारे दिन हाथ का आदाब बजाऊँ, क्यों उसके इशारे पर नाचूँ। इसमें मेरा क्या लाभ? मेरे परिश्रम और वर्चस्व का लाभ मुझे क्यों न मिले? यह अलग रहकर ही हो सकता है, इसलिए अलग ही रहना चाहिए। अपने श्रम और उपार्जन का लाभ स्वयं ही उठाना चाहिए। ऐसी सोच के कारण हाथ से कटने के बाद अलग रहकर उँगली कुछ ही समय में देखती है कि उसका अनुमान गलत था। शरीर के साथ जुड़े रहने पर उसे जो जीवनदाता रक्त मिलता था, वह मिलना बंद हो गया। उसके अभाव में वह सूखकर सड़ गई। उस सड़े टुकड़े को छूने में भी लोगों ने परहेज किया; जबकि हाथ के साथ जुड़े रहने पर वह भगवान का पूजन करती थी। हाथ मिलाते समय बड़ों के स्पर्श का आनंद लेती थी। महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखती थी। बड़े काम करने का श्रेय प्राप्त करती थी। पृथक होने के साथ-साथ वह सारी सुविधाएँ भी समाप्त हो गईं। उँगली नफे में नहीं, घाटे में रही।

फूल का अपना अलग भी महत्त्व है; पर वह नहीं, जो माला में गुँथे रहने पर होता है। एकाकी फूल किसी महापुरुष या देवता के गले में नहीं लिपट सकता। यह आकांक्षा तो सूत्रात्मा को आत्मसमर्पण के बाद माला में गुँथने के बाद ही पूरी हो सकती है। व्यक्तिवादी, एकाकी, स्वार्थी, संकीर्ण मनुष्य, समूहगत चेतना से अपने को अलग रखने की सोच सकता है। अपने ही लाभ में निमग्न रह सकता है, दूसरों की उपेक्षा भी कर सकता है। उन्हें क्षति पहुँचा सकता है और इस प्रकार अपने उपार्जन को— शोषणात्मक उपलब्धियों को अपने लिए अधिक मात्रा में संग्रह कर सकता है, पर अंततः यह दृष्टिकोण अदूरदर्शितापूर्ण सिद्ध होता है। पृथकता के साथ जुड़ी हुई दुर्बलता उसे उन सब लाभों से वंचित कर देती है, जो समूह का अंग बनकर रहने से ही मिल सकते थे।

समुद्र की हर लहर अपना सरंजाम अलग खड़ा करे तो वे तनिक से जल के रूप में बिखर जाएँगी और ज्वार-भाटे के समय उनका जो गौरव देखकर लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे, उससे उन्हें वंचित ही रहना पड़ेगा। नौकाओं को पलट देने की शक्ति— गरजती हुई ध्वनि, फिर उनमें कहाँ रहेगी। किसी गड्ढे में पड़ी सूख जाएगी। अपने स्वरूप को भी स्थिर न रख सकेंगी। सूखने के बाद उनका अस्तित्व उनकी सरसता की चर्चा का अस्तित्व भी मिटा देगा। वहाँ सूखा नमक भर श्मशान की राख की तरह पड़ा होगा? लहरें समुद्र से पृथक अपने अस्तित्व का स्वतंत्र निर्माण करने की— एषणा महत्त्वाकांक्षा के आवेश में भटकने का ही उपक्रम करती हैं। लाभ के लोभ में घाटा ही वरण करती हैं।

ईंटों के समन्वय से भवन बनते हैं। बूँदों के मिश्रण से बादल बनते हैं। परमाणुओं का सहयोग पदार्थ की रचना करता है। अवयवों का संगठितरूप शरीर है। पुर्जों की घनिष्ठता मशीन के रूप में परिणत होती है। पंचतत्वों से मिलकर यह विश्व सृजा है। पंचप्राण इस काया को जीवित रख रहे हैं। दलबद्ध योद्धा ही समर्थ सेना है। कर्मचारियों का गठित समूह ही सरकार चलाता है। यदि इन संघटकों में अलगाववादी प्रवृत्ति पनपे और डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग-अलग पकने लगे तो जो कुछ महान दिखाई पड़ता है, तुच्छ में बदल जाएगा।

