धरती माता को पागलों से केवल यज्ञ बचायेंगे

April 1971

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17 जनवरी 1965 की बात है अमेरिका का एक विमान स्पेन के एक छोटे से गाँव पालामरेस के ऊपर उड़ रहा था। अचानक विमान एक अन्य विमान से टकराया और दोनों विमानों के टुकड़े-टुकड़े हो गये। सात चालक मारे गये। सौभाग्य से गाँव का एक भी व्यक्ति नहीं मरा। उस अमेरिकी विमान में चार हाइड्रोजन बम रखे थे दो तो गाँव के आस-पास की धरती में फुट गये एक फूटा नहीं। अमेरिका की अणु-शक्ति आयोग ने उस विस्फोट से होने वाले प्लूटोनियम के जहरीले विकिरण के दुष्प्रभाव से उस क्षेत्र को बचाने के लिए 385 एकड़ भूमि का साफ करा दिया। उस क्षेत्र के हर व्यक्ति को डाक्टरी परीक्षा की गई, दवायें दी गई। वहाँ को 1900 टन मिट्टी खोदकर अमेरिका लाई गई और उसे जहाँ अणु अस्त्रों को नष्ट किया जाता है वहाँ नष्ट कर दिया गया।

इतनी सुरक्षा के बावजूद गाँव के लोग 80 दिन तक इसलिये बेचैन रहे कि चौथा बम अभी तक नहीं मिला था और उसके किसी भी क्षण विस्फोट हो जाने से उपद्रव खड़े होने की आशंका थी बड़ी कठिनाई से वह बम समुद्र के अन्दर 2500 फुट की गहराई पर मिला तब लोगों ने राहत की साँस ली। यह बम छोटी ताकत के थे जबकि बड़े बमों की मारक क्षमता तो बड़ी ही भयंकर होती है। उनके विकिरण से कितनी विषैली गैस उत्पन्न होती है उसका अनुमान इसी बात से किया जा सकता है कि एक छोटा कहे जाने वाले 10 फुट गहरा विकराल कुंआ खुद जाता है। विस्फोट क्षेत्र के तीन मील के घेरे में कुछ भी नहीं बचेगा नौ मील तक जीवों के शरीर पूरी तरह जल या झुलस जायेंगे। 6 अगस्त 1985 को हिरोशिमा में फेंके गये अणुबम से पाँच मील का विस्तृत क्षेत्र पूरी तरह बर्बाद हो गया था दोनों स्थानों के क्रमशः 98000 तथा 74000 व्यक्ति मारे और 56000 तथा 77000 व्यक्ति घायल हुए। यह बम भी छोटे थे इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1654 में बिकनी प्रवाल द्वीप में जो हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया गया था वह हिरोशिमा पर फेंके गये अणुबम की अपेक्षा 600 गुणा शक्तिशाली था अर्थात् उसे यदि किसी युद्ध क्षेत्र में फेंका जाता तो हिरोशिमा के हिसाब से 4680000 (छियालीस लाख अस्सी हजार) व्यक्ति मरते और 3360000 (तैंतीस लाख साठ हजार) व्यक्ति घायल हो जाते। अणुबमों की दुनिया बड़ी भयंकर है। उस अध्याय को ढका रखना ही श्रेयस्कर है।

पर इससे भी भयंकर और उनके पीढ़ियों तक मानव जाति को पीड़ित व प्रताड़ित रखने वाले उसके विकिरण प्रभाव से जन-साधारण को अवगत न कराना एवं उसकी रोकथाम के प्रभावी कदम न उठाना एक प्रकार की बौद्धिक हिंसा होगी।

विकिरण सीधे अर्थ में उस चमक को कहते हैं। जो तारागणों या नक्षत्रों से प्रस्फुटित होता रहता है। कुछ विकिरण शरीर के लिए अच्छे होते हैं कुछ विषैले व हानिकारक यह विकिरण वाले तत्वों की रासायनिक स्थिति पर निर्भर करते हैं। यदि वह रसायन अच्छे हैं तो उससे मनुष्य को शक्ति मिलती है यदि वह दूषित हैं तो उससे मनुष्य का शरीर रोगी बनता है।

