आध्यात्मिक काम विज्ञान- 5

April 1971

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नर-नारी को सामान्य सामाजिक स्तर पर अलग रहने की जरूरत नहीं है। जरूरत यौन संपर्क के सम्बन्ध में अति सतर्कता बरतने की है। मस्तिष्क के बाद जननेन्द्रिय का दूसरा स्थान है। इन दोनों केन्द्रों को शक्ति संस्थान कहना चाहिये। पृथ्वी के दो सिरे दो ध्रुव कहलाते हैं, इन ध्रुवों में अति रहस्यमय प्रकृति की शक्ति धाराओं के स्रोत बीज दबे पड़े हैं। इन्हीं के कारण यह धरती अपनी धुरी पर घूमने, सूर्य की परिक्रमा करने, लहराती चाल से चलने, महा सूर्य को अपने सौर मण्डल के साथ भ्रमण कराने में समर्थ है। ऋतु परिवर्तन से लेकर, वनस्पति उत्पादन और खनिज द्रव्यों के निर्माण तथा सारी प्रक्रियाएं उन्हीं उभय ध्रुवों में सन्निहित शक्ति बीजों के कारण सम्भव होती है। मनुष्य पिण्ड में भी पृथ्वी की ही तरह मस्तिष्क उत्तरी ध्रुव और मूलाधार दक्षिणी ध्रुव है। जीवन की चेतनात्मक बौद्धिक एवं भावनात्मक हलचलों का केन्द्र मस्तिष्क है। और शरीर में जो कुछ उत्तम, आकर्षक दिखता है उसका केन्द्र जननेंद्रिय के अन्तराल में दबा पड़ा है। यदि मस्तिष्क में विकृति आ जाये तो बुद्धिहीन व्यक्ति पागल की तरह अपने और दूसरे के लिए निरर्थक हो जायेगा। इसी प्रकार यदि मूलाधार के कामबीज विकृत हो जायें तो स्नायु मंडल से लेकर पाचन तन्त्र तक सारा कार्य-कलाप लड़खड़ा जायेगा। इसलिए इन दोनों शक्ति संस्थानों का बहुत ही समझ-बुझ कर अति दूरदर्शिता पूर्वक उपयोग किया जाता है। इस उपयोग में बरती गई भूलें बहुत ही विघातक सिद्ध होती हैं।

प्रकृति ने मस्तिष्क का बाह्य कलेवर हड्डियों के मजबूत किले के भीतर सुरक्षित रखा है। ताकि बाहरी कोई विघातक तत्व-शीत, ग्रीष्म का प्रभाव उसे प्रभावित न कर सके, भीतरी प्रभावों को ग्रहण करने और छोड़ने की गुंजाइश ही रखी गई। मनुष्य अपने चिन्तन मनन स्वाध्याय सत्संग से उसे प्रभावित कर सकता है और दिशा दे सकता है। मस्तिष्क की दिशा जिधर चल पड़ती है जीवन स्वरूप वैसा ही बना जाता है और उसी आधार पर मनुष्य उन्नति अवनति सुख-दुख के परिणाम उपलब्ध करता है। मस्तिष्क मर्म स्थल कहा गया है- उसके ब्रह्म रन्ध्र में क्षीर सागर निवासी विष्णु भगवान् विराजमान हैं इस पौराणिक अलंकार में यही रहस्य छिपा पड़ा है कि समस्त दिव्य शक्तियों, सिद्धियों और विभूतियों का केन्द्र इस मस्तिष्क को ही कहा जाता है। इसे स्वस्थ एवं समुन्नत रखने के लिए विद्याध्ययन से लेकर विचार विनियम तक हमें बहुत कुछ करना होता है। तभी इस मस्तिष्क से समुचित लाभ मिल पाता है। यदि उसे कुसंग, दुर्बुद्धि, अशुभ-चिंतन आदि से विकृत कर लिया जाये तो समझना चाहिए कि उत्कर्ष की संभावनाएं समाप्त हो गई और भविष्य को अन्धकार मय बना लिया गया।

