अवस्ती में एक वणिक रहता था। उसके एक रूपवती कन्या थी। उसका नाम था पट्टाचारा। पट्टाचारा बड़ी हुई तो माता-पिता विवाह की चिन्ता करने लगे। किन्तु पट्टाचारा स्वास्थ्य और सौंदर्य के आकर्षण में पड़कर अपने पड़ोसी युवक से प्रेम करने लगे। उसने अपना विवाह उसी से करने को कहा तो पिता ने समझाया-बेटा! यौवन और सौंदर्य के आकर्षण को प्रेम नहीं कहते। प्रेम तो कर्त्तव्य-पालन को त्याग और सेवा की साधना है। ऐसी साधना समझ से की जाती है आवेश से नहीं।
पिता ने सब तरह समझाया, वह अच्छे सम्बन्ध की तलाश में भी निकल पड़ा पर वासना के आकर्षण के आगे विवेक की टिकती कहाँ है। जहाँ विवेक नहीं वहाँ आस्था नहीं-जहाँ आस्था नहीं वहाँ धैर्य न रहना स्वाभाविक ही था। पट्टाचारा ने अपने प्रेमी से सलाह की और एक रात दोनों घर से भाग निकले जब तक उसका पिता घर पहुँचे तब तक तो वह कही और जा बसी।
जहाँ केवल सौंदर्य ही आकर्षण हो, जहाँ युवक अपने माता-पिता पर आस्था न रखते हों, जिन उठती उम्रों में विवेक न हो उनका पथ-भ्रष्ट होना और वासना का शिकार बनना मनुष्य जीवन का स्वाभाविक सत्य है। कुटुम्ब के अनुशासन से मुक्त हो जाने और किसी प्रकार का बन्धन न रह जाने पर एक दूसरे के यौवन के प्रति ही कर्त्तव्य शेष रह गया। पट्टाचारा के जीवन में एकबार वासना ने प्रवेश किया तो उसे उसी में स्वर्गीय सुखों की अनुभूति हुई, उस अभागिन को क्या पता था कि वासना का सुख यौवन और स्वास्थ्य तक ही सीमित है। निचोड़े हुये आम की तरह शरीर के ओज नष्ट हो चला तो प्रेम की वह मस्ती, वह उमंग जो कभी पहले थी वह समाप्त हो गई पति-पत्नी एक दूसरे को सन्देह की दृष्टि से देखने लगे।
पट्टाचारा गर्भवती हुई उसने एक पुत्र को जन्म दिया। शरीर का सौंदर्य पहले ही कम हो गया था अब जबकि उसके एक और आत्मा आ गई तो उसका भी ध्यान पति की ओर से हटाना स्वाभाविक था, मिलने वे अब भी थे पर कामवासना की तृप्ति के लिये। निदान पट्टाचार शीघ्र ही पुनः गर्भवती हो गई। उसका शरीर भारी रहने लगा। आलस्य सताने लगा। आलस्य और शिथिलता की जो बातें संयुक्त परिवार में छिपी रहती हैं पति-पत्नी एक दूसरे के साथ कर्त्तव्य बन्धन में बँधे रहते हैं वह यहाँ कहाँ सम्भव था। चित्त की बेचैनी ने माँ-बाप और कुटुम्बियों को याद किया। पट्टाचारा घर चलने का आग्रह करने लगी, प्रेमी पति उसके लिये राजी न हो रहा था, उसको चरित्र भ्रष्टता का भय सता रहा था पर जब पट्टाचारा ने बहुत जोर दिया तो वह उसने बात मान ली। और श्रावस्ती की ओर चल पड़ा।
अभी कुछ ही दूर चले थे कि पट्टाचारा के पेट में प्रसव पीड़ा उठ खड़ी हुई। पति ने किसी तरह एक पर्ण कुटिया बनाली, वह जैसे ही जली के लिये बाहर निकला उसे सर्प ने डस लिया। पट्टाचारा इधर पुत्र को जन्म दे रही थी उधर पति मर रहा था। बहुत रोई पर हो क्या सकता था। अपने दोनों बच्चों को लेकर वह घर की ओर चल पड़ी। रास्ते में नदी पड़ती थी उसे पार करना कठिन था। आखिर पट्टाचारा ने एक-एक बच्चे को पार उतारने का निश्चय किया। एक बच्चे को उस पार छोड़कर जैसे ही वह लौटी उसने देखा उसके दूसरे नवजात बच्चे को भेड़िया दबोचकर लिये जा रहा है। वह चिल्लाई- उसके रुदन की आवाज सुनकर इधर खड़े बच्चे ने समझा माँ उसे बुला रही है सो वह भी नदी में कूद पड़ा और नदी की तीव्र धारा में बह गया। पट्टाचारा यह सब आघात सहन न कर सकी और खुद भी पागल हो गई।
यह समाचार भगवान् बुद्ध को एक ग्रामीण ने दिया तो वह कुछ क्षण, मौन रहकर भिक्षुओं! की ओर देखकर बोले जीवन में जो लोग विवेक का आश्रय छोड़ देते हैं, उनकी यही गति होती है।