विकिरण पदार्थ की चौथी अवस्था या “प्लाज्मा” है। एक पत्थर घनत्व के कारण कठोर होने पर भी सीमित स्थान घेरता है उससे इतना ही नुकसान है कि वह जिस स्थान पर लगेगा चोट पैदा करेगा। पर उसी का द्रव रूप ज्यादा आयतन ले लेता है। सल्फ्यूरिक एसिड नाइट्रिक एसिड जैसे द्रव शरीर में फेंक दिये जाये तो व ऊपर की चमड़ी की जलाकर छेदते हुए भीतर तक चले जाते हैं, ठोस से द्रव की शक्ति अधिक होती है, गैस उससे भी आयतन घेरती है इसलिये उसकी क्षमता भी सैकड़ों गुनी अधिक हो जाती है। बम की धमक से 6 मील के घेरे को सारी वस्तुयें पूरी तरह नष्ट हो जायेगी और 25 मील तक आँशिक पर उसके ताप के प्रभाव से 10 मील के घेरे के 65 प्रतिशत व्यक्ति तुरन्त मर जायेंगे जबकि 17 मील के घेरे में जख्मी और झुलसने वालों की संख्या बेशुमार होगी। विषैली धातुओं का धुंआ 600 मील तक फैलकर लोगों को मारता है पर विकिरण दूषित तत्वों को और भी सूक्ष्म करके सारी पृथ्वी के वायु मंडल में फैला देता है। सोजियम 167 तथा स्ट्रान्शियम 60 आदि प्रमुख रेडियो सक्रिय तत्व हवा और पृथ्वी में लेन्थेनम, यूरेनियम, निओडिमियम, बेरियम, स्थेनियम आदि के परमाणु आइसोटोप सर्वत्र फैला देते हैं जिनका प्रभाव हजारों वर्ष तक बना रहता है। और यह दुष्प्रभाव खून तथा हड्डी के कैंसर गले के रोग पैदा करता रहता है।

विकिरण का सबसे बुरा प्रभाव प्रजनन और भावी पीढ़ी के अनुवाँशिकी गुणों पर पड़ता है। सन् 1627 में प्रसिद्ध जीव शास्त्री मुलर ने ‘एक्स किरणों की बौछार डोसोफिला मक्खियों पर की और यह पाया कि उससे उन मक्खियों के ‘जीन्स’ ही बदल जाते हैं। ‘जीन्स’ शरीर बनाने वाले कोशों के ‘अमर संस्कारों’ को कहते हैं। शरीर कैसा बनेगा, रंग गोरा होगा या काला, आंखें नीली होंगी काली या भूरी, हाथ में पाँच उँगलियाँ होंगी या छः। हड्डी पतली होगी या मोटी यह सब ‘जीन्स’ पर आधारित होता है। माता-पिता के ‘जीन्स’ ही बच्चे के शरीर का निर्माण करते हैं। सामान्यतः किसी तीखी दबा से भी इन्हें परिवर्तित करना सम्भव नहीं होता पर मुलर ने यह सिद्ध कर दिया कि रेडियो विकिरण (किसी तत्व को जब अत्यधिक गति से किसी माध्यम से प्रवेश कराया जाता है तो उससे तीव्र चौंध पैदा होती है इसे गैस की आगे की अवस्था या प्लाज्मा या विकिरण ही है।) जीन्स तक को प्रभावित कर सकते हैं उसने विविध प्रयोगों द्वारा इच्छानुसार एक ही ड्रोसोफिला को सन्तानों की कमी नीली आँखों वाला तो उसी को भूरी आँखों वाला करके दिखा दिया। किसी हड्डी मोटी करदी किसी की पतली किसी को सीधा बनाया तो किसी को अष्टावक्र करके 1646 में नोबुल पुरस्कार प्राप्त किया। अब अनुवांशिक विज्ञानी (जेनेटीसिस्ट) पूरी तरह सहमत हैं कि विकिरण की थोड़ी-सी मात्रा भी प्रजनन कोशिकाओं (स्त्री के अण्डाणु या शोणित तथा पुरुष के शुक्राणु) पर बुरा प्रभाव डालती है और उससे भावी पीढ़ियां खतरे में पड़ सकती हैं। आगे होने वाले अधिकाँश मृत प्रसव, गर्भपात, जन्मजात अपंगताएं इसी दूषित विकिरण के ही परिणाम होंगे। और वह बड़े भयंकर रूप से सामने आयेंगे। यदि आज की सभ्यता, आज के विज्ञान को इसी तरह चलते फलते व फूलते रहने दिया जाता है तो एक दिन वह आयेगा जब संसार अन्धे, बहरे, लंगड़े- लूले, गूँगे, कुरूप, टेढ़े-मेढ़े हकले, विक्षिप्त तथा पागलों से भर जायेगा।