तुच्छता अपना अस्तित्व तक बनाए रखने में असमर्थ है। प्रगति भी पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है। दूसरों को पीछे छोड़कर एकाकी आगे बढ़ जाने की बात सोचने वाले, उन संकटों से अपरिचित रहते हैं, जो एकाकी के अस्तित्व को ही संकट में डाल सकते हैं। उँगली हाथ से कटकर अलग से अपने बलबूते पर प्रगति करने की कल्पना भर कर सकती है। व्यावहारिक क्षेत्र में उतरने पर कड़वी सचाई सामने आती है कि पृथकता लाभदायक दीखती भर है, पर वस्तुतः लाभदायक तो सामूहिकता ही है।

एक ही आत्मा सबमें समाया हुआ है। इस तथ्य को गंभीरतापूर्वक समझना चाहिए और एक ही सूर्य की असंख्य लहरों पर चमकने के पीछे सन्निहित वस्तुस्थिति पर ध्यान देना चाहिए। हम सब परस्पर सघनतापूर्वक एकदूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। मानवीय प्रगति का गौरवशाली इतिहास उसकी समूहवादी प्रवृत्ति का ही सत्परिणाम है। बुद्धि का विकास भी सामूहिक चेतना के फलस्वरूप ही संभव हुआ है। बुद्धि ने सामूहिकता विकसित नहीं की, सहयोग की वृत्ति ने बुद्धि का विकास संभव किया है।

हमें समूह का एक अंग होकर रहना चाहिए। अपने को समाज का एक घटक अनुभव करना चाहिए। प्रगति एकाकी नहीं हो सकती। सुविधाओं का उपभोग एकाकी किया जाए तो उससे अगणित विकृतियाँ उत्पन्न होंगी। बाहर ईर्ष्या-द्वेष बढ़ेगा, आक्रमणकारी बढ़ेंगे और व्यसनों की भरमार आ धमकेगी। अंतर का चोर जैसी आत्मग्लानि खाने लगेगी और परिवार में आपा-धापी पैदा होगी। व्यक्तिगत बड़प्पन के प्रयत्नों को ही तो ‘स्वार्थ’ कहा जाता है। स्वार्थी सम्मान नहीं, तिरस्कार प्राप्त करता है। उस मार्ग पर चलते हुए उत्थान नहीं, पतन ही हाथ लगता है। संकीर्णता की परिधि में आबद्ध पोखर का जल सड़ेगा और सूखेगा ही। स्वच्छता और सजीवता तो प्रवाह के साथ जुड़ी हुई है। बहता हुआ जल ही सराहा जाता रहा है।

हम पृथकतावादी न बनें। व्यक्तिगत बड़प्पन के फेर में न पड़ें। अपनी अलग से प्रतिभा चमकाने का झंझट मोल न लें। समूह के अंग बनकर रहें। सबकी उन्नति में अपनी उन्नति देखें और सबके सुख में अपना सुख खोजें।

यह मानकर चलें कि उपलब्ध प्रतिभा, संपदा एवं गरिमा समाज का अनुदान है और उसका श्रेष्ठतम उपयोग समाज को सज्जनतापूर्वक लौटा देने में ही है।

समुद्र बादलों को देता है। बादल जमीन को देता है। जमीन नदियों के द्वारा उस जल को पुनः समुद्र में पहुँचा देती है। यही क्रम विश्व की स्थिरता और हरीतिमा, शांति और शीतलता का आधार है। हम अपने को विस्तृत करें। सबको अपने में और अपने को सब में देखें। आत्माओं में चमकती हुई परमात्मा की सत्ता को समझें। यदि ऐसा कर सके तो हमें व्यक्तिवाद की तुच्छता छोड़कर समूहवाद की महानता ही वरण करनी पड़ेगी।



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