ठीक इसी प्रकार जननेन्द्रिय का महत्व है। उसे मात्र मूल त्याग अथवा घिनौने मनोरंजन के लिये नहीं बनाया गया उसमें स्वास्थ्य संरक्षण से लेकर दीर्घ जीवन तक के सारे सूत्र बीज रूप में विद्यमान है। इसलिए इसे भी ऐसी जंघाओं की माँसल किन्तु अति कोमल परिधि के दायरे में प्रकृति ने प्रतिष्ठापित किया है। इस सुरक्षात्मक व्यवस्था के पीछे प्रकृति का यही निर्देश सन्निहित है कि इस मर्म स्थल का उपयोग अति सतर्कता और दूर-दर्शिता के साथ ही किया जाना चाहिए। उसे निम्न स्तर के क्रीड़ा-कलाप का खिलौना बना कर अपनी शारीरिक क्षमताओं पर कुठाराघात नहीं किया जाना चाहिए।

नर-नारी का सामान्य मिलन जितना ही उपयोग है उतना ही वासनात्मक संपर्क से खतरा भी है। दोनों का स्वरूप और महत्व अलग-अलग है। प्रतिबंधित, व्यक्ति सान्निध्य नहीं, यौन मिलन किया जाना चाहिए। यह ध्यान रखा जाय वासनाओं का उभार एक अलग चीज है जिसका सामाजिक नर-नारी संपर्क से कोई विशेष संबंध नहीं। पुरुष दुकानदारों के यहाँ सामान खरीदने दिन भर औरतें जाती है बात करती है। कोई विकार उत्पन्न नहीं होता न कोई किसी ओर आकर्षित होता है आकर्षण उस विशेष मनः स्थिति में उत्पन्न होता है जिसमें यौन-संपर्क की अभिलाषा भी रहती है। यदि इस भाव स्थल को पहले से ही निर्मल बना लिया जाय तो वह भले ही नवयौवन की हो, सामने वाले रूपवान पक्ष के लिए भी आकर्षण पैदा न होगा।

यह बचाव इसलिए आवश्यक है कि यौन संस्थानों में अद्भुत विद्युत धाराएं प्रवाहित करने वाला शक्ति केन्द्र विराजमान है जिसे मूलाधार चक्र कहते हैं। वस्तुतः यह नाम करण बहुत ही समझ-बुझकर किया गया है। यही शरीर के अंतर्गत काम करने वाले सारे क्रिया कलाप उत्साह, स्फूर्ति, कोमलता, आकर्षण, आरोग्य, दीर्घ-जीवन आदि का मूलभूत आधार है। इसकी अवाँछनीय छेड़खानी करने से हम काम क्षमता को एक प्रकार से नष्ट-भ्रष्ट ही कर डालते हैं।

नर में प्राणी और नारी में रयि शक्ति की प्रधानता है। उन्हें आध्यात्मिक भाषा में अग्नि और सोम कहते हैं। विज्ञान के शब्दों में इन्हें धन और ऋण विद्युत धारा पुकारते हैं। इनमें स्वभावतः आकर्षण है। एक दूसरे के समीप आकर अपनी अपूर्णता पूर्ण करना चाहते हैं। जहां तक सामान्य संपर्क का संबंध है वहाँ तक यह विनियम उपयोगी है। सभी जानते हैं कि बिना बाप या भाई की लड़की और बिना मां या बहिन का लड़का मानसिक दृष्टि से अपूर्ण अविकसित पाये जाते हैं। प्रतिपक्षी वर्ग का संपर्क व्यक्तित्व के विकास के अनेक द्वार खोलता है। एकाँकी अलग-थलग पड़ा जीवन क्रम कुँठित और मूर्छित होता चला जाता है। विधवा और विधुरों की मृत्यु संख्या रोग ग्रस्तता एवं शारीरिक दुर्बलता-विवाहितों की अपेक्षा कहीं अधिक पाई जाती है। पर्दे में रहने वाली महिलाएं हर दृष्टि से पिछड़ती चली जाती है। यह सामान्य प्रतिपक्षी संपर्क से वंचित होने का ही दुष्परिणाम है। यदि जन-संपर्क में नर-नारी जैसी बाधा उपस्थित न की जाये तो इससे व्यक्तित्वों के विकास में बाधा उत्पन्न नहीं होगी वरन् सहायता ही मिलेगी।

