शरीर और मन को प्रभावित करने वाला जीवन-रस— हारमोन

June 1972

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सामान्य शरीर विज्ञान के अनुसार यह जाना-माना जाता है कि देह के इंजन को चलाने के लिए हृदय, फुफ्फुस, आमाशय, आँतें, जिगर, गुर्दे, वृक्क, मस्तिष्क आदि अंगों का क्रियाकलाप ही प्रमुख उत्तरदायित्व वहन करता है। उनकी बनावट और क्रियापद्धति शवविच्छेद आदि द्वारा समझी-समझाई जाती है और बीमार पड़ने पर इनमे कहीं खराबी-कमजोरी तलाश की जाती है। रक्त की गतिशीलता एवं शुद्धता इन्हीं प्रमुख अंगों की स्थिति पर निर्भर रहती है। ज्वर, खाँसी, दस्त, व्रण, दर्द, सूजन, शिथिलता, अशक्तता आदि रोगों के बाह्य लक्षण भीतरी अवयवों में विकार आने के फलस्वरूप ही दृष्टिगोचर होते हैं।

विज्ञान के अन्य क्षेत्रों की भाँति शरीर विज्ञान के अंतरंग में जितनी गहराई के साथ प्रवेश किया जाता है, उतने ही अधिक महत्त्वपूर्ण रहस्य प्रकट होते चले जाते हैं। प्राचीनकाल में पंचतत्त्वों को सृष्टि का आदिकारण माना जाता था; पर नवीन शोधें परमाणु, प्रकाश, चुंबक, ईथर, गैस, ताप आदि तत्त्वों के कण-कंपनों को पदार्थ का मूल कारण सिद्ध करती हं। स्थूल पंचतत्त्व तो इन्हीं सूक्ष्मतत्त्वों के मिश्रण मात्र हैं। उनका अब कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं माना जाता।

शरीर विज्ञान अब हृदय, आमाशय आदि को यंत्र, इंजन आदि मानता है। उसके मूल संचालन में दूसरे तत्त्वों एवं सूक्ष्म अवयवों का हाथ बताया जाता है। इन्हीं पर हमारे स्वास्थ्य का बहुत कुछ आधार निर्भर रहता है।

सूक्ष्म अवयवों में ‘हारमोन’ अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनकी सक्रियता अथवा निष्क्रियता का हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति पर भारी प्रभाव पड़ता है।

शरीर में दो प्रकार की ग्रंथियाँ हैं। एक प्रकार की ग्रंथियाँ पसीना आदि मलों के विसर्जन की प्रक्रिया संपन्न करती हैं। दूसरी प्रकार की एकरस विशेष का स्राव करती हैं जो रक्त में मिलकर समस्त शरीर को प्रभावित करता है। यह रस विशेष ही हारमोन है।

शरीर की आकृति कैसी ही हो, उसकी प्रकृति के निर्माण में इन हारमोन रसों का भारी हस्तक्षेप रहता है। कई बार तो वे मनःस्थिति, स्वभाव, रुचि को आश्चर्यजनक रीति से प्रभावित करते हैं। स्वसंचालित नाड़ी-संस्थान की गतिशीलता तक में इनकी स्थिति के कारण भारी हेर-फेर उत्पन्न होते हैं। इन हारमोन रसों को जीवन-रस कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी।

हारमोन प्रवाहित करने वाली ग्रंथियाँ यों कितनी ही हैं, पर उनमें पाँच मुख्य हैं। यथा—

(1) थायराइड (चुल्लिका)—यह ग्रंथि गले की घंटी के पास स्थित है। इसका वजन आधी छटाँक से भी कम होता है। इससे निकलने वाले रस को थराइक्सन कहते हैं। इसमें 65 प्रतिशत आयोडीन रहता है। इसके अतिरिक्त हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन आदि भी रहते हैं।

