भावातिरेकता बढ़ने न दें

April 1971

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भावुकता जहाँ एक गुणा है वहाँ भावातिरेकता एक कमजोरी है। यदि आप अपने को भावुक अथवा संवेदनशील समझते हैं, वहाँ पर यह अवश्य देख समझ लें कि जिसे आप अपनी भावुकता मान रहे हैं वह भावातिरेकता का दोष तो नहीं है। यह दोष आपको बड़ा सूक्ष्म निरीक्षण करने पर ही पता चल पायेगा, क्योंकि अपना दोष अपने को जल्दी दृष्टिगोचर नहीं होता, और अपनी वह कमी तो एक प्रकार से पता ही नहीं चल पाती जो गुण के घाट नहाती हुई अपना मिश्रित अस्तित्व स्थापित करती है।

भावुकता एक विशेषता है। यह मनुष्य को लेखक, चित्रकार, विचारक, कवि, दूरदर्शी, कल्पनाशील, सहानुभूति प्रदान करती है। जो लेखक अथवा कवि जितना अधिक भावुक होता है उसके लेख अथवा कवितायें उतनी ही अधिक मार्मिक तथा प्रेरक होती हैं। इस गुण से सम्पन्न चित्रकार का आलेखन अधिक आकर्षक तथा लोक प्रिय होता है। भावुक भक्त ही भगवान् का दर्शन जल्दी पाता है। भावुक व्यक्ति की सहानुभूति जल्दी ही दूसरों को अभिभूत कर लेती है। भावुक वक्ता तो अपने श्रोताओं को अपने शब्दों के साथ रुलाता भी चलता है। सच्ची भावुकता भगवान का प्रसाद ही है जोकि मनुष्य को देवत्व को ओर बहुत दूर तक बढ़ देता है। किन्तु जब यह गुण अपनी वाँछित सीमा पर पार निकल कर भावातिरेकता में बदल जाता है तब दोष बन जाता है।

भावातिरेकी जल्दी ही किसी बात व्यक्ति अथवा घटना से प्रभावित हो जाता है। एक साधारण सी भी मनोनुकूल बात से इतनी प्रभावित हो जाता है मानो वह सुनी हुई बात उसके हृदय से ही निकली हो। जल्दी ही किसी व्यक्ति की चिकनी चुपड़ी बातों में आकर अनायास ही विश्वास कर लेता है। उसके सामने हृदय खोल कर रख देता है और आत्मीयता का सम्बन्ध स्थापित करते देर नहीं लगाता है।

आत्मीयता अच्छी बात है, विश्वास बुरी चीज नहीं है। तथापि यह दोनों वस्तुयें काफी मूल्यवान् है और यों ही गली कूँचे लुटाने बरसाने वाली चीजें नहीं है। यह मानवीय रत्न उन्हीं सत्पात्रों को सौंपना चाहिये जो वास्तव में इसके योग्य हों। यह संसार सदैव से बड़ा विचित्र रहा है, और आज तो और भी विचित्र हो गया है। इसमें विश्वास तथा आत्मीयता का शोषण करने की कला बहुत बढ़ गई है। लोग विश्वास पाकर ही धोखा देते हैं, आत्मीयता जगाकर ही उल्लू सीधा करते हैं। कमजोरी पकड़ कर ही लाभ उठाते हैं। भावातिरेकी पात्र कुपात्र देखे बिना ही, उनको जाँचे और परखे बिना अपनी दुर्बलता के कारण ही अपने यह बहुमूल्य रत्न किसी को भी सौंप देते हैं। जिसके फलस्वरूप कटु अनुभव के बाद खिन्नता तथा पश्चाताप के भागी बनते हैं।

इसके विपरीत भी भावातिरेकी जिसके प्रति घृणा अथवा द्वेष की भावना बना लेता है फिर उसे जल्दी बदलता ही नहीं। उसके लिये वह भाव किसी भ्रम अथवा भूल से ही क्यों न बन गया हो। अपने उस द्वेष अथवा घृणा पात्र के प्रति उसका विरोध इस सीमा तक बढ़ जाता है कि उसकी चर्चा, उसका नाम तक विष की तरह अखरने लगता है, और यहाँ तक कि जहाँ उसकी चर्चा होती है वहाँ या तो ठहरता ही नहीं अथवा चर्चा करने वाले से भी घृणा करने लगता है।

भावातिरेकी हर बात को बहुत बढ़ा चढ़ाकर देखता है। तनिक सी कठिनाई, जरा सी अप्रियता अथवा साधारण सी प्रतिकूलता आने पर वह इतना वेदना विभोर हो उठता है मानों संसार का सारा कष्ट, क्लेश उन्हीं पर आ टूटा हो। दिन रात चिन्ता तथा कुण्ठा में गला करता है। अभाव की एक अभिव्यक्ति पर ही इतना तड़प उठता है कि संसार का निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी उसे अपने से सुखी तथा सम्पन्न दिखता है। आपत्ति का एक झोंक उन्हें सूखे पत्ते की तरह उड़ा देता है और वे निराशा के अन्धकार में आकण्ड मग्न हो जाते हैं। सारा संसार उन्हें सूना और जिन्दगी नीरस तथा निःसार दिखने लगती है।

