पूर्णता-प्राप्ति

April 1971

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मधु ऋतु की शीतलता थी किन्तु सिद्धार्थ का अन्तस्तल तवे की भाँति संतप्त हो रहा था। नेंरजरा का जल प्रवाह जितना अवपल था, योगी की मनःस्थिति उतनी ही चंचल। शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा कृष्ण पक्ष में प्रवेश कर गया किन्तु तथागत के शरीर में अन्न का एक कण भी नहीं गया था, शरीर सूख कर काँटा हो गया था। वासनायें शान्त थी तथापि अंतःकरण जिस परिपूर्णता को प्राप्त करना चाहता था वह प्रयत्न करने पर भी प्राप्त न हुई।

उरुवेला के नगर श्रेष्ठि की पुत्र-वधु सुजाता ने बहुत पहले निश्चय किया था जिस दिन वह प्रथम बार मातृत्व का सुख प्राप्त करेगी उस दिन वह वट-सावित्री का पूजन सम्पन्न कर परम संस्कारित भोजन से साधुजनों को भोज देगी। सुजाता ने पहली बार अनुभव किया उसकी पावन कोख में कोई आत्मा आई है, वह माँ बनेगी। कितनी प्रसन्नता हुई थी उस दिन उसे, उमड़ती भावनाओं के साथ आज वह स्वयं ही लत्यि मधुवन गई। गोठ में एक सहस्र गौओं को सुजाता ने अपने हाथ से हरित तृण परोसा। एक-एक गाय के पास जाकर उसने मातृ सुलभ स्नेह से उनको चूमा चाटा गले लगाया। गौओं ने सुजाता का स्नेह पाकर अपने रोयें फाड़ दिये। उनमें मातृत्व को स्नेह दुग्ध बन कर स्तनों में उतर आया। सुजाता ने आज्ञा दी एक सहस्र गौओं का दूध काढ़ लिया गया और वह सारा दूध पाँच सौ सर्वस्व, सीधी गायों को पिला दिया गया। फिर उन पाँच सौ गायों का दूध निकाल कर ढाई सौ गायों को पिलाया गया। ढाई सौ गायों से निकाला गया दूध सौ गायों ने पिया। दूध की मधुरता के साथ ही उसमें मातृत्व के संस्कारों की अभिवृद्धि होती गई। उसमें सुसंस्कार भी घुलते और प्रखर होते चले गये। सौ गायों का दूध पचास ने पिया, पचास का दूध पच्चीस ने पच्चीस गौओं का दूध पाँच ने पिया। पाँच गौओं का दूध कामधेनु को पिलाते हुए सुजाता ने भारतीय बच्चों में श्रेष्ठ संस्कारों की कामना की। फिर उसने स्वयं हो कामधेनु का दुग्ध शुद्ध स्वर्ण पात्र में निकाला, सुजाता की भावनायें भी उस दुग्ध को परम पवित्र बना रही थीं, मातृत्व की पवित्रता से बढ़कर शुचिता संसार में है कहाँ आज तो माताओं के संस्कार एकाकार हुये थे।

वह दूध लेकर सुजाता घर आई। उसे स्वर्ण-कड़ाही पर चढ़ाया गया। सम्मुख घृत, दीप रखकर आम के ईंधन से सुजाता से खीर पकाई। दूध का एक कण भी नीचे नहीं गिरने दिया। अग्नि देव की स्तुति करते हुये सुजाता ने खीर उतारी और उसका प्रथम नैवेद्य भगवान् जातवेद को ही समर्पित किया। गंगाजल से अर्घ्य देकर उसने पीत-वस्त्र धारण किये। स्वर्ण थाल में वह खीर और पूजन की सामग्री लेकर सुजाता नेरंजरा के तट की ओर चल पड़ी।

योगी सिद्धार्थ अब भी समाधि अवस्था में जाने के प्रयास में संलग्न थे पर उन्हें सफलता नहीं ही मिल पाई थी। सुजाता उधर से ही निकली उसने देखा योगी की देह सूख गई। आकृति पहचानी-सी लगी उसे याद आया यशोधरा का पाणिग्रहण। सिद्धार्थ के साथ यशोधरा ब्याही गई तब सुजाता उसी के पास थी। सिद्धार्थ को सामने देखकर सुजाता के हृदय में यशोधरा की स्मृति और उसके प्रति अनन्य करुणा के भाव एक साथ उमड़ पड़े। थाल वही रखकर उसने सिद्धार्थ को विनत प्रणाम किया और कहा तात! शरीर वीणा के समान है वीणा के तार इतना ढीला न करो कि वह स्वर ही न दे और इतना कसो भी मत कि तार ही टूट जायें। शरीर परमात्मा का मंदिर है इसे पवित्र रखना चाहिये अन्त नहीं करना चाहिये। यह कह कर सुजाता ने वह खीर तथागत के आगे बढ़ा दी। योगी ने मातृत्व भरी सुजाता की आँखों की और दृष्टि डाली निश्छल करुणा देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नेरंजरा के तट पर जाकर खीर खाई, जल पिया, क्लान्ति मिट गई, वे पुनः समाधि के लिये बैठे, अस्थिरता न जाने कहाँ चली गई। समाधि लगी तो फिर उनचासवें दिन तब टूटी जब सिद्धार्थ बुद्ध हो गये, बुद्ध भगवान् हो गये।


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