इसका विकास बचपन में ही रुक जाए तो शरीर और मन का पर्याप्त विकास नहीं होता है। प्रौढ़ावस्था में विकास रुक जाने पर चुस्ती और स्फूर्ति रुक जाती है। शरीर की गिरावट होने लगती है। वृद्धावस्था में विकास रुक जाने पर मनुष्य का शरीर एकदम गिर जाता है और मृत्यु जल्दी ही आ जाती है। इस ग्रंथि का रस इंजेक्शन द्वारा देने पर इसका अभाव दूर हो जाता है। भेड़ की ग्रंथि खिलाने पर तो शरीर तेजी से बढ़ने लगता है।

इसी ग्रंथि पर मनुष्य की कार्यक्षमता निर्भर करती है। यदि यह ग्रंथि तेजी से काम करने लगे तो कार्यक्षमता में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। इतना ही नहीं तेजी, क्रोध, चिड़चिड़ापन, जल्दबाजी, भागदौड़ की वृत्ति अधिक बढ़ जाती है। यदि यह थोड़ा अधिक कार्य करे तो मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए उत्तम है। इससे गंभीरता, मस्ती, कार्यशीलता और प्रसन्नता प्राप्त होती है।

(2) पिट्यूटरी—यह प्रमुख ग्रंथि है जो अन्य सभी ग्रंथियों पर शासन करती है। यह अंगूर की शक्ल की मस्तिष्क के नीचे एक नली से लटकी रहती है। इसकी स्वस्थता पर ही अस्थि-पंजर की वृद्धि और शरीर का विकास निर्भर करता है। इसकी विकृति से पीलापन समय के पूर्व बुढ़ापा, अस्थि-पंजर की कमजोरी आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं।

(3) पीनियल—यह मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित होती है। इसकी तेजी पर अवस्था से पहले काम-वासना की तीव्रता और असाधारण प्रतिभा का होना निर्भर करता है।

(4) अड्रिनल्स—गुर्दों के ऊपरी सिरों पर दो ग्रंथियाँ स्थित होती हैं। इनसे कार्टन नाम का रस निःसृत होता है। इस रस के नष्ट हो जाने पर मृत्यु हो जाती है। इन ग्रंथियों की बाह्य प्रतिक्रिया के फलस्वरूप पुरुषत्व की वृद्धि होती है। आंतरिक क्षेत्र में भय, क्रोध, चिंता आदि का संबंध इसी ग्रंथि से होता है। इन ग्रंथियों पर प्रतिक्रिया होने से रक्तचाप बढ़ जाता है। स्नायुओं में तेजी आ जाती है। भय, क्रोध और उत्तेजना की अवस्था में सामर्थ्य से अधिक काम कर बैठना, ऊँचे से कूद जाना, घातक हमला कर देना अथवा तेजी से दौड़ना इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होता है। इसका रस एड्रीनलीन इंजेक्शन से देने पर उत्तेजना पैदा हो जाती है।

(5) गोनेड—यह लिंग संबंधी प्रमुख ग्रंथि है। इसके ऊपर लिंग संबंधी विकास निर्भर करता है। यदि  विपरीतलिंगी रस दिया जाए तो वैसी ही प्रतिक्रिया होने लगती है। वैज्ञानिकों ने परीक्षण के तौर पर मुर्गे की गोनेड ग्रंथि का रस एक मुर्गी के शरीर में छोड़ा। कुछ ही समय बाद मुर्गी ने अंडे देना बंद कर दिया और मुर्गे की तरह बाँग देना शुरू कर दिया। लिंग-परिवर्तन के मूल कारण में इस ग्रंथि का परिवर्तन भी मुख्य होता है। जिन स्त्रियों में यह ग्रंथि अधिक विकसित होने लगती है उनमें पुरुषत्व के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।

इस तरह की शरीर में अनेकों ग्रंथियाँ होती हैं, किंतु प्रमुख ग्रंथियाँ ये ही हैं जिनके आधार पर शरीर की स्थिति निर्भर करती है।