भावातिरेक के वशीभूत होकर कोई विद्यार्थी परीक्षा में असफल होने पर आत्महत्या तक कर लेता है। अपनी इस अनुचित भाव प्रखरता के कारण वह इतना कल्पक बन जाता है कि उसे अपने साथी हँसते और उपहास उड़ाते दिखते हैं, दुनिया का धिक्कार उसके कानों में प्रतिध्वनित होने लगता है। अभिभावकों का आक्रोश तथा घृणा उसकी कल्पना में साकार हो उठती है। उसे ऐसा लगता है मानों उसकी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गई है और वह लाँछन तथा तिरस्कार का केन्द्र बन गया है। इसी अपनी अशिव तथा भयावह कल्पना से प्रेरित होकर वह धैर्य तथा विवेक को तिलाँजलि देकर आत्महत्या कर लेता है अथवा दर-दर की ठोकरें खाने के लिए भाग जाता है। जो कि एक मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

इसी प्रकार के भावातिरेकी न जाने कितने कर्मचारी जरा सी प्रतिकूलता अथवा अधिकारी की साधारण सी भर्त्सना से विचलित होकर और आगा-पीछा सोचे बिना ही त्याग पत्र दे दिया करते हैं। और जब वह आवेग उतरता है तब फिर प्रार्थना पत्र लिये हुए दफ्तरों कार्यालयों में दौड़ने लगते हैं। समाचारों के आवश्यकता स्तम्भों पर लालच भरी दृष्टि डालने लगते हैं। न जाने कितने भावातिरेकी व्यापारी अपने सौदे बिगाड़ते और व्यापार को हानि पहुँचाते रहते हैं। और जब उन्हें अपनी दुर्बलता के कारण मैदान से असफल होकर हटना पड़ता है तब या तो आत्महत्या की सोचने लगते हैं अथवा साधू संन्यासी हो जाने की।

भावातिरेकी व्यक्ति न केवल आत्महत्या ही बल्कि हत्यायें तक करते देखे जाते हैं। मौलिक रूप से हिंसक अथवा अपराधी न होने पर भी भावावेश में वे यन्त्र की तरह वैसा अनुचित कार्य कर डालते हैं।

भावातिरेकी व्यक्ति कभी-कभी अपनी स्थिति बड़ी ही दयनीय तथा उपहासास्पद बना लिया करते हैं। जहाँ पर भी उसके सम्मुख कोई कारुणिक दृश्य आ जाता है तो वे वहीं पर खड़े-खड़े आँसू बहाते रहते हैं। उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहता कि आँसुओं के माध्यम से उनकी भावातिरेकता प्रकट होकर उन्हें विचित्रता में बदल रही है। लोगों की दृष्टि प्रधान कारण से हटकर उन पर टिक जाती है और लोग जल्दी यह समझ नहीं पाते हैं कि आखिर यह व्यक्ति, यह अच्छा खासा सभ्य दिखने वाला प्रौढ़ आदमी इस प्रकार सार्वजनिक रूप से रो क्यों रहा है। कौन सी ऐसी विपत्ति इस पर आ पड़ी है जिसके कारण इसके एक के बाद एक आँसू बहते चले आ रहे हैं। इस प्रकार का व्यक्ति अपने साथ अन्यों को भी एक अजीब सी मानसिक परेशानी में डाल देता है।

सिनेमा अथवा कोई नाटक देखते समय तो भाव प्रवण व्यक्ति स्वयं एक कौतुक बन जाता है। ज्यों ही नायक अथवा नायिका पर कोई विपत्ति आई अथवा कोई ऐसा पात्र किसी मार्मिक स्थल पर पहुँचा, जिसके साथ उनकी सहानुभूति चल रही हो कि टपापट उनके आँसू बहने लगते हैं। लोग खेल देखने के स्थान पर उसकी और उपहास अथवा दयनीयतापूर्ण दृष्टि से देखने लगते हैं। इतनी संवेदना सहानुभूति तथा भावुकता होने पर भी यथार्थ रूप में भावावेशी व्यक्ति न तो किसी को सहायता कर सकता है और न सेवा सुश्रूषा। उसकी यह क्षणिक अतिरेकता अथवा आवेश कुछ आँसू बहाकर अथवा पीड़ा अनुभव कर सन्तुष्ट हो जाती है जिससे वे सक्रिय होकर अपनी इस प्रवणता को न तो सार्थक कर पाते हैं और न चरितार्थ। इस प्रकार की निष्क्रिय भाव प्रवणता एक दोष अथवा दुर्गुणी ही मानी गई है।

