शरीर में एक और शरीर-प्राण-शरीर

April 1971

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भारतीय योगियों द्वारा परकाया प्रवेश के विज्ञान को तर्कवादी व्यक्ति अतिरंजित कल्पना कहकर टाल देते हैं वस्तुतः मनुष्य के स्थूल शरीर की अपेक्षा उसके प्राण शरीर की महत्ता असंख्य गुनी अधिक है। जीवन के सत्य, शरीर और ब्रह्माँड की अंतर्वर्ती रचना, विज्ञान और क्रिया का ज्ञान जिस शरीर और माध्यम द्वारा सम्भव है वह प्राण शरीर ही है। स्थूल शरीर की अपेक्षा प्राण शरीर कहीं अधिक सशक्त और आश्चर्यजनक काम कर सकने की सामर्थ्य से ओत-प्रोत होता है।

प्रशान्त महासागर में समाए द्वीप के निकट एक जीव पाया जाता है उसे पैलोलो कहते हैं। यह जल में छिपी चट्टानों में घर बनाकर रहता है और वर्ष में दो बार अक्टूबर तथा नवम्बर के उन दिनों में, जब चन्द्रमा आधा होता है और ज्वार अपनी छोटी अवस्था में होता है, यह बाहर निकल कर पानी की सतह पर आता है और सतह पर आकर अण्डे देकर फिर वापस चला जाता है।

अण्डा देने आने और वापस चले जाने में कोई विचित्र बात नहीं है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि पैलोलो जब अपने घर से चलता है तो अपना आधे से अधिक शरीर वह घर में ही सुरक्षित छोड़ आता है। अण्डा देने और तैरने के लिये जितना शरीर आवश्यक होता है उतने से ही वह अपना सतह में आने का अभिप्राय पूर कर जाता है। इस बीच उसका शरीर मृत ढेले मिट्टी की तरह निष्क्रिय पड़ा रहता है। घर लौटकर पैलोलो फिर से अपने उस छोड़े हुये अंग को फिट कर लेता है। उसके बाद उस शरीर में भी रक्त संचार, प्राण संचार की गतिविधियों प्रारम्भ हो जाती है। यह एक उदाहरण है जो यह बताता है कि मनुष्य अपनी अध्यात्मिक उन्नति शरीर के बिना भी चला सकता है शरीर से तो उसका सम्बन्ध कुछ वर्षों का अधिक से अधिक एक शताब्दी का ही होता है पर प्राण शरीर उसकी जीवन धारणा करने की प्रक्रिया से लेकर मुक्ति पर्यन्त साथ-साथ रहता है।

बालक गर्भ में आता है तब वह किसी प्रकार की श्वाँस नहीं लेता फिर भी उसके शरीर में आक्सीजन की पर्याप्त मात्रा पहुँचती और शरीर के विकास की गति चलती रहती है। उस समय बच्चे की नाभि का सम्बन्ध माँ की नाभि से बना रहता है नाभि सूर्य का प्रतीक है। प्राणायाम द्वारा वस्तुतः सूर्य चक्र का ही जागरण किया जाता है जिससे आत्मा अपना सम्बन्ध सीधे सूर्य से जोड़कर प्राणाग्नि का विकास करती रहती है। प्रारम्भ प्राणायाम की क्रियाओं से होता है और चरम विकास ध्यान धारणा और समाधि अवस्था में मुक्ति और कुछ नहीं प्राणमय शरीर को सूर्य के वृहद् प्राण में घुलाकर स्वयं आद्य शक्ति के रूप में परिणत हो जाना होता है जिस प्रकार नदी से एक लोटा जल लेने से लोटे के जल की सत्ता अलग हो जाती है पर नहीं में उड़ेल देने के बाद वह जल फिर नदी हो जाता है वैसी ही गति प्राणों की भी होती है।

शरीर के न रहने पर भी प्राणों में गति बनी रहती है। प्रसिद्ध तिब्बती योगी लामा श्री टी. लाबसाँग रम्पा ने अपनी पुस्तक ‘यू फॉर एवर’ (आप अमर हैं) पुस्तक में मनुष्य का तेजोवलय (चतुर्थ अध्यात्म) में एक घटना का वर्णन करते हुये लिखा है कि- फ्राँस क्रान्ति के समय एक देशद्रोही का सिर काट दिया गया। धड़ से शीश अलग हो जाने पर भी उसके मुँह से स्फुट बुदबुदाहट की क्रिया होती रही ऐसा जान पड़ा कि वह कुछ कहना चाहता है। इस घटना को फ्राँसीसी शासन ने सरकारी पुस्तकों में रिकार्ड करवाया जो अभी तक विद्यमान है।”

कर्नल टाउन सेंड ने प्राणायाम के अभ्यास से प्राणमय शरीर के नियन्त्रण में सफलता प्राप्त की थी। सुप्रसिद्ध अमरीकी अणु-वैज्ञानिक श्रीमती जे.सी. ट्रस्ट की भाँति उन्होंने ने भी प्राण सत्ता के अद्भुत प्रयोगों का प्रदर्शन किया था। एक बार सैकड़ों वैज्ञानिकों व साहित्यकारों से खचाखच भरे हाल में उन्होंने प्रदर्शन किया। स्वयं एक स्थान पर बैठ गये। ब्लेकबोर्ड के साथ खड़िया बाँध दी गई। इसके बाद उन्होंने अपना प्राण शरीर से बाहर निकाल कर अदृश्य शरीर से ब्लैकबोर्ड पर बोले हुये अक्षर लिखे सवाल हल किये। बीच-बीच में वे अपने शरीर में आ जाते और वस्तु स्थिति भी समझाते जाते। इस प्रदर्शन ने लोगों को यह सोचने के लिये विवश किया कि मनुष्य शरीर जितना दिखाई देता है वहीं तक सीमित नहीं वरन् वह जो अदृश्य है इस शरीर से कहीं अधिक उपयोगी व मार्सिक है।

डॉ. वानडेन फ्रेंक ने इस सम्बन्ध में व्यापक खोज की थी और यह पाया गया था कि सिर के उस स्थान का जहाँ हिंदू लोग चोटी रखते हैं प्राण शरीर से सम्बन्ध रहता है यहीं से हृदय और रक्ताभिषरण की क्रियायें भी सम्पन्न होती है उन्होंने शरीर के विकास में इन्हीं खोजों के आधार पर मानसिक क्रियाओं का बहुत अधिक महत्व माना था।

वायु मिश्रित आक्सीजन, प्राण अग्नि स्फुल्लिंग सब एक तत्व के नाम है इस पर नियन्त्रण करके योगीजन शरीर न रहने पर भी हजारों वर्ष तक संसार में बने रहते हैं उसे न जानने वाले संसारी लोग अपने इस महत्वपूर्ण शरीर को भी उसी तरह नष्ट करते रहते हैं जिस तरह इन्द्रियों द्वारा शरीर की क्षमताओं को। प्राण शरीर का विकास किये बिना जीवन के रहस्यों में गति असम्भव है। आत्म साक्षात्कार और ईश्वर दर्शन नामुमकिन है।


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