प्रजापति एक दिन बहुत उदास बैठे थे। लगता था कि उनसे कोई भूल हो गई है, जिसका पश्चात्ताप उन्हें दुःख दे रहा है।
इंद्र ने पूछा—"भगवन! आखिर हुआ क्या?"
प्रजापति ने कहा—"मैंने मनुष्य की रचना बड़े अरमानों के साथ की थी और उसे बुद्धि का उपहार तथा कर्म की छूट यह सोचकर दी थी कि वह इनका उपयोग जिम्मेदारी के साथ करेगा। अब जो समाचार मिल रहे हैं, उनसे पता चलता है कि इन अनुदानों का मनुष्य दुरुपयोग कर रहा है और उच्छृंखलता बरत रहा है। यह दोनों अनुदान इस कुपात्र मनुष्य को देकर मैंने भूल की।"
यमराज पास ही बैठे थे। उनने बात काटते हुए कहा—"मनुष्य पर आपका दोषारोपण ठीक नहीं। जब वह मेरे सामने आता है तो बहुत ही नम्र और दीन होता है। फिर भला वह उद्धत कैसे हो सकता है?"
इंद्र ने कहा—"आपका पाला मरे मनुष्य से पड़ता है। यदि जिंदे के साथ व्यवहार करना पड़ता तो आप भी चक्कर में पड़ जाते।"
प्रजापति को एक नया प्रकाश मिला। नारद जी को बुलाकर उन्होंने कहा— "मृत्युलोक में जाकर हर मनुष्य को हर घड़ी मृत्यु की संभावना का बोध कराओ। इस भय से वह नम्र और सज्जन रह सकेगा।"
तब से नारद जी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मनुष्यों को जीवन की नश्वरता समझाने में लगे है। जो उनकी बात सुन-समझ लेते हैं, उतने तो सज्जनता अपना ही लेते हैं। इस प्रकार प्रजापति की व्यथा कुछ तो हलकी होती ही है।