विज्ञान और धर्म में समन्वय अनिवार्य

April 1971

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भले ही पदार्थ के रूप में पर विज्ञान भी आन्तरिक सत्ता का ही उद्घाटन करता है। धर्म के क्षेत्र में परमात्मा एक विश्व व्यापक शक्ति है और पदार्थ भी शक्ति के ही कण है। सच तो यह है कि शक्ति के अतिरिक्त संसार में और कुछ है ही नहीं। धर्म उसे अंतःचेतना के रूप में देखता है। वह उदाहरण देता है कि गाँधी जी का आत्मबल ही था जिसने ब्रिटिश सत्त को बिना लड़े निकाल दिया और विज्ञान