अपनों से अपनी बात

April 1971

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हमारा भावी हिमालय प्रवास एक ऐसी विधि व्यवस्था है जिसे टाला नहीं जा सकता। यह कोई सनक, मनोरंजन, जिद या उद्धतपन नहीं है कि हम मिशन के इतने गतिशील कार्य को अधूरा छोड़कर ऐसे ही हिमि पर्वतों में घर दौड़े। हम सदा के कर्म को प्रधानता देते रहे हैं और अपना अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह बताते रहे हैं कि कर्म के माध्यम से ही व्यक्ति और समाज का लोक-और परलोक का हित साधन ही हो सकता है। उपासना को कम और जीवन साधना को अधिक महत्व देने की प्रेरणा ही हमने सर्वे साधारण को दी है। फिर अगले दिनों हमें जो कदम उठाने पड़ रहे हैं, हिमालय में अज्ञात एकान्त साधना के लिए जाना पड़ रहा है- उससे किसी को ऐसा लग सकता है कि अपनी पिछले मान्यताओं और शिक्षाओं के विपरीत हम आचरण करने जा रहे है। नव-निर्वाण के महान् अभियान की गतिशीलता में हमारा कर्तव्य इतना घुल मिल गया है कि लोगों को यह लग सकता है कि यह व्यक्तित्व एवं मार्ग-दर्शन हट जाने से मिशन को क्षति पहुँचेगी और शिथिलता आ जायगी। ऐसी दशा में नव निर्माण की अभिरुचि रखने वाले प्रत्येक भावनाशील व्यक्ति को हमारा यह महा प्रयाण दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण लग सकता है। और अधिक जोर देकर कहा जा सकता है कि यह विचार हम छोड़ दें और जिस तरह अब तक काम करते रहे उसी तरह आगे भी करते रहें।

परिजनों की चिन्तन प्रक्रिया का मूल और महत्व हम समझते हैं। यदि जीवन का शेष समय इसी अभ्यस्त क्रियाकलाप में लग जाता तो हमें सुविधा ही रहती और सरलता भी पड़ती। अपनी कमजोरी को छिपाते नहीं हमारा अन्त करण अति भावुक और मो, ममता से भरा पड़ है। जहाँ तनिक सा स्नेह मिलता है मिठास को तलाश करने वाली चींटी की तरह रेंगकर वही जा पहुँचता है। स्नेह, सद्भाव की प्रेम और ममता की मधुरिमा हमें इतनी अधिक भाती है कि शहद में परसनी मक्खी की तरह उस स्थिति को छोड़ने की रत्ती भर भी इच्छा नहीं होती। जिन लक्ष-लक्ष परिजनों का स्नेह, सद्भाव हमें मिला है जी चाहता है कि उस मिठास का आनन्द हजार जन्म लेकर हजार शरीर धारणा कर हजार कल्प तक लेते रहें। प्रेमी के लिए मिलन का आनन्द बड़ा सुखद होता है पर बिछुड़ने का दर्द उसे मनहित करके ही रख देता है। जिसे प्रेम करने और पाने का अवसर मिला है वह जान सकता है कि प्रिय जनों के बिछुड़न की घड़ी कितनी मर्मान्तक और हतप्रभ कर देने वाली होती है। लगता है कोई उसका कलेजा ही चीरकर निकाल लिये जाता है। भगवान ने हमें न जाने क्यों स्नेहसिक्त अन्तःकरण देकर भेजा जिसके कारण हमें जहाँ प्रिय पात्रों के मिलन की थोड़ी सी हर्षोल्लास भरी घड़ियाँ उपलब्ध होती है वहाँ उससे अधिक वियोग बिछुड़न के बारम्बार निकलने वाले आँसू बहाने पड़ते हैं। इन दिनों भी हमारी मनोभूमि इसी दयनीय स्थिति में पहुँच गई है। मिशन के भविष्य की बात एक ओर उठाकर भी रखदें तो भी प्रियजनों से सदा के लिए बिछुड़ने वाली बात हमें बहुत ही कष्टकर बनकर शूल रही है। अच्छा होता बीमारी में पड़े रहते और मस्तिष्क रुण मूर्च्छित होकर पड़े रहने की स्थिति में जीव इस काया को छोड़कर चला जाता। तब उसी अर्धमूर्छित स्थिति में प्राण प्रिय परिजनों से बिछुड़ने का यह कष्ट न सहना पड़ता जो विदाई की घड़ी निकट आते जाने पर निरन्तर घर नहीं बढ़ ही रहा है।