भावातिरेकी व्यक्ति की शिप्र कल्पनायें एक क्षण में आकाश पाताल एक कर देती हैं। अपनी कामनाओं की पूर्ति वह पुरुषार्थ में भी कल्पना में देखा करता है। शेखचिल्ली की तरह एक अण्डे से घर-बार तक बना बसा लेने में उसे देर नहीं लगती जिस समय उसकी भाव प्रवणता साहस तथा हौंसले को जागती है तब उसे पहाड़ उखाड़ डालना, समुद्र मय डालना, तारे तोड़ डालना तक सरल काम मालूम होता है। और इसके विपरीत जब वह कठिनता के सूड में आता है तब तिनके जैसी कठिनता उसे पहाड़ जैसी दुरुहता अनुभव होती है।

भावातिरेकी व्यक्ति इतना सुकुमार कल्पनाशील होता है कि यथार्थ के कठोर धरातल पर पैर रखते उसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अपनी कोमल कल्पनाओं तथा यथार्थ की कठिनता में इतना अन्तर अनुभव होता है कि यदि उसे कभी मजबूरन उतरना भी पड़े तो वह अपने को बड़ा असहाय, अपरिचित, अयोग्य तथा विदेशी जैसे अनुभव करता है और जल्दी अपने प्यारे कल्पना लोक में भाग जाने का प्रयत्न करने लगता है। यथार्थ का धरातल कठोर है और उन्नति तथा सफलता के स्वप्न इसी कठोर भूमि पर ही पूरे होते हैं। संघर्ष, सन्तुलन तथा सहिष्णुता का अभाव होने से भावप्रवण कोई भी व्यक्ति आज तक कोई बड़ी उन्नति करते नहीं देखा गया है।

भावातिरेकी व्यक्ति इतना भोला होता है कि उसकी भावुकता में गति जाग्रत कर जल्दी ही ठगा जा सकता है। करुणा तथा दया के मार्मिक स्थल पर जल्दी ही द्रवित किया जा सकता है। साथ ही उसके आँसू, उसकी करुणा और उसकी सम्वेदना इतनी क्षणिक तथा अनुर्वर होती है कि वह किसी के लिये वास्तविक एवं स्थायी सेवा सहायता के फल नहीं ला सकती। भावातिरेकी व्यक्ति दानी अथवा उदार हो सकता है किन्तु यह गुण भी उसकी भाव तरंग के साथ ही आते और चले जाते हैं। उस समय, जब उसकी अतिरेकता ज्वाराधीन हो उससे उसका सर्वस्व लिया जा सकता है किन्तु ज्वार उतर जाने के बाद वह नीरस एवं शुष्क हो जाता है। भावातिरेकी व्यक्ति जहाँ काम करता है अथवा जिस क्षेत्र में बरतता है वहाँ या तो अपने विरोधी बना लेगा किन्हीं से दूध पानी जैसी घनिष्ठता स्थापित कर लेगा। तटस्थ रहना अथवा तटस्थ व्यक्तियों से कोई सरोकार रखना उसके व्यवहार शास्त्र में होता ही नहीं। यह अन्तिमित्थम् की स्थिति इस बड़ी चढ़ी तथा अभाव पूर्ण दुनिया में कोई सत्फल लाने के स्थान पर कटुता, कुण्ठा तथा विरोध ही अधिक उत्पन्न करती है। भावातिरेक व्यक्ति एक छोटी सी बात को ही लेकर यदि उसकी उधेड़ बुन में लग जाता है तो समझिये हफ्ते, महीने दो महीने यहाँ तक कभी-कभी वर्षों तक की फुरसत कर लेता है। दिन रात खाते-पीते, उठते बैठते अथवा काम करते समय तक उसके मस्तिष्क को उक्त उधेड़ बुन से फुरसत नहीं मिलती इन्हीं सब अतिरेकताओं के कारण भावप्रवण व्यक्ति अधिकतर करुणा, उदास, खिन्न अथवा अप्रसन्न ही देखे जाते हैं।

अपनी भावुकता, सम्वेदना, सहानुभूति तथा मार्मिकता की अच्छी तरह परीक्षा कर देखिये और समझ लीजिए कि वह आपकी भावातिरेकता का ही तो प्रच्छन्न स्वरूप नहीं है। यदि ऐसा हो तो तुरन्त अपना सुधार कर डालिए। अन्यथा इसके बढ़ जाने अथवा स्थायी हो जाने से आप मानसिक रोगी बनकर रह जायेंगे। इस बात की मोटी सी पहचान यह है कि यदि आपको जगी हुई भावुकता, करुणा अथवा सहानुभूति कारण का परिमार्जन करने के लिये भी सक्रिय हो उठती है तो वह वास्तविक गुण है और यदि यह आह भर कर, आँसू बहाकर अथवा अपने को त्रस्त खिन्न, अथवा करुणा बनाकर ही रह जाती है तो निश्चय ही मानसिक दुर्बलता ही है जो किसी प्रकार वाँछनीय अथवा सराहनीय नहीं है।


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