यदि मन में काम-विकार जाग पड़े तो प्रतिपक्षी वर्ग के साथ सामान्य संपर्क की मर्यादा तोड़कर यौन संबंध स्थापित करने की अभिलाषा होती है। दोनों विद्युत-धारायें समीप आने के लिए मचल उठती हैं और उससे सामाजिक काम-विकृति तो प्रत्यक्ष ही फैलती है। शारीरिक मानसिक गड़बड़ी भी कम नहीं उभरती। व्यभिचार के पीछे एक तथ्य तो स्पष्ट है कि सामान्य स्तर के व्यक्ति अपने दांपत्य जीवन तथा परिवार के प्रति निष्ठावान् नहीं रहते दूसरी जगह आकर्षण चला जाने से अपना परिवार उस स्नेह सौजन्य के लाभ से वंचित होने लगता है जो सामान्य तथा किसी सद्गृहस्थ के लिए आवश्यक है। परिवार व्यवस्थाएं गड़बड़ाने न लगें। गृहस्थ अपनी-अपनी धुरी पर टिके रहें, इस दृष्टि से व्यभिचार को हेय माना गया पर यह कोई अविच्छिन्न मर्यादा नहीं है। आवश्यकतानुसार इसमें हेर-फेर भी होते रहते हैं। जर्मनी में जब पिछले महायुद्ध के समय पुरुष बहुत मारे गये और नारियाँ की संख्या अधिक रह गई तो तत्कालीन स्थिति को देखते हुए एक पुरुष कई पत्नियाँ रख सके, कानून में ऐसे सुधार किये गये। सामान्यतया ईसाई देशों में एक पत्नी एक पति का ही कानून रहता है। इसी प्रकार देहरादून जिले के जौनसार वावर क्षेत्र के पहाड़ी इलाकों में यह आम रिवाज है कि भाइयों में से एक बड़े भाई का विवाह होता है जो पत्नी आती है वह सब छोटे भाइयों की भी उपपत्नी होती है। बच्चे उन जन्म दाताओं को बड़े पिताजी, मझले पिताजी, छोटे पिताजी आदि कह कर संबोधित करते हैं। वहाँ इस विवाह पद्धति को कोई न व्यभिचार कहता है न बुरा मानता है। उसका कहना है कि हम उन पाण्डवों की सन्तान हैं, जिनने एक द्रौपदी से ही पाँचों ने अपना दाम्पत्य जीवन निभा लिया था। जहाँ तक उथले स्तर पर बहुपतियों बहुपत्नियों का संबंध है वहाँ तक उसे सामाजिक स्तर का परिवार जीवन में विकृति उत्पन्न करने वाला पाप ही कहा जा सकता है। यदि कहीं ऐसी गड़बड़ न होती हो और गृहस्थ सद्भाव यथावत् बना रहता हो तो उस दोष का परिमार्जन हो जाता है जिसके कारण एक से अनेक का दांपत्य जीवन गर्हित या वर्जित घोषित किया गया है। कृष्ण ने बहुपत्नि और द्रौपदी ने बहुपति का सफल प्रयोग करके यह सिद्ध किया था कि पारिवारिक जीवन में विकृति उत्पन्न किये बिना यौन-संपर्क को विस्तृत किया जा सकता है। पर यह किसी के बस की बात नहीं। इस प्रयोग में बहुत ऊंचे या बहुत नीचे व्यक्ति ही सफल हो सकते हैं अस्तु सामान्य समाज व्यवस्था में एक पत्नी या एक पति प्रथा का ही प्रचलन है जो उचित भी है और आवश्यक है।

