शक्ति, प्रकाश और ब्रह्म ज्ञानदाता-अग्निदेवता

April 1971

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हम भारतीय अग्नि को देवता मानते हैं उनकी पूजा करते हैं, आहुतियाँ भेंट करते हैं और चूँकि उन्हें ‘अग्निमीले पुरोहित’ देवताओं तक आहुतियाँ पहुँचाने वाले पुरोहित मानते हैं इसलिये यह विश्वास करते हैं कि अग्नि देव हमारी भावनाओं एवं कामनाओं से युक्त आहुतियाँ देवताओं तक पहुँचाते हैं, जिससे देवता हम पर आयु, प्राण, बल, बुद्धि, ज्ञान और सुखों की वृष्टि करेंगे।

कोई भी पदार्थ जलकर गैर रूप में असंख्य गुना व्यापक हो जाता है यह बात अब वैज्ञानिक भी मानते हैं। 1666 में आयोजित कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी की एक अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक गोष्ठी में वैज्ञानिकों ने माना कि अग्नि में किसी भी हव्य को “आक्सीकृत” कर अनन्त आकाश में पहुँचा देने की क्षमता है। यही नहीं अग्नि को आश्चर्यों का आश्चर्य कहा गया और उस पर विस्तृत खोज की आवश्यकता पर जोर दिया गया।

हवा का झोंका आये तो आग बुझ जायेगी फिर अग्नि हवा में ही क्यों जलती है? वायु- शून्य में क्यों नहीं जलती? अग्नि ज्वाला के मध्य भाग का तापमान कम रहता है जब कि बाहरी भाग सबसे गर्म होता है? बाहरी भाग में भी ऊपर जिस तरफ लौ उठती है उधर का तापमान सर्वाधिक क्यों रहता है? लौ सदा ऊपर को ही क्यों उठती है? आदि वह प्रश्न हैं जिन पर वैज्ञानिकों को भी कुछ नहीं मालूम जो जाना जा सका है वह अत्यन्त न्यून है।

मामूली मोमबत्ती जलाई जाये तो उसकी गर्मी 1500 से. के लगभग होती है। कोल-गैस और वायु के मिश्रण से जलाई गई अग्नि 2000 डिग्री सेन्टीग्रेड तक गर्म होती है जबकि परमाणवीय हाइड्रो-आक्सीजन की उपस्थिति में यही तापमान 3800 तक या 5000 सेन्टीग्रेड तक पहुँच जाता है, इस गुत्थी का कोई सुलझाव वैज्ञानिकों के पास नहीं है। इलेक्ट्रान, प्रोट्रान, न्यूट्रान की तरह अब प्रकाश के अणु ‘फोटोन्स’ के सम्बन्ध में काफी कुछ ज्ञात हुआ है पर अग्नि-स्फुल्लिंग की कोई भौतिक या रासायनिक व्याख्या अब तक नहीं हुई। एक नया खुला विस्तृत क्षेत्र है। इसलिये संसार के अनेक शोध संस्थानों विशेषकर इंग्लैंड के विश्व-विद्यालयों में इन दिनों अग्नि ज्वाला पर तेजी से अनुसंधान चल रहे हैं।

वैदिक ऋचायें जिन ‘देवताओं’ के लिये प्रयुक्त होती हैं उन पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि भारतीय तत्व दर्शियों ने “अग्नि-तत्व” पर जितनी गवेषणाएं की है उतनी अन्य किसी पर शायद ही की हों। उन्होंने अग्नि का रासायनिक और भौतिक ही नहीं, उसकी आध्यात्मिक शक्तियों का विस्तार से विश्लेषण किया है। पृथ्वी पर सामान्य स्थिति में पाई जाने वाले अग्नि को उन्होंने इतना ‘असामान्य’ पाया कि एक स्वतंत्र वेद “यजुर्वेद” की ही रचना करनी पड़ी। यह अग्नि ही है जिसके कारण प्राणिमात्र जीवन धारणा किये हैं। प्रजा की उत्पत्ति, बल और वीर्य की उत्पत्ति अग्नि के ही कारण हैं। मनुष्य के मुख मंडल पर विद्यमान चमक, तेजस् और आकर्षण, अग्नि की ही उपस्थिति का परिणाम होता है। “अग्नि” का शरीर से समाप्त हो जाना- शरीर का ठण्डा पड़ जाना ही मृत्यु मानी जाती है। यह गवेषणाएं प्रमाण हैं कि ऋषियों ने अग्नि तत्व की सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवस्था तक का ज्ञान प्राप्त किया था। अग्नि-पूजा को आज कई भौतिकवादी व्यक्ति एक बेकार का काम समझ कर भारतीयों को अल्प-बुद्धि मानते हैं पर उनने यह नहीं जाना कि अग्नि का ही बल था जो भारतवर्ष ने सारे विश्व को प्रभाव में ले डाला था ऐसा कोई देश इस पृथ्वी में न था जो इसके चक्रवर्ती साम्राज्य में सम्मिलित न हुआ हो, भविष्य में भी हमारा गौरव, शौर्य और संसार के पथ-प्रदर्शन की क्षमता का विकास इन-देवता की कृपा और तत्व-ज्ञान पर ही निर्भर होगा।

“आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी” इन पंच महाभूतों में अग्नि का स्थान तीसरा है। शतपथ ब्राह्मण में आता है- दिवस्परि प्रथम अज्ञेऽअग्निः इति प्राणों वे दिवः। प्रणदु व एष प्रथमजायत। अस्तद् द्वितीयं परिजातवेदा। यदेन मदो द्वितीयं पुरुष विश्वोऽजनयत्। तृतीयम् पेस्वति। यदेन मदस् तृतीयम् अद्भ्योऽजनयत्।

अर्थात्- अग्नि का प्रथम जन्म प्राण अथवा वायु से आ (वायु न होने से अग्नि जल नहीं सकती) अग्नि में जो ज्योति है वह प्राण का ही प्रकट रूप है। दूसरा जन्म अब अण्ड हिरण्य गर्भ या गर्भ बना तब हुआ (वीर्य के जनन कोष स्पर्म- जो स्त्री के ओवम् से मिलते हैं वह अग्नि के रूप ही हैं) पृथ्वी की उत्पत्ति के समय वह अग्नि दहकता हुआ गोला थी ऐसा इतिहासकार भी मानते हैं हिरण्य गर्भ या गर्भ में अग्नि रूप प्रतिष्ठित जीवकोष को पुरुष होता है। (पुरुष का अर्थ का ऐसे अस्तित्व से है जो ज्ञाता अर्थात् सब कुछ जानता, अनुभव करता, बोलता, गुनता आदि क्रियायें करता हैं) इस दृष्टि से अग्नि ही पुरुष रूप में मनुष्य शरीर में अवतरित होता है। अग्नि की लौ में मध्य भाग ‘जातवेद अग्नि’ कहलाता है वही सब वस्तुओं का ज्ञाता होता है (वेदों का गहन अनुसंधान करने वाले विद्वान् एलिंग्न ने भी जातवेद का अर्थ ‘दि नोअर आफ बईग्’ माना है।) तीसरा जन्म अग्नि का ‘अपो’ में हुआ अर्थात् अग्नि से ही जी की उत्पत्ति हुई और जिस तरह प्रत्येक भूत दूसरे भूत तत्व में समाया रहता है अग्नि भी जल में समाविष्ट हो गये।

ऋग्वेद का ‘अपाँ नपात् परितस्थुरापः” 2/35/3 कथन इसी तथ्य का प्रतिपादन करता है। अर्थात् अपाँ नपात् (अग्नि) को चारों ओर से आप ने घेर लिया। आपः की परिभाषा महाभारत में इस तरह की है-

अपाँ शैत्यं रसः क्लेदो द्रवत्वं स्नेह सौम्यता। जिह्ना विस्यन्दनं चापि भौमानाँ श्रवणं तथा॥

अर्थात्- भूमिगत अपों (जल) का गुण, शैत्य, रस, गोलापन द्रवत्व स्नेह, सौम्यता, जिह्वा, विस्यन्दन एवं उबलना भी है।

आप का दूसरा रूप गैस या सूक्ष्म तत्व प्राण के रूप में है। आप को विधा (यजु 14/7) अर्थात् वह जो सब कुछ बनाता है। प्राण रूप में गैस (नोबुला) ही सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है यह अब खगोल शास्त्री भी मानते हैं। दिव्या आपः (जैमिनी ब्राह्मण 1/45) अर्थात् उनका रूप दिव्य था। प्राण वस्तुतः एक चमकदार तत्व है जिसमें अग्नि के सभी गुण होते हैं।

उपरोक्त कथन में अग्नि के दिव्य गैस रूप (प्राण) से जी में उपस्थित होने तक का सारा विज्ञान दिया हुआ है इससे भी सूक्ष्म विज्ञान वैदिक ऋचाओं में है उसी की जानकारी और अनुभूति के फलस्वरूप भारतीय तत्वदर्शियों ने प्राण संचालन, इच्छा मृत्यु, अपने प्राणों से औरों का भला करना, अग्नेयास्त्र, परकाया प्रवेश औरों के मन की बात जान लेना आदि दिव्य शक्तियाँ प्राप्त की थीं। पंचाग्नि विद्या के नाम से शरीर में अग्नि-तत्व या प्राण के विकास का ही ज्ञान कठोपनिषद् में यमाचार्य ने नचिकेता और भृगु ने वरुण को कराया था। प्राण-विद्या वस्तुतः गूढ़ साइन्स है जो किसी भी परमाणविक क्षमता से अधिक महत्वपूर्ण है।

जैमिनी ब्राह्मण में अग्नि की तीन संज्ञायें दी गई है भूपति, भुवनपति, भूताना पतिः। विष्णु पुराण में इन तीनों के 25-25 भेद करके 45 अग्नियाँ बताई हैं। महाभारत में अग्नि के दस गुणा गिनाते हुए बताया गया है कि अग्नि तत्व के विकास से ही मनुष्य ऊर्ध्वमुखी शक्तियों से सम्बन्ध जोड़ता है-

