कवि इकबाल को अरबी, फारसी का विद्वान बनाने का श्रेय उनके गुरु मौलवी मीरहसन को था। इकबाल में शायरी के प्रति रुचि जागृत करने वाले भी यही मौलवी साहब थे। अतः अपने गुरु के प्रति इकबाल जीवन भर श्रद्धा व्यक्त करते रहे।
एकबार अंग्रेजी सरकार ने प्रसन्न होकर इकबाल को ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित किया। इकबाल ने वह उपाधि लेने से इन्कार करते हुए कहा- ‘जब तक मेरे गुरु का सम्मान नहीं किया जाता जब तक मैं किसी भी उपाधि को ग्रहण काने का अधिकारी नहीं हूँ क्योंकि आज की स्थिति तक पहुँचाने वाले तो मेरे गुरु ही हैं।
इकबाल की शर्त मंजूर कर ली गई। पहले उनके उस्ताद मीरहसन को ‘शम्म-उल-उलेमा’ का खिताब दिया गया और बाद को इकबाल ने उपाधि ग्रहण की।
आज जब शिष्यों द्वारा गुरुओं का घेराव किया जा रहा हो और उनकी बात को उपहास के रूप में माना जा रहा हो तो उस समय यह घटना प्रकाश की एक किरण के समान दोनों को ही अपने सम्बन्ध सुधारने के लिए प्रेरणा प्रदान कर रही है।