कर्मण गहनोगतिः

April 1971

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ब्रह्म सन्ध्या सम्पन्न कर आचार्य ज्योतिपाद उठे ही थे कि आत्मदेव ने उनके चरण पकड़ लिये। ब्राह्मण अत्यन्त अनन्त शब्दों में बोला- आचार्य प्रवर- एक सन्तान की इच्छा से आपके पास आया हूँ आप सर्व समर्थ हैं मुझे एक सन्तान हो जाती है तो आपका जीवन भर ऋणी रहूँगा।

ज्योतिपाद ने एक क्षण के लिए दृष्टि ऊपर उठाई, उनकी आत्मा कोई सत्य पाना चाहती हो- दूसरे ही क्षण वे बोले आत्मदेव! सन्तान से सुख की कामना करना व्यर्थ है, मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार सुख-दुःख पाता है, सन्तान तो अपने आप में ही एक कर्त्तव्य भार है उसके हो जाने से दाम्पत्य प्रेम कम हो जाने से लेकर संसार के निर्द्वंद्व विचरण का सारा आनन्द हो समाप्त हो जाता है। तुम व्यर्थ ही इस झंझट में मत पड़ो।

कहते हैं आसक्त के लिये संसार में कोई उपदेश नहीं आत्मदेव को कोई बात समझ में नहीं आई वह मात्र सन्तान की ही कामना करता रहा। तब आचार्य ज्योतिपाद ने दूसरे ढंग से समझाया-तात! तुम्हारे भाग्य में सन्तान है नहीं। जिसने पूर्व जन्म में गुरु-वरण नहीं किया, जिसने अपनी सम्पत्ति लोक सेवा और दीन दुखियों की सहायतार्थ दान नहीं की वह इस जीवन में सन्तान हीन होता है। तात! पूर्व जन्म की कृपणता का पाप ही आज तुम्हारे लिये सौभाग्य विमुख बना। नीति कहती है जाओ और अपनी शक्तियों, सम्पत्ति और सामर्थ्यं लोक सेवा में नियोजित करो, अब तुम्हारी अवस्था बहुत अधिक हो गई है सन्तान का कोई औचित्य भी नहीं रहा यह आयु पुनर्जन्म की तैयारी की है सो अब तुम अपना समय आत्म कल्याण में लगाओ।

आत्मदेव की समझ में फिर भी न आया। उसने कहा- महात्मन्! आज या तो आपसे पुत्र लेकर लौटूँगा अन्यथा यहीं आपके ही सम्मुख आत्मदाह कर दूंगा। उसके इस प्रकार कहने पर आचार्य ज्योतिपाद ने हँसकर कहा-ब्राह्मण! तुम्हें जो नहीं सोचना चाहिए वहाँ तक सोच गये तात! तुम्हारे लिये किसी और का पुण्य छीनना पड़ेगा श्रेष्ठ आत्मा का दान कोई करेगा क्यों, ऐसे में तो केवल अपवित्र आत्मायें ही हाथ लगती हैं चलो विधाता की इच्छा ऐसी ही है तो लो यह फल अपनी भार्या को खिलाना, पुत्र तो तुम्हारे भाग्य में है नहीं फिर भी तुम्हारी इच्छा भगवान् पूर्ण करेंगे। अपनी धर्म पत्नी से कहना वह एक वर्ष तक नितान्त पवित्र रहकर कुछ दान करे।

आत्मदेव, महर्षि के रहस्यमय वचन सुनकर भी कुछ समझ न सका, खुशी-खुशी घर आया, फल उसने अपनी पत्नी धुन्धली को दे दिया। सारी बातें समझा दीं। धुन्धुली ने सोचा- पवित्रता मुझसे बन नहीं पड़ेगी, अपनी सम्पत्ति औरों को क्यों दान करूं उसने वह फल अपनी गाय को खिला दिया और समय पर अपनी बहन का पुत्र गोद लेकर घोषणा करदी मुझे पुत्र हुआ है। ब्राह्मण समाचार पाकर फूला न समाया। पुत्र का नमा धुन्धुकारी रखा गया। यथा नाम तथा गुण। धुन्धुकारी बाल्यावस्था से ही दुराचारी निकला, उसने पिता को सारी सम्पत्ति, माँस, मद्यपान, जुआ, और वेश्यावृत्ति में नष्ट करदी। माता-पिता कुढ़ कर मर गये। धुन्धकारी भी अकाल ही काल−कलवित हो गया।

फल जिस गाय को दिया था उससे एक सुन्दर आत्मज्ञानी पुत्र पैदा हुआ- गोकर्ण। गोकर्ण पशुयोनि से जन्मे होने पर भी अध्यात्म विद्या के प्रभाव से महान् ज्ञानी और धर्मात्मा हुये। एक रात वे सो रहे थे- तब धुन्धकारी जो प्रेतयोनि में पड़ा हुआ था- बोला- भैया आप ही मेरा उद्धार करें। गोकर्ण ने कहा-तात! मैंने तुम्हारी गयाश्राद्ध करदी फिर भी तुम मुक्त न हुये। धुन्धुकारी बोला-बन्धुवर! मनुष्य को स्वर्ग या मुक्ति अपने ही कर्म से मिलती है जब तक मुझे अपने दुष्कर्मों का दण्ड नहीं मिल जाता मुक्ति सम्भव नहीं। आप तो मुझे अध्यात्म ज्ञान दीजिये जिससे मैं अपना अगला जीवन सुधार सकूँ। गोकर्ण ने तब उसे भागवत् कथा के माध्यम से आत्म तत्व का ज्ञान कराया अन्त में यह ज्ञान ही धुन्धुकारी के आत्म कल्याण का मार्गदर्शक बना।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118