हमारे मोह ममता की इसे अति ही समझा जाना चाहिए कि चलते समय किसी से न मिलने और चुपचाप प्रयाण कर जाने के अपने पूर्व निश्चय को बदलना पड़ा। जो मानता ही नहीं। बेतरह मचलता है और चाहता है कि एक बार आँख भरकर प्रियजनों को देख लेने का अवसर यदि मिलता है तो उस लाभ को क्यों छोड़ा जाय? यों हम यह भी जानते हैं कि चलते समय अधिक मोह ममता बढ़ने पर फोड़ा और अधिक दर्द करेगा और अगले दिनों हमें अपने को सँभालने में बहुत अधिक अड़चन पड़ेगी। फिर भी भीतरी मचलन को देखिये न कि हमें इसके लिए मजबूर कर दिया कि चलते समय विदाई सम्मेलन और बुला लें। और जी भरकर उन स्वजनों को देख लें जिनके साथ चिर अतीत से हमारे अति मधुर सम्बन्ध जुड़े चले आ रहे हैं और निर्बाध गति से आगे भी चलते रहेंगे।

जिस स्तर की अपनी मनोभूमि है उसमें भक्ति साधना की बात जमती थी कर्म का ढर्रा भी चलता रह सकता था, पर योग साधना तपश्चर्या सो भी निविड़ एकाकी वातावरण में हमारे उपयुक्त न थी। 60 वर्ष का जन संपर्क और लोक मंगल के क्रिया कलाप चलाते रहने वाला ढर्रा अब इतना आप-पास में आ गया है और अनुकूल पड़ने लगा है कि उसे छोड़ते बदलते अब काफी अड़चन मालूम पड़ती है। शरीर भी ढीला हो चला और वह तपश्चर्या की कठोर परिस्थितियों से अकचकाता है। इतना सब होते हुए भी हम रुक न सकेंगे जाने की विवशता को टाला न जा सकेगा। 20 जून को हम निश्चित रूप से चले जायेंगे।

कारण स्पष्ट है। हमने 45 वर्ष पूर्व अपना शरीर, मन, मस्तिष्क, धन और अस्तित्व अहंकार सब कुछ मार्ग-दर्शक के हाथों बेच दिया है। हमारा शरीर ही नहीं अन्तरंग भी उसका खरीदा है। अपनी कोई इच्छा शेष नहीं रही। भावनाओं का समस्त उभार उसी अज्ञात शक्ति के नियन्त्रण में सौंप दिया है। आरम्भ में यह समर्पण हमें बहुत महंगा और कष्ट कारक लगा। दिखा उसमें घाटा ही घाटा है। और जैसे ही वस्तु स्थिति समझ में आई वैसे ही लगने लगा यह घाटे का नहीं असंख्य गुने लाभ का व्यापार है। जिसके हाथों हमने अपने को- शरीर और मन को बेचा बदले में अपने को हमारे हाथ बेच या सौंप दिया। हमारी तुच्छता जिसके चरणों में समर्पित हुई उसने अपनी सारी महानता हमारे ऊपर उड़ेल दी। बाँस की टुकड़ी ने अपने को पूरी तरह खोखला करके वंशी के रूप में प्रियतम के अधरों का स्पर्श किया तो उसमें से मनमोहक राग रागनियाँ निकलने लगीं। हमने यही किया-बेचा सो बेचा-सौंपा सो सौंपा आगा-पीछा सोचने का फिर कोई प्रश्न ही नहीं रहा। अपनी इच्छा का तब अस्तित्व ही नहीं रहा। उसी की हर इच्छा जब बन गई तो वह अद्वैत स्थिति ब्रह्म और जीवन के मिलन में आने वाले ब्रह्मानन्द की तरह सुरति क्रिया में निमग्न पति-पत्नि की तरह अति सुखद लगने लगी। जिसे सच्चे मन से बिना किसी प्रतिदान की आशा के गहरा आत्म-समर्पण किया गया उसने भी अपनी महानता में उदारता में प्रतिदान में कमी नहीं रहने दी। हमारे पास जो प्रत्यक्ष दिखता है उससे हजार लाख गुना अप्रत्यक्ष छिपा पड़ा है। यह हमारा उपार्जन नहीं है। विशुद्ध रूप से उसे हमारी मार्ग दर्शन सत्ता का ही अनुमान है, जिसके साथ हमारी मार्ग-दर्शक सत्ता का ही अनुदान है, जिसके साथ हमारी आत्मा ने विवाद कर लिया और अपना आपा सौंपने के फलस्वरूप उसका सारा वैभव करतल गत कर लिया। इस प्रकार यह समर्पण हमारे लिये घाटे का नहीं नफे का ही सौदा सिद्ध हुआ। यद्यपि आरम्भ से इसे विशुद्ध घाटा ही समझ कर स्वीकार किया गया था।

