गर न हुई दिल में मए इश्क की मस्ती

April 1971

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पत्नी का मन ही मान रहा था, वह कहने लगी मुझे धन रुपया पैसा कुछ नहीं चाहिये तुम बने रहो तो मुझे सब कुछ है, चलो भावुकता ही सही पर मेरा मन आज न जाने क्यों विचलित हो रहा है, किसी अज्ञात अनिष्ट के से भाव उछल रहे हैं, आज तुम काम पर मत जाओ पति ने- प्रेयसी पत्नी के कोमल बालों को हाथ का मधुर स्पर्श देकर कहा-लिली! प्रेम जीवन की अमूल्य सम्पत्ति, अन्तिम आनन्द तो है पर उसे स्थायी सौंदर्य प्रदान करने के लिये सक्रियता भी आवश्यक है तुम मेरे लिये दिन भर कितना परिश्रम करती हो, तुम्हारे श्रम के साथ जुड़े प्यार-भाव को क्या मैं भुलाता हूँ पर मुझे भी तो अपना कर्त्तव्य पालन करना चाहिये, मुझे भी तो अपने अन्तःकरण के प्रेमभाव को विकसित करने का अधिकार मिलना चाहिये। तुम किसी बात की आशंका न करो हम दमिश्क होकर पन्द्रह दिन में ही लौट आयेंगे। कप्तान हबेर्ट ने इतना कहकर दाहिना हाथ ऊपर उठाया, अलविदा की और वहाँ से चल पड़ा लिली दरवाजे पर खड़ी हबेर्ट को जाते हुये तब तक देखती रही जब तक वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गया।

नाविक हबेर्ट के जीवन की यह प्रेम गाथा काल्पनिक नहीं उसके जीवन की महान् साधना थी जिसे इन पति पत्नी ने सत्तर वर्ष की आयु तक सम्पूर्ण अन्तः कारण से निबाहा। हबेर्ट लिखते हैं- हम दोनों ने जीवन में काम-भावना या यौन आकर्षण को कभी भी महत्त्व नहीं दिया। जिस तरह दो प्रेमी रहते हैं विवाह के बाद से हम दोनों ठीक वैसी ही रहे और इस संसार में आने का भरपूर आनन्द लेते रहे। मेरी दृष्टि में प्रेम से बड़ी निधि व सम्पत्ति इस संसार में दूसरी नहीं, हम दोनों की एक ही इच्छा थी कि हम एक ही दिन मरें (ऐसा ही हुआ भी) और जब भी कभी संसार में आयें कभी एक दूसरे से अलग न हों।

ईश्वरीय विधान भी प्रेम के आगे नतमस्तक है। हबेर्ट वहाँ से चलकर सीधे आफिस पहुँचा, आवश्यक कागज-पत्र लेकर जहाज पर चढ़ा। जहाज दमिश्क के लिये चल पड़ा। अभी यात्रा एक दिन की भी पूरी नहीं हो सकी थी, रात का समय, नीख स्तब्धता, घोर अन्धकार- सब मिलकर यह बता रहे थे कुछ अनहोनी होने वाली है। सचमुच आधा घण्टा बीते समुद्री तूफान आ गया, एक घण्टे के इस तूफान ने जहाज को चरमरा कर रख दिया। हबेर्ट को आज्ञा मिली जहाज के ऊपर जाकर उसके पाल को तूफान की दिशा में मोड़ने की। ताकि उसे तूफान के विपरीत आघात से बचाया जा सके किन्तु ऊपर जाने का अर्थ- मृत्यु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था-हबेर्ट सतह पर चढ़ना ही चाहता था कि कोई आकृति सामने आकर रास्ता रोक कर खड़ी हो गई, हबेर्ट आगे नहीं बढ़ सका एक काली छाया इस छाया से ही निकली और ऊपर चढ़ गई, पाल की दिशा बदल गई, जहाज विपरीत दिशा में चल पड़ा, वह आकृति फिर हबेर्ट के पास आकर बोली मैं तुम्हारी लिली हूँ, हबेर्ट तुम मुझसे झूठ ही कह रहे थे क्योंकि मैं सकुशल लौट आऊँगा-हबेर्ट विमोहित सा लिली के स्पर्श के आगे बढ़ता तब तक वह आकृति अदृश्य हो गई। जहाज का आफीसर हैरान था यह देखकर कि पाल की दिशा बदल गई, और हबेर्ट भीगा भी नहीं। उसे कौन समझाता कि प्रेम रूप आता और सिद्धि एक ही वस्तु के दो नाम है। लिली उस समय निद्रा में थी, पर अन्तः करण अपने प्रिय पति के पास था और वह अदृश्य, अस्पर्श होकर भी इतना शक्तिशाली था कि उतने भयंकर तूफान से भी हँसकर टक्कर ले सकता था। हबेर्ट लौटा तो बोला- लिली तुम मुझे फिर लोटा आई।

