दायें बायें हाथ

April 1971

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जिस काम के लिए दाहिना हाथ आगे बढ़ता बाँया उससे पीछे हट जाता। बायें का काम होता तो दाहिना पीछे लौट आता दोनों में अनबन हो गई थी। मिलना तो दूर कभी बात भी नहीं करते थे।

एक दिन दोनों कहीं जा रहे थे। रास्ता पहाड़ी के समीप से गुजरता था रात तूफान आ गया था सो रास्ते भर में टूटे पेड़ों के तने और भारी-भारी पत्थर लुढ़क पड़े थे उन्हें साफ किये बिना आगे बढ़ना कठिन था।

छोटे-छोटे पत्थर तो चुनकर फेंक दिये। छोटे-छोटे डाले थीं उन्हें भी मार्ग से हटा दिया पर आगे पड़ी थी भारी भरकम पत्थरों की शृंखला। दाहिना हाथ आगे बढ़ा उसने अपनी सारी ताकत झोंक दी पर पत्थर टस से मस न हुआ। बायां हाथ चुपचाप यह दृश्य देखता खड़ा मुस्कराता रहा। पर उससे इतना भी न हुआ कि अपने भाई को थोड़ा सहयोग तो देता। भाई थककर चकनाचूर हो गया।

जब दाहिने हाथ के बस की बात न रही तब बायाँ हाथ आगे बढ़ा। झपट देखने योग्य थी। बायें हाथ महोदय ने सारा जोर पहली बार ही झोंक दिया पत्थर तो अपने स्थान से नहीं हटा, हाँ बायाँ हाथ फिसल और गया बच गया नहीं तो हड्डी टूट जाती।

मस्तिष्क अब तक खड़ा चुपचाप तमाशा देख रहा था अब उससे रहा न गया उसने कहा-मूर्खों तुम भी लगता है मनुष्य जाति की तरह हिम-मिलकर काम करना भूल गये तभी तो यह जरा-सा-पत्थर का टुकड़ा भी उठा पाने में समर्थ नहीं हो रहे।

हाथों को अपने अज्ञान पर बड़ा पश्चाताप हुआ। उस दिन से मनोमालिन्य त्याग कर दिनों साथ-साथ काम करने लगे।

अपने पैरों पर खड़े हो किसी चिड़िया ने चोंच में दबाकर पीपल का एक बीज नीम के तने में डाल दिया। वहाँ थोड़ी मिट्टी, थोड़ी नमी थी बीज उग आया और धीरे-धीरे उस वृक्ष में ही आश्रय लेकर बढ़ने लगा।

प्रारम्भ में तो लगा कि यह पौधा प्रगति कर रहा है पर शीघ्र ही पता चल गया कि उसका आविर्भाव तो परावलंबी है दूसरों की कृपा सीमित ही हो सकती है। सो सीमित साधनों में पेड़ भी थोड़ा ही बढ़ पाया। न जड़ों को विकास के लिये स्थान मिला न डालों को फैलने के लिए सो वह छाती का पीपल थोड़ा ही बढ़कर रह गया।

एक दिन उसने बड़े वृक्ष को डाँटते हुए कहा- दृष्ट तू स्वयत् तो आकाश छूने जा रहे है और मुझे थोड़ा भी बढ़ने नहीं देता। अब तूने शीघ्र ही मुझे विकास के और साधन न दिये तो तेरा सत्यानाश कर दूँगा।

नीम के वृक्ष ने समझाया-मित्र औरों की दया पर पलने वाले इतना ही विकास कर सकते हैं, जितना तुमने किया है। उससे अधिक करना हो तो नीचे उतरो और अपनी नींव आप बनाओ, अपने पैरों पर आप खड़े हो।

पौधे से वह तो नहीं बना हाँ वह वृक्ष को कोसने से बाज नहीं आया। नीम वृक्ष को इतनी फुरसत कहाँ थी जो पीपल के पौधे-की गली गलौज सुनता।

एक दिन हलकी-सी आँधी आई। नीम का वृक्ष थोड़ा ही हिला था पर जब नींव ही कमजोर थी तो रोकता कौन पीपल का पौधा धराशायी होकर मिट्टी चाटने लगा।

उधर से एक राहगीर निकला- उसने एकबार नीम के वृक्ष की और देखा दूसरी बार पीपल की ओर-धीरे से उसने कहा जो औरों के आश्रय में बढ़ने की आशा करते हैं उनकी अन्त गति यही होती है।


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