हमारे घनिष्ठ स्वजनों को यह जान ही लेना चाहिए कि गत 45 वर्षों में हमारा प्रत्येक क्रिया कलाप हमारे मार्ग-दर्शक के संकेतों पर ही चला है। समाज के सम्बन्ध में दूसरों के सम्बन्ध में हम बहुत बातें ढंग से सोचते हैं पर अपने बारे में सिर्फ उतना ही सोचते हैं कि हमारा मास्टर हमें जिधर ले चलेगा उधर ही चलेंगे भले ही वह मार्ग हमारी रुचि या सुविधा के सर्वथा विपरीत ही क्यों न हो। तो जबकि उसने भावी तपश्चर्या का कार्य-क्रम हमारे सामने रख दिया है तो उसके सम्बन्ध में आगा पीछा सोचने का कोई प्रश्न ही नहीं रहा। समर्पण इससे कम में सम्पन्न ही कहाँ होता है। प्रेमिका ने प्रियतम पर अपनी इच्छा थोपी तब तो वह व्यापार व्यभिचार बन जायगा हमारी आत्मा इतनी उथली नहीं जो समर्पण करने के बाद अपने मास्टर पर अपनी अभिरुचि का प्रस्ताव लेकर पहुँचें।

हमारे मार्ग दर्शक हमारे विवेक को संतुष्ट कर चुका है। नव निर्माण की युग परिवर्तन की महान प्रक्रिया को सम्पन्न करने के लिए मात्र स्थूल क्रिया कलाप पर्याप्त न होंगे। इसके लिए सूक्ष्म जगत को प्रभावित करना पड़ेगा। उग्र तपश्चर्या द्वारा नियति की भाव तरंगों को इतना परिष्कृत बनाना पड़ेगा कि प्रसुप्त उच्च आत्मायें, जग पड़ने और उठ चलने की आवश्यकता अनुभव करें। ऊषा की ध्वजा उड़ाता हुआ चन्द्रचूड़ जब अरुणोदय के रूप में धावमान होता है तो सोये हुए सभी प्राणी जाग पड़ते हैं। और अपने नित्य कर्मों में निरत ही जाते हैं। नव जागरण की वेला में प्रातः कालीन ऊषा के अग्रगामी अरुण चन्द्रचूड़ की तरह हमें अग्रगामी बनने के लिए शक्ति का उपार्जन करना होगा। 15 से 40 वर्ष तक की 24 वर्ष की आयु को इस प्रकार की शक्ति संचय में हमें लगाना पड़ा है। उस उपार्जित पूँजी के बलबूते पर ही वह सब कर सकना संभव हो सका जो 40 से 60 वर्ष तक के 20 वर्षों में हुआ दिखाई पड़ता है। यदि गायत्री पुरश्चरणों की शृंखला में शक्ति संचय का वह क्रिया कलाप न चला होता तो जो कुछ अनुपम, अद्भुत और आश्चर्यजनक वन पड़ा है वह कदापि सम्भव न रहा होता। शरीर, मन और धन की शक्ति नगण्य है। हजार लाख व्यक्ति मिलकर भी स्थूल उपकरणों से भावनात्मक नव-निर्माण एवं युग परिवर्तन जैसी महान प्रक्रिया सम्पन्न नहीं कर सकते। उसके लिए आत्मबल की अनिवार्य रूप से आवश्यकता रहती है। पीछे जो किया जा चुका हमें उससे हजार लाख गुणा काम अभी और करना है। उच्च आत्माओं को मोह निद्रा में से जगाकर ईश्वरीय इच्छा को पूर्ति के लिए लोक मंगल क्रिया कलापों में नियोजित करना है। मामूली समझने बुझाने से उन्होंने करवट मात्र बदली, उठकर खड़े न हो सके। झकझोर कर जगाने उठाकर खड़ा कर देने और उनको उपयुक्त कार्य में नियोजित करने के लिए वाणी में कड़क और कलाइयों में शक्ति चाहिए। इसके लिए शक्ति संग्रह की तपश्चर्या फिर आवश्यक हो गई। अगले दिनों हमें यही करना होगा। तोप ढालने के लिए असली अष्ट धातु चाहिए। मास्टर ने हमें अष्ट धातु समझा और तोप ढालने के लिए भट्टी में गलने के लिए बुलाया तो किस मुँह से इनकार करें। इनकारी हमारी समर्पण को ही कलंकित कर देगी। इतना जोखिम हम किसी भी मूल्य पर उठाने को तैयार नहीं। सो मास्टर की मर्जी पूरी करने के अतिरिक्त हमारे पास कोई चारा शेष नहीं रहा।