प्राचीन काल में नियोग प्रथा प्रचलित थी। सुयोग्य सन्तान उत्पन्न कर सकने की क्षमता से सम्पन्न न होने पर पति अपनी पत्नी के लिए अन्य उपयुक्त व्यक्ति से यौन संपर्क करने की आज्ञा देते थे और उस आधार पर जो बच्चे होते थे उन्हें सम्मानित नागरिक ही माना जाता था विचित्र वीर्य ने अपनी पत्नियों की व्यास जी द्वारा ऐसे ही नियोग की व्यवस्था की थी और उत्पन्न हुए तीनों बालक पाण्डु, धृतराष्ट्र तथा विदुर वैद्य सन्तान के सम्मान से वंचित नहीं हुए थे। आज के लोगों की मनःस्थिति दूसरी है। इसलिए प्रतिबन्ध लगाने की जरूरत पड़ी, उन दिनों व्यक्ति अधिक उदार और उत्तरदायी होते थे, नियोग की प्रथा रहने पर भी कोई अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों में गड़बड़ाता न था, उन दिनों व्यक्ति अधिक उदार और उत्तरदायी होते थे, नियोग की प्रथा रहने पर भी कोई अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों में गड़बड़ाता न था, उन दिनों की बात दूसरी थी, पर अब जब कि छोटी तबियत के लोग तनिक से आकर्षण में अपने घर बिगाड़ने लगे तो एक पत्नी या एक पति की मर्यादा ही उचित है।

नर-नारी संपर्क की अभिवृद्धि में जो खतरा है उसे समझने के लिये हमें अधिक गहराई तक विचार करना होगा। सामाजिक मान के रूप में जहाँ तक परिवार विग्रह के कारण उत्पन्न अव्यवस्था का सवाल है वहाँ यदि उच्च स्तरीय संपर्क हो तो उस संबंध में थोड़ी उपेक्षा की जा सकती है। पर इस संदर्भ में अधिक कड़ाई बरतने का अधिक महत्वपूर्ण कारण यह है कि यौन संपर्क नर-नारी की अति महत्वपूर्ण विद्युत शक्ति की एक दूसरी में अति तीव्रता पूर्वक प्रवाहित होती है। यदि वह प्रवाह उपयुक्त न हुआ तो आन्तरिक क्षमता का भयानक ह्रास और विद्रूप प्रस्तुत होता है। शक्ति का नियम यह है कि अधिक स्वल्प समर्थता की ओर भागती है, दो तालाबों को यदि एक नाली खोद कर परस्पर मिला दिया जाये तो ऊंचे लेवल का पानी नीचे लेवल के तालाब की ओर बहना आरम्भ कर देगा और वह प्रवाह तब तक चलता रहेगा जब तक कि दोनों का पानी एक लेवल पर नहीं आ जाता। एक रोगी और दूसरा निरोग व्यक्ति यदि यौन-संपर्क करेंगे तो प्रत्यक्षतः रोगी को लाभ और निरोगी को हानि होगी। एक की सामर्थ्य दूसरे में प्रवाहित होगी और नर या नारी जो भी दुर्बल होगा लाभ में रहेगा और सबल को घाटा उठाना पड़ेगा। यह बात शरीर संबंधी स्थिति पर जितनी लागू होती है। ओछे स्तर के दुष्ट, दुराचारी, व्यसनी और अनाचारी व्यक्तियों से यौन संपर्क बनाने वाला दूसरा पक्ष अपनी आत्मिक विशेषताओं को खोता चला जायगा इसी प्रकार मंदबुद्धि और प्रतिभा सम्पन्नों के बीच इस प्रकार का प्रत्यावर्तन निश्चित रूप से समर्थ पक्ष के लिए हानिकारक सिद्ध होगा।

उच्च स्तरीय प्रतिभाओं में सम्पन्न व्यक्तियों में स्वभावतः कितने ही महत्वपूर्ण चेतन तत्व भरे पड़े होते हैं उन्हीं के आधार पर उन्हें आश्चर्य जनक सफलताएं मिलती हैं। यदि उस शक्ति स्रोत को वे काम क्रीडा में खर्च करने लगे तो धीरे-धीरे अपना कोष समाप्त करते चले जायेंगे। इसलिए प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों को उच्चस्तरीय बौद्धिक अथवा मार्मिक गुण सम्पन्नों को ऐसे विनियोग करने से रोका गया ब्रह्मचर्य ऐसे लोगों के लिए अधिक आवश्यक है। घटिया शरीर स्थिति और मनः स्थिति का व्यभिचार करे तो उसे उतना घाटा नहीं है जितना मनोबल और आत्मबल सम्पन्न लोगों को इस शरीर बल की तुलना में मनोबल का मूल्य अत्यधिक है। पुष्ट शरीर और दुर्बल शरीर का यौन संपर्क स्वस्थ पक्ष को थोड़ी-सी ही शारीरिक क्षति पहुँचाता है। पर मनोबल और बुद्धिबल तो प्रत्यक्ष प्राण है वह तनिक सा अवसर पाते ही प्रचण्ड प्रवाह की तरह विद्युत गति से दौड़ पड़ता है और निम्न स्तर के पक्ष में स्थिर कर अपनी भारी हानि कर लेता है। दुर्बल मनोबल वाला पक्ष थोड़ा लाभ उठालें यह ठीक है पर उससे प्राण शक्ति सम्पन्न पक्ष अपनी प्रतिभा खोकर उस प्रयोजन को पूरा कर सकने में असमर्थ हो जाता है जो अनेक दृष्टियों से अति महत्व पूर्ण होते हैं।