अपंग भिखारी दिन भर भूखा-प्यासा गाँव की ओर बढ़ रहा था तो वर्षा प्रारम्भ हो गई। बात गोरखपुर जिले सिसवाँ बाजार के समीप एक गाँव की है। पास में ही एक मन्दिर था वर्षा के कारण दूर तक पहुँचना सम्भव न था, अपंग भिखारी का घर तो वहाँ से दूर चम्पारन जिले के नरईपुर गाँव में हैं। किसी तरह घिसटता हुआ मन्दिर तक पहुँचा। रात वहीं बिताने के अतिरिक्त कोई उपाय न था।

मनुष्य अकेला हो तो भावनायें भावनाओं से बात करती है। सामने खड़ी देव-प्रतिमा की ओर देखा आँखों ने, तर्क मन ने किया- भगवान् कैसी है तुम्हारी सृष्टि किसी के पास अच्छे स्वस्थ पाँव भी होते हैं और ऊपर से घोड़ागाड़ी मोटर, हाथी आदि वाहन भी और किसी को वाहन तो दूर पाँव भी नहीं देते, तुम्हारे माया बड़ी विलक्षण है।

अन्तः करण की श्रद्धा बोली- इसमें भगवान् क्या दोष- बावले यह तो सब कर्मफल है, जिसने किया तप, सम्पन्न की साधना, किया जिसने पुरुषार्थ, वैभव तो उसे मिलना ही था पर जो पड़ा रहा पाप-पंक में दूसरों को कष्ट देकर अहंकार की आत्म-प्रवंचना में वह दीन-दरिद्र रह गया तो इसमें भगवान् का क्या दोष?

दुःखी मन में विचार उठा-प्रभु-आखिर हम भी तो आपकी ही सन्तान है, अज्ञानवश आपको छोड़ दें तो क्या आपको भी छोड़ देना चाहियें, आप तो संसार का पालन करने वाले सबके रक्षक हैं आप तो सर्व समर्थ हैं प्रभु! पाप के बोझ से बचाकर सत्मार्ग की दिशा आप ही तो देते हैं?

ऐसे-ऐसे सोचते हुए अपंग के अन्तःकरण में भगवान के प्रति अनन्य भक्ति अपूर्व प्रेमी की स्फुरण आलोकित हो उठी हृदय विह्वल हो उठा, आँखें झर-भर झरने लगीं वाह्य चेतना शून्य सी हो चली लगता था चिरकाल से दिग्भ्रमित आत्मा को अपना परमधाम मिल गया है अपंग को नींद आ गई उसे लगा जैसे वह अगाध ज्योति सागर में खो गया है, अब वह प्रकाश के अतिरिक्त कुछ शेष ही नहीं रहा। भोर की ऊषा ने अपंग को आकर जगाया तो वह विस्मय विस्फारित नेत्रों से देखता रह गया कि उसकी अपंगता एक स्वस्थ, सुदृढ़ शरीर में परिवर्तित हो गई है।

दो घटनायें एक लौकिक प्रेम की एक आध्यात्मिक प्रेम-की प्रेम एक ही है रूप भिन्न है भिन्नता में भी एक जैसा सुख एक जैसी तृप्ति एक जैसी सिद्धि देखकर ही किसी शायर ने लिखा है।

गर न हुई दिल में मये इश्क की मस्ती। फिर क्या दुनियादारी, क्या खुदा परस्ती॥

अगर हृदय में प्रेम की मस्ती न हो तो चाहे साँसारिक जीवन हो अथवा ईश्वर प्राप्ति का आध्यात्मिक मार्ग- कोई आनन्द नहीं आता। ‘आनन्द का मूल स्रोत प्रेम है। प्रेम के बिना सारा संसार ही नीरस हो जाता है। निष्क्रिय हो जाता है प्रकृति की रचना प्रेम का आनन्द लेने के लिये ही हुई है। यदि संसार में एक ही तत्व बना रहता तो तालाब में भरे जल, और चन्द्रमा की मिट्टी की तरह संसार में न तो कोई सक्रियता होती और न चेष्टायें, विविधा सृष्टि रचकर परमात्मा ने प्रेम को ही प्रवाहित किया है। मनुष्य जीवन का तो यह सबसे बड़ा सौभाग्य है वह अपनी प्रेम भावनाओं का विकास करके अत्यन्त उल्लास उत्साह, उमंग, क्रियाशीलता, आल्हाद, मैत्री सेवा, सहयोग का जीवन जीता है। ईश्वर की आत्मा की प्राप्ति कोई नई बात नहीं है वह अहर्निश प्रेम भावनाओं में डूबी अन्तर्दशा का ही दूसरा नाम है।


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