हारमोनस्रावों के संबंध में विशेष अनुसंधानकर्ता डॉ. क्रुक शेंक ने इन्हें जादुई रेंड कहा है और बताया है कि बाहर की शारीरिक बनावट या स्थिति कैसी ही क्यों न प्रतीत हो, उनकी वास्तविक स्थिति जाननी हो तो इन स्रावों के संतुलन और क्रियाकलाप का परीक्षण करके ही यह जाना जा सकेगा कि मनुष्य का वास्तविक स्तर और व्यक्तित्व क्या है? हारमोन न केवल अंग-प्रत्यंगों की समर्थता-असमर्थता के आधार हेतु हैं, वरन व्यक्तित्व के निर्माण में भी उनका गहरा हाथ है।

मनःशास्त्री एडलर ने कामप्रवृत्ति की शोध करते हुए बड़े विलक्षण तथ्य प्राप्त किए। बाहर से अत्यधिक सुंदर, आकर्षक और कमनीयता की मूर्ति दीखते हुए भी कई महिलाओं को उन्होंने कामशक्ति से सर्वथा रहित पाया। न उनमें रमणीप्रवृत्ति थी, न नारीसुलभ उमंग। उन्हें दांपत्य स्रोलडे जैसे दुर्बलकाय खिलाड़ी, ग्लामेविजउड जैसी बोनी नर्तकी की इन विशेषताओं के रहस्य का आधार उनके हारमोन रसों में सन्निहित मिला। कितने ही अपौष्टिक आहार मिलने पर भी स्थूलकाय देखे जाते हैं और कितनों की मक्खन, मलाई का बाहुल्य रहने पर भी देह पतली ही बनी रहती है। कुछ लोग रोगों के दबाव को इतना सह लेते हैं कि जितने में सामान्यतः मृत्यु हो ही जानी चाहिए। इसके विपरीत कुछ भीतरी खोखलेपन के कारण जरा-सी अवस्था में ही बोल जाते हैं। बौनापन अथवा लंबा होना इन हारमोन रसों पर निर्भर रहता है।

मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक स्थिति में जो आकाश-पाताल जैसा अंतर पाया जाता है। उसका कारण उनका आहार-विहार, संस्कार, वातावरण, शिक्षण-संकल्प भी हो सकता है, पर अनजाने और अनचाहे प्रवाह में मनुष्य को कहीं से कहीं बहा ले जाने और कुछ से कुछ बना देने का श्रेय इस जीवन की न उमंग थी, न क्षमता। इसी प्रकार उन्होंने कितने ही युवकों को देखा जिनकी शारीरिक स्थिति मर्दानगी और वैवाहिक जीवन की आवश्यकता प्रतिपादित करती थी, पर वे वस्तुतः नपुंसक थे। न उनके मन में उमंग थी, न जननेंद्रिय में उत्तेजना। इसका कारण तलाश करने पर कामतत्त्व को प्रभावित करने वाले हारमोन रस का ही अभाव पाया गया। इसके विपरीत उन्हें ऐसे नर-नारी भी मिले जो अल्पवयस्क एवं वयोवृद्ध होते हुए भी कामपीड़ित रहते थे। शरीर से रुग्ण रहने पर भी कितने ही व्यक्ति ऐसे पाए गए जो अतिशय कामसेवन में प्रवृत्त थे। इसके बिना उन्हें असह्य बेचैनी अनुभव होती थी। इस विचित्र असंतुलन का कारण उन्हें हारमोन ग्रंथियों के स्राव में अवांछनीय हेर-फेर होना ही प्रतीत हुआ।

बीथोवन जैसे बहरे प्रखर संगीतज्ञ, डीमास्थनीज जैसे हकलाने वाले धुरंधर वक्ता, डेनियल बोर्न जैसे मंददृष्टि चित्रकार, विशेष रसस्राव की मात्रा पर ही निर्भर हैं। नर से नारी और नारी से नर बनने के जो कितने ही उदाहरण सामने आए हैं, इन लिंग-परिवर्तन की स्थिति हारमोन की गतिशीलता में मोड़ आ जाने के कारण ही, बनी बताई गई है।