प्लेन ट्रथ पत्रिका के सन् 66 के एक अंक में पेज 41 पर लिखा है- अमेरिका में प्रति वर्ष 550000 बच्चे अनुवाँशिक विकार के कारण मर जाते हैं 25000 मरते नहीं पर मृत्यु से अधिक त्रासदायक परिस्थिति में जीवनयापन करते हैं। हर दस बच्चों में एक विकलाँग या मानसिक दृष्टि से विक्षिप्त पैदा होता है। अमेरिका में प्रतिदिन 700 बच्चे ऐसे पैदा होते हैं जिनके शरीर या दिमाग में कोई न कोई खराबी अवश्य होती है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट है कि 4 प्रतिशत मानव बच्चे नियमित रूप से जनम जा त्रुटियाँ लेकर जन्म ले रहे है निकट भविष्य में यह प्रतिशत दुगुना हो सकता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में संसार के 24 बड़े शहरों के आधार पर एकत्रित आंकड़े बताते हैं कि जोहानीज, वगै (अफ्रीका) में प्रति 44 बच्चे एक बच्चा विकलाँग पैदा होता है मेलबोर्न (आस्ट्रेलिया) में 53 में से एक, ब्राजील में 62 में एक, मैड्रिड (स्पेन) में 65 में एक, जाग्रेव (यूगोस्लाविया) में 78 में एक, सिकंदरिया मिश्र में 86 में एक म्वालाम्पुर (मलेशिया) में 65 में से एक बच्चा विकलाँग पैदा होता है। इसे अपने ऋषियों की कृपा और आशीर्वाद ही मानना चाहिए कि पौष्टिक आहार, सुरक्षा से साधन तथा शिक्षा आदि सभी दृष्टि से पीछे होने पर भी दुनिया भर के सभी देशों के अनुपात से अपने देश भारतवर्ष का अनुपात कम है यहाँ 116 में एक बच्चा इस तरह की शारीरिक त्रुटि के साथ जन्म लेता है। इस बात पर लोगों को भारी विस्मय है और दुनिया भर के वैज्ञानिक भारतीय वायु मंडल की विशेषताओं का अध्ययन भी करना चाहते हैं सम्भव है उससे नये तथ्य सामने आयें पर प्रकट सत्य है कि जिस तरह दूषित तत्वों के विकिरण द्वारा आज दुनिया के देशों ने भावी पीढ़ी की हिंसा का पाप किया इस देश की यज्ञ-परम्परा ने उनकी रक्षा की अन्यथा ये दर और भी बढ़ती और जो परिस्थिति आज से पचास वर्ष बाद होने वाली है वह आज ही हो गई होती। अर्थात् वायु मंडल में जो विषैला विकिरण छाया हुआ है उसके प्रभाव से अब तक ही सारे संसार के बच्चे अन्धे, बहरे, लूले-लँगड़े और पागल हो गये होते।

बमों से उत्पन्न विकिरण, उसमें प्रयुक्त दूषित तत्वों का प्लाज्मा या ऊर्जा द्वारा वायुभूत तत्वों का दुष्प्रभाव ही है। यज्ञों में जलाई गई औषधियाँ भी विकिरण पैदा करती है पर यह पौष्टिक एवं स्वास्थ्य वर्धक पदार्थों का विकिरण होता है उसमें ‘जीन्स’ की शुद्ध संस्कारवान् और स्वस्थ बनाने की उतनी ही प्रबल क्षमता होती है जितने विषैले तत्वों में प्रदूषण उत्पन्न करने की क्षमता। मन्त्रों की ध्वनियाँ उस वायुभूत शुद्धता को तरंगित करके सारे आकाश में फैला देती है इसलिये यज्ञ का लाभ कम या अधिक सारे संसार को उसी प्रकार मिलता है जिस प्रकार बमों का विकिरण सारे संसार को पीड़ा और पागलपन की और धकेलता है।

यज्ञ एक महान् विज्ञान है, महान् तन्त्र है, महान् औषधि प्रक्रिया और जीवन शक्ति का प्रकाश है हमें अपनी भावी सन्तानों को स्वस्थ संस्कारवान् और सद्गुणी बनाना है तो इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं कि शुद्ध व सात्विक यज्ञ परम्परा का सारे देश और विश्व में तेजी से विकास किया जाये? मानवीय सभ्यता को जिन्दा रखना है तो यज्ञ को, यज्ञीय परम्पराओं को प्रतिष्ठा देनी ही पड़ेगी।


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