अध्यात्म विद्या के शक्ति-तन्त्र को धारण करने के लिए परशुराम भागीरथ जैसी आत्माओं की जरूरत पड़ती हैं। घटिया लोग कुण्डलिनी जागरण से लेकर सिद्धि सामर्थ्यों की उपलब्धि के स्वप्न भर देख सकते हैं उन्हें धारण करने के लिए शंकर जैसी जटाएं चाहिए सो कोई अपनी सर्वतोमुखी पात्रता विकसित करता नहीं, मात्र मन्त्र मन्त्र तन्त्र के छुटपुट कर्मकाण्डों से लम्बे चौड़े स्वप्न देखते और विफल मनोरथ निराश असफल बने रहते हैं। युग परिवर्तन के लिए आत्मशक्ति का प्रयोग प्रधान रूप से होता है। इसके लिए विद्युत उत्पादन के केन्द्र खड़े करने होंगे। अब इसके बिना मात्र प्रचार या उछल कूद से काम न चलेगा। परिवर्तन के लिए अभीष्ट आत्म शक्ति का केन्द्र खड़ा कर उससे अगणित यन्त्रों का संचालन किया जाना है। यदि अपनी हड्डियाँ इस प्रकार की अणु भट्टी बनाने में नींव के पत्थर की तरह प्रयोग की जानी हैं तो हमें इससे असहमति क्यों प्रकट करने चाहिए? कष्ट के पीछे सदा हानि ही नहीं होती उसके पीछे सौभाग्य भी झाँकता रहता है। लुप्त आत्म विद्या का पुनरुत्थान करके अनेकों को मनस्वी, महामानव, सिद्ध और समर्थ बनाने का सौभाग्य हमें दिया जा रहा है तो उसे शिरोधार्य करने से इनकार क्यों करें?

विदाई का वियोग हमारी भावुक दुर्बलता हो सकती है। या स्नेह सिक्त अंतःकरण की स्वाभाविक प्रक्रिया। जो भी हो हम उसे इन दिनों लुप्त करने का यथा सम्भव प्रयत्न कर रहे हैं। मन की मचलन का समाधान कर रहे हैं। गत एक वर्ष से देश व्यापी दौरे करके परिजनों से भेंट करने की अपनी आन्तरिक इच्छा को एक हद तक पूरा किया। अब विदाई सम्मेलन बुलाकर एक बार अन्तिम बार जी भरकर अपने परिवार को फिर देखेंगे। अपने स्मृति पटल पर आँखों के कैमरे से प्रियजनों की तसवीरें फिर खींच ले जाना चाहते हैं, जिससे जब एकान्त में मन मचले तो उन मधुर चित्रों को देख कर अपनी छाती ठण्डी कर लिया करें। कहना ना होगा कि प्रेम के साथ अनुदान की स्वाभाविक वृत्ति जुड़ी है। स्नेह सेवा सहायता के रूप में विकसित होता है। हमें अपनी आत्मीयता की गहराई और सचाई सिद्ध करने के लिए स्वजनों द्वारा समय-समय पर दिये गये आत्मिक और भौतिक अनुदानों का ब्याज समेत ऋण भार चुकाने के लिए अगले दिनों बहुत कुछ करना है। इन दिनों स्वल्प सामर्थ्य से हम इच्छित सेवा सहायता कर सकने में सफल नहीं हो रहे हैं। इस कमी और लज्जा को अगले दिनों पूरा कर देंगे। हम ऐसे वैरागी, त्यागी, लाख जन्मों में भी न हो सकेंगे जब अपने प्रति सद्भावना आत्मीयता रखने वालों के सौजन्य को भुला दें उन्हें स्मरण न करें, संचित आत्मीयता खोदे, और सेवा सहायता करने की, स्नेह वात्सल्य वरत सकने की मनोवृत्ति को बदल दें। देखेंगे यदि ऐसी सूखी योग-साधना ही करनी पड़ी तो कहेंगे यह अपने वर्तमान ढाँचे को बदलने जोड़ने और नष्ट किये बिना सम्भव नहीं। सो हे, गुरुदेव, आदि हमें ऐसी ही नीरस तपश्चर्या करनी है और रूखी मनोभूमि बनानी है तो वर्तमान आस्तित्व को पूरी तरह चूर-चूर करके फिर कोई नई चीज उससे बनाइये। तब वह लिवर शायद उस तरह की शुष्क साधना कर सके। इस वतरण का तो रोम-रोम स्नेह ममता से सराबोर हो है, उसे सर्वथा उल्टा किया गया तो फिर टूट या बिखर जायगा। न अपने काम का रहेगा न किसी दूसरे का। सारा समर्पण स्वीकार करने वाला इस हमारी दुर्बलता को जानता है और विश्वास है कि अपनी सहज सहृदयता इस गधे पर इतना वजन न लादेगा जिससे उसकी कमर टूट जाय। स्नेहसिक्तता हमसे छिनी तो रहेंगे तो उसी मार्ग पर। अपनी मौलिक विशेषता खोकर निर्जीव जैसे जायेंगे। फिर शायद अपना अस्तित्व ही स्थिर रखना भारी पड़ जायगा।