विवाह वस्तुतः व्यक्ति विनियोग की दृष्टि से अतीव सतर्कता के साथ ही किये जाने चाहिये। जोड़ा ठीक हो तो ही उसकी सार्थकता है अन्यथा उससे लाभ से भी अधिक हानि की सम्भावना रहती है। भोजन पका देने या बच्चे पैदा करने का लाभ उतना महत्व का नहीं जितना कि प्राणों के प्रत्यावर्तन का। जिसका व्यक्तित्व जितना घटिया होगा, गुणा कर्म स्वभाव की दृष्टि से जिसका स्तर जितना नीचा है उसमें आन्तरिक क्षमता उतनी ही स्वल्प होगी। कई व्यक्ति शरीर से सुन्दर और पुष्ट दिखते हुए भी आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण बहुत ही दीन-हीन होते हैं। इसके विपरीत शरीर से क्षीण दिखने वालों का प्राणबल भी आन्तरिक उत्कृष्टता के कारण बहुत प्रबल रहता है। यौन संपर्क से प्रत्यावर्तन शरीरों का नहीं प्राण का होता है। शक्ति का सूक्ष्म स्वरूप बहुत प्रबल रहता है। यौन संपर्क से प्रत्यावर्तन शरीरों का नहीं प्राण का होता है। शक्ति का सूक्ष्म स्वरूप प्राण है, शरीर या कलेवर नहीं। प्राण की पुष्टि परिपक्वता केवल उत्कृष्ट व्यक्तित्वों और श्रेष्ठ प्रतिभा सम्पन्नों में ही सम्भव है, ऐसे व्यक्ति अपनी उस विभूति को क्रीड़ा कल्लोल में खर्च करके छूंछ न बन जायें और विश्व की महती सेवा कर सकने के पुण्य में वंचित न हो आयें इसलिए उन्हें अधिक सतर्कता और कठोरता के साथ ब्रह्मचर्य पालन, करने के लिए प्रतिबन्धित किया गया है।

काम-विकार आँधी, तूफान की तरह आते हैं और बिना पात्र कुपात्र का भेद किये बादलों की तरह चाहे जहाँ बरस पड़ते हैं। यदि यह संपर्क वैद्य अथवा उपयुक्त नहीं है तो इससे बहुत प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न होंगी। विवाह हो या व्यभिचार प्राण शक्ति का विनियोग समान रूप से अपना वैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करेगा। घटिया, स्तर हीन प्राण और ओछे व्यक्तियों के साथ संपर्क बनाकर न पत्नी को लाभ मिलेगा न प्रेयसी को। न पति का कल्याण है न प्रेमी का। यौन संपर्क एक प्रकार से अपनी शारीरिक मानसिक और आत्मिक पूँजी का आत्म समर्पण है। अविवेक पूर्वक, चाहे जहाँ, चाहे जिसके साथ बिना उसकी आन्तरिक स्थिति को परखे, यदि शरीर आकर्षण अथवा इंद्रिय प्रेरणा से प्रेरित होकर किये जायेंगे तो उसमें समर्थ पक्ष को बहुत तरह की बहुत गहरी क्षति उठानी पड़ेगी तनिक भी क्रीडा उसे बहुत महंगी पड़ेगी।