स्वसंचालित नाड़ी-संस्थान की सक्रियता मनुष्य के नियंत्रण से बाहर बताई जाती है। अचेतन मस्तिष्क के क्रियाकलापों को जीवनकोषों के परंपरागत विकासक्रम से संचालित बताया जाता है। यह भी मानवी प्रयत्नों से अप्रभावित संस्थान समझा जाता है। हारमोन रसों के बारे में भी ऐसी ही मान्यता है कि उनकी न्यूनाधिकता को घटाया बढ़ाया-जाना कठिन है। प्राणिज हारमोन निकालकर उनके इंजेक्शनों द्वारा उस कमी-बेशी को संतुलित करने का प्रयत्न किया जा रहा है, पर वह उधार का अनुदान क्षणिक लाभ देकर समाप्त हो जाता है। अपने निज के हारमोनस्राव उत्तेजित या शिथिल करने में स्थायी प्रभाव उत्पन्न करने वाले उपचारों में अभी चिकित्सा विज्ञान को यत्किंचित ही सफलता मिली है। हारमोनस्राव इतने महत्त्वपूर्ण, किंतु इतने अनियंत्रित होने के कारण मनुष्य के लिए अभी भी एक पहेली बने हुए हैं।

सूक्ष्मविज्ञान वहाँ से आरंभ होता है, जहाँ स्थूल की समाप्ति होती है। भौतिक प्रयत्न जहाँ तक काम दे सकें उसी को भौतिक क्षेत्र माना जाता है। इससे आगे की परिधि को समाप्त समझ लेना उचित नहीं है। आधिभौतिक से आगे भी दो विशालकाय क्षेत्र पड़े है—आध्यात्मिक और आधिदैविक। इन क्षेत्रों में संव्याप्त विज्ञान—आधिभौतिक क्षेत्र में उपलब्ध सामर्थ्य एवं सफलता से किसी भी प्रकार कम नहीं है।

हारमोनस्राव सर्वथा स्वेच्छाचारी है, उन पर मानव चेतना का कोई अधिकार नहीं, यह मान बैठना ठीक नहीं। औषधिविद्या और शल्यक्रिया की शायद वहाँ तक पहुँच नहीं, पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि शरीर के क्षेत्र में चल रही गतिविधियों पर शरीरपति आत्मा का कोई नियंत्रण या हस्तक्षेप नहीं है। आत्मिक शक्ति बढ़ाकर हृदय जैसे यंत्र को रोक देना और फिर इच्छानुसार संचालित कर देना योगविद्या द्वारा संभव हो गया है। इसे वैज्ञानिक परीक्षणों में प्रमाणित किया जा चुका है। स्वसंचालित नाड़ी-संस्थान को मंद, बंद या तीव्र करने में प्राचीनकाल के योगाभ्यासी तो निष्णात थे ही, अब भी सिद्धांत के प्रतिपादन की दृष्टि से उसे प्रमाणित किया जा चुका है। हर हारमोन रसों में ही क्या अनोखापन है जो आत्मबल के प्रहार से उन्हें घटाया-बढ़ाया जाना संभव न हो सके।

शरीर पर सर्वतोभावेन नियंत्रण शासन-संचालन करने की क्षमता जब मनुष्य योगाभ्यास द्वारा प्राप्त कर लेगा तब हारमोन रसों जैसे अद्भुत स्रावों का सदुपयोग करके व्यक्तित्व को इच्छानुसार ढालना, बदलना, सुधारना संभव हो जाएगा। ऐसी अगणित विशेषताओं से संपन्न ग्रंथिसमूह, चक्र, उपचक्र, प्रतिविग्रह, उन्मेष, इसी शरीर में विद्यमान हैं जो हारमोन रसों में भी अधिक अद्भुत और शक्तिसंपन्न हैं। आत्मसाधना का विज्ञान अपनी ज्ञात और अज्ञात क्षमताओं के नियंत्रण और संचालन का ही विधान है। इस क्षेत्र में आगे बढ़कर हम अपनी अपूर्णता को पूर्णता में परिणत कर सकते हैं।



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