विश्वास है कि हमें अपनी भावी तपश्चर्या की अति उग्रता और कठोरता के बीच भी इतनी छुट रहेगी कि स्वजनों से स्नेह सद्भावों का आदान प्रदान करते रह सकें। हमारे लिए इतना बहुत हैं। इतनी सरसता बनी रही तो हम वन पर्वत हिम कंदराओं की नीरवता सहन कर लेंगे और शरीर तथा मन को जितना भी अधिक तपाना पड़े उन उष्णता को धैर्य पूर्वक पचा लेंगे। हमारी विस्मृति किसी घनिष्ठ को भुला न दे इसलिये विदाई सम्मेलन में प्रायः सभी स्वजनों को आग्रह पूर्वक अन्तिम भेंट के लिए आमंत्रित किया है। उन दिनों गर्मी अधिक रहेगी। आगन्तुकों को तम्बुओं में ठहराना पड़ेगा और कष्ट रहेगा पर, उनके न आने से हमें जो तपन सहनी पड़ेगी सो अपेक्षाकृत हमें अधिक भारी पड़ेगी और हमारा वह भारी मन लेकर प्रयाण करना उन परिजनों को भी निरन्तर पश्चाताप जैसा कष्ट देता रहेगा। इसलिये उपयुक्त यही समझा गया कि ऋतु कष्ट का जोखिम उठाने और उस अवसर की उपेक्षा न करने के लिये अनुरोध कर ही दिया जाय।

17, 18, 19, 20 जून का यह विदाई सम्मेलन है। 16 की शाम तक सब लोग मथुरा पहुँच जायें ताकि 17 के प्रातःकाल से आरम्भ होने वाले हमारे स्नेह सान्निध्य का आत्मिक उद्गारों को सुनने का जीवन क्रम की रहस्य पूर्ण घटनाओं के जानने समझने का अवसर पूरी तरह मिल जाय। बीच-बीच में आने-जाने वाले वह लाभ न उठा सकेंगे। 20 की मध्याह्नोत्तर हम चले जायेंगे। माताजी भगवती देवी भी उसी दिन मथुरा छोड़ देंगी। हम दोनों का भी साथ टूट जायगा। आगन्तुक 20 को दो पहर बाद जा सकेंगे। इन पंक्तियों में अखण्ड ज्योति परिजन अपने लिए विशेष निमंत्रण नोट करले और यदि बिलकुल ही असंभव न हो तो प्रयत्न करें कि उस अवसर पर किसी तरह मथुरा पहुँच ही जायें।

यह सम्मेलन हमारी अनुभूतियों का विकेन्द्रीकरण है। हमें कहना बहुत है- बताना बहुत है- और देना बहुत है। वाणी से शायद उतने उफान को उड़ेलना सम्भव न हो सके। वाणी से शायद उतने उफान को उड़ेलना सम्भव न हो सकें पर हम अंतरंग की प्राण शक्ति को उभार कर हर आगन्तुक के अन्तस्तल तक प्रदेश करेंगे और जहाँ जितना जिस स्तर पर बीजारोपण कर सकना सम्भव होगा, पूरी सावधानी के साथ करेंगे। इस वे चार दिन निस्संदेह बहुत महत्व के होंगे। जहाँ हम अन्तिम वार अपनी आत्माएं तृप्त करने और छाती ठण्डी करते हुए हलका करेंगे वहाँ आगन्तुक भी कुछ ऐसा अनुभव प्राप्त करके जायेंगे जो उनके लिए एक अमिट और सुखद स्मृति बन कर चिरकाल तक विद्यमान बना रहेगा। हो सकता है किसी को उप प्रकाश से अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकने की दिशा भी मिल जाये। फिर कभी वैसा अवसर न आने के कारण निस्संदेह यह सम्मेलन असाधारण और अनुपम ही होगा।


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