नर-नारी का समाज संपर्क यदि व्यभिचार तक बढ़ चले तो निस्संदेह वह बहुत हानिकारक है, इससे मनोबल उन्नत न होगा बहुत घाटे में रहेंगे, प्रतिभाएँ कुंठित होती चली जायेगी और उच्च व्यक्तियों के दुर्बल होने से समाज की भारी क्षति होगी। यों शरीर संपर्क की मर्यादा का व्यक्ति क्रम भी कम हानिकारक नहीं है। सामान्य व्यक्तियों को भी बहुत दिन बाद- यदा कदा ही काम सेवन की बात सोचनी चाहिए यदि वे आये दिन इसी मखौल में उलझे रहे और अपने ओजस् को गन्दी नालियों में बहाते रहे तो उन्हें शारीरिक रुग्णता और दुर्बलता का शिकार ही नहीं बनना पड़ेगा, बल्कि मनोबल, आत्मबल, और प्राण शक्ति की पूँजी से भी हाथ धोना पड़ेगा। काम-सेवन में जिनकी अति प्रवृत्ति है वे अपनी ही पूँजी नहीं चुकाते वरन् साथी का भी सर्वनाश करते हैं। अपने समाज में नारी की शारीरिक और मानसिक दुर्गति का एक बहुत बड़ा कारण उनके पतियों द्वारा बरती जा रही अत्याचारी रीति-नीति है जिसके कारण उन्हें विवश होकर अपने अच्छे खासे स्वास्थ्य की बर्बादी सहन करनी पड़ी, यदि संयम से गृहस्थ जीवन चलाया गया होता तो न कोई नारी बन्ध्या होती न किसी को प्रदर जैसे रोगों का शिकार बनाना पड़ता। जितनी संतान भली प्रकार पालित नहीं की जा सकती उतनी पैदा करके गृहस्थ जीवन का उद्देश्य और आनन्द नष्ट कर लेना भी यौन संपर्क की मर्यादाओं का अतिक्रमण ही है। ऐसे अविवेकी साथी को पाकर किस गृहस्थ को विवाह का आनन्द मिलेगा। यौन संपर्क की जिसमें खुली छुट है उस विवाह के करने से पूर्व ही हजार बार सोचना चाहिये, कि साथी का प्राण तत्व किस स्तर का है, उसकी विचरण भावना, गुणा, कर्म-स्वभाव, चरित्र, मनोबल, आत्मबल जैसे उच्च तत्वों की स्थिति क्या है। यदि ऐसा नहीं ढूंढ़ा गया और यों ही किसी नर तनुधारी से विवाह कर लिया गया तो उससे शरीर को क्षीण करने के अतिरिक्त और कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा।

जननेन्द्रियों का संपर्क ही काम उल्लास नहीं। वरन् उच्च भावना सम्पन्न व्यक्तित्वों का परस्पर आन्तरिक आदान-प्रदान ही वह आनन्द-प्रदान कर सकता है जिसे भौतिक जगत का सर्वोपरि सुख माना गया है और जिसकी तुलना ब्रह्मानन्द से की गई है। प्रकृति और पुरुष का संयोग ही इस सृष्टि में आनन्द और उल्लास की तरंगें प्रवाहित कर रहा है केवल उच्च स्तरीय भावनाओं से सम्पन्न नर-नारी ही एकान्त-मित्तल का वह आनन्द ले सकते हैं जो शक्ति को किसी तरह नष्ट नहीं करता वरन् आनन्द ले सकते हैं जो शक्ति को किसी तरह नष्ट नहीं करता वरन् असंख्य गुनी बढ़ा देता है, काम सेवन आमतौर से हानिकारक ही माना गया है पर उन अपवादों से लाभदायक शक्ति संवर्धक और उत्कर्ष में सहायक भी सिद्ध हो सकता है। नहीं तो उन आत्माओं का शारीरिक ही नहीं आत्मिक मिलन भी संभव होता है। पर ऐसा होता कहाँ है? ऐसे जोड़े मिलते कहाँ है? जब तब वैसी स्थिति प्राप्त ने हो केवल इन्द्रिय सुख के लिये काम-सेवन एक क्षणिक आवेश और हानिकारक कार्य ही सिद्ध होता है। इसलिए यौन संपर्क में बहुत ही सावधानी बरतने और जहाँ तक सम्भव हो ब्रह्मचर्य पालन करने की मर्यादा नियन्त्रित की गई है। वही सर्वोपयोगी भी है।


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