मृत्यु के लिए पहले से ही तैयारी करें

June 1972

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मरते समय शारीरिक पीड़ा प्रायः नहीं के बराबर होती है। बीमारी में जितना कष्ट सहना पड़ता है, मरते समय उतना भी नहीं होता। अतः मरने से इस आधार पर डरने की जरूरत नहीं है कि उस समय अधिक कष्ट होगा।

दाँत में कीड़ा लगने या उखड़ने के दिनों में बहुत दर्द होता रहता है, पर जब कुशल डॉक्टर उसे निकालता है तो सुई लगाकर उसे सुन्न कर देता है और यह पता भी नहीं चलता कि कब उखड़ गया। अस्पताल में किसी चोट या व्रण का ऑपरेशन कराने के लिए भर्ती होना पड़ता है। चोट या दर्द में बहुत दर्द होता रहता है, पर जब डॉक्टर आपरेशन करता है तो बेहोशी की दवा सुँघाकर या सुई लगाकर सुन्न कर देता है। रोगी के साथ डॉक्टर की सद्भावना रहती है, इसलिए वह बिना कष्ट पहुँचाए ही अपना प्रयोजन पूरा कर देता है।

मृत्यु का समय आने से पूर्व कुछ दिन बीमार रहना पड़ता है। बीमारी में स्नायुमंडल और नाड़ीमंडल दुर्बल हो जाता है और अनुभूति की क्षमता शिथिल पड़ जाती है। जैसे-जैसे मरने का समय निकट आता जाता है वैसे-वैसे यह शिथिलता और बढ़ती जाती है। मस्तिष्क अपना काम समाप्त करता जाता है। प्रायः मरने से पूर्व हर व्यक्ति अचेत हो जाता है। उसकी चेतना लुप्त हो जाती है। कुटुंबियों तक को पहचानने की शक्ति नहीं रहती। जीभ बोलना बंद कर देती है और कान, आँख आदि खुले रहने पर भी अपना काम नहीं करते। अनुभव करने की शक्ति धीरे-धीरे अधिकाधिक शिथिल होती चली जाती है और मरने की घड़ी आने से पूर्व ही वह अचेतन अवस्था इतनी घनी हो जाती है कि प्राण त्यागने के समय प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट अनुभव नहीं होता।

मृत्यु के समय अधिकतर लोग बहुत व्यथित और उद्विग्न पाए जाते हैं। इसका कारण शारीरिक नहीं, मानसिक है। एक तो मनुष्य मोह, ममता के बंधन में बेतरह जकड़ जाता है और उन्हें तोड़ते हुए कष्ट होता है। ढीली हथकड़ी अथवा बेड़ी आसानी से कट जाती है, पर यदि वह शरीर में बहुत कसकर बँधी हों तो काटने में कष्ट होगा। पैसा मेरा, घर मेरा,कुटुम्ब मेरा— यह ‘मेरा’ जितना गहरा और कड़ा होगा, उसका टूटना मानसिक दृष्टि से उतना ही भारी पड़ेगा। यदि पहले से ही मनुष्य यह सोचता रहे कि धन-संपदा समाज या परमेश्वर की है, उसको कार्यों में प्रयुक्त करने वाला कर्मचारी भर हूँ और स्वामित्व मेरा किसी पर नहीं है। इससे वस्तुओं का मोह न बढ़ेगा और वे छूटते समय कष्ट न देंगी। इसी प्रकार सब जीवों को ईश्वर का अंश और पुत्र समझकर स्वतंत्र इकाई माना जाए। उनके साथ रास्ता चलते पथिक जैसा संयोग माना जाए। परिवाररूपी उद्यान का अपने को माली भर समझा जाए तो फिर कुटुंबियों से ममता न बढ़ेगी। स्नेह-सद्भाव के निर्वाह और कर्त्तव्यपालन भर में संतोष और आनंद होता रहेगा। उनके वियोग में वैसी पीड़ा न होगी, जैसी आमतौर से अज्ञानग्रस्त लोगों को होती है।

मरने के समय दूसरा कष्टदायक कारण है— जीवन को निरर्थक एवं अनर्थ जैसे कार्यों में बर्बाद कर देना, पाप की गठरी सिर पर लादकर ले चलना और भविष्य में कुकर्मों के फलस्वरूप दुखद परिस्थितियों में पड़ने की संभावना का आँखों के सामने मूर्तिमान होना। उस समय पश्चात्ताप की आग बेतरह जलाती है और कर्मफल के दंड का भय लगता है। यह कष्ट वास्तविक है। यह होता उन्हीं को है, जिनने सुरदुर्लभ मानव शरीर के बहुमूल्य क्षण निरर्थक गँवाए। जीवनोद्देश्य को नहीं समझा। धर्म और कर्त्तव्य से विमुख रहे और आत्मकल्याण तथा लोककल्याण के लिए भी कुछ करना है, इस बात को भूले रहे। मृत्यु की अनिवार्यता हमें ध्यान में रखनी चाहिए। उस समय शरीरगत कष्ट से तो डरने की आवश्यकता नहीं है, पर मानसिक पश्चात्ताप और मोह-ममता के कारण व्यथित न होना पड़े। इसके लिए अपना दृष्टिकोण और कर्त्तव्य ऐसा बनाना चाहिए, जिससे मृत्यु को शांति, धैर्य और साहसपूर्वक स्वीकार किया जा सके।



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