धरती बोली वृक्षों मैं तुम्हें खाद देती हूँ, पानी देती हूँ, उससे अपने आपको तृप्त करो, किसी को दो मत, पर वृक्ष ने कहा नहीं माँ मुझे देने दो। उसने फूल दिये, फल दिये, पत्ते दिये, सूख रहा था वृक्ष तब भी उसे यही कामना थी कोई आये मेरी सुखी लकड़ियाँ ले जाकर अपना काम चलाये।
समुद्र ने अपना जल प्रकाश को दे दिया, बादलों ने कहा-परिग्रह पाप हैं, संग्रह असामाजिकता है उसने अपना सारा जल धरती की गोद में बरसा दिया, वही जल फिर नदियों के रास्ते समुद्र तक जा पहुंचा समुद्र में पूर्व में जितना जल था उससे बूँदभर भी कम न हुआ, उसने कभी जाना ही नहीं अभाव क्या होता है।
गंगा हिमालय से चली तो हिमालय ने उसे बहुतेरा रोका, गंगा ने कहा मुझे लोक कल्याण के लिये जाना ही पड़ेगा, वह बह निकली प्यासी धरती, सूखी खेती और व्याकुल जीव-जन्तुओं को शीतल जल लुटाती, गंगा बढ़ी तो हिमालय का हृदय स्वतः द्रवित हो उठा उसने जल उड़ेलना शुरू किया और गंगा गंगोत्री में जितनी थी गंगा सागर में उससे सौगुनी बड़ी हो गई।
निसर्ग का अर्थ है जो निरन्तर दान करता है वही निर्बाध प्राप्त भी करता है। आज का दिया हुआ कल हजार गुणा होकर लौटता है। तिथि न गिनो, समय की प्रतीक्षा न करो, विश्वास रखो आज दोगे ता कल तुम्हें कई गुना फल मिलेगा। आज हम लोक मंगल के लिये अपनी क्षमतायें, अपनी सम्पदायें दान करदें तो कल हमारी क्षमतायें, हमारी योग्यताएं वैभव और विभूतियाँ हजार गुनी अधिक होंगी समय लगता हो तो लगे पर त्याग ही, दान ही, परोपकारार्थ उत्सर्ग ही जीवन को परिपूर्ण बनाता है।
-स्वामी रामतीर्थ