अग्ने दुर्धर्षता ज्योतिस्पातः पाकः प्रकाशनम्। शौचं रागो लघुस्तैक्ष्ण्यं सततं चोर्ध्वगामिता॥ -शान्ति पर्व (महाभारत)

अर्थात्- अग्नि के (1) दुर्धर्षता, (2) ज्योति, (3) तापः, (4) पाकः, (5) प्रकाश, (6) शौच, (7) राग, (8) लघु, (9) तैक्षराय, (10) ऊर्ध्वगमन यह अग्नि के दस गुणा शरीर में प्रकट होते हैं अर्थात् शरीर में बल का संचार, चमक, गर्मी अग्नि के गुणा हैं वही अन्न पचाता है, वही ज्ञान करता है, शरीर की अशुद्धता को वही जलाता या दूर कराता है। उसी में आकर्षण का गुणा है, शरीर को हलका और शक्तिशाली रखता है। मानसिक शक्तियों को वही ऊपर उठाकर ले जाता है और देव शक्तियों से मेल कराकर आत्मा का विकास करता है।

यह दस गुणा पाँच प्राण और पाँच उपप्राणों की अलग-अलग क्रियायें तथा गुणा हैं। इनके विकास का अपना अलग विज्ञान है जो यज्ञ, प्राणायाम, ध्यान, वैदिक मन्त्रों के उच्चारण आदि के रूप में व्यवहृत हुआ है। आज यह सब बातें लोग भूलते जा रहे हैं इसीलिए आयु, शक्ति, बल, तेजस् और दिव्य शक्तियों के संपर्क से प्राप्त होने वाले लाभ नष्ट होते चले जा रहे हैं। संयमित जीवन से अपने आप शरीर में अग्नि तत्व के विकास का एक नैसर्गिक उपाय था वह भी नष्ट हो चला। इस तरह अग्नि देवता को कुपित कर संसार स्वतः दुःख की अग्नि में जलता जा रहा है। यदि शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक और आध्यात्मिक, धार्मिक उन्नति के द्वार खोलते हैं तो हमें फिर से अग्नि तत्व जैसे महाभूत की नये सिरे से खोज करनी होगी, प्रतिष्ठा देनी होगी और ऋषियों के दिये ज्ञान को धारण करना होगा।

विज्ञान की अब तक की थोड़ी-सी जानकारियाँ इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करती है। अग्नि-ज्वाला को आज एक रासायनिक क्रिया माना जाता है और विज्ञान यह मानता है कि उसमें वायु मंडलीय आक्सीजन की उपस्थिति मुख्य है। जो पदार्थ जलता है वही आक्सीजन के साथ प्रतिक्रिया उत्पन्न करके ऊष्मा पैदा करता है यदि आक्सीजन के साथ रासायनिक क्रिया अपूर्ण और जटिल हुई और पूरी तरह आक्सीकरण नहीं हो जाया तो गर्मी कम होगी यदि आक्सीकरण पूरा हो जाता है तो कार्बन डाई-आक्साइड गैस जो धुंये के रूप में निकलती है प्राप्त होती है। “शुचि अग्नि जलाशी” है जब हमारे तत्वदर्शी यह कहते थे तब लोग उपहास करते थे कि अग्नि से जल का क्या सम्बन्ध पर आज का विज्ञान भी इस बात को मानता है कि लौ से लगातार पानी निकलता है पर यह पानी गैस रूप में होता है हिन्दी डाइजेस्ट सन् 1968 के एक अंक में भी इस सत्य को स्वीकार किया गया। काठक सं. पृष्ठ 46 में “आपोवा इदं सर्वमाप्न वन” अर्थात् वह आपः सर्वव्यापी है ऐसा कहा है। तैत्तिरीय सं. 5/2/1 अग्नि का प्रियतनू छन्दं अर्थात् प्रवाह या “वैव्स” बताया है उसे इस बात के सन्देह नहीं रह जाता कि आकाश में जो सूक्ष्म अग्नि तत्व है या आपके संवाहक ‘नोबुलाज’ है उनमें मन रूपी प्राण स्फुल्लिंग को प्रवाहित कर सूक्ष्म लोकों की गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

अग्नि की व्याख्या थोड़े शब्दों में नहीं की जा सकती। जीवन और शब्द को धारण करने की सामर्थ्य अग्नि में ही है। आने वाले युग में वैज्ञानिक इस सम्बन्ध में जो जानकारी प्राप्त करेंगे वह जीवन तत्व के रहस्योद्घाटन में बहुत मददगार होगा इसमें सन्देह नहीं है। पर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण अग्नि का वेद विज्ञान है उससे जीवनी शक्ति के विकास में अलौकिक सुविधायें और सहायतायें प्राप्त की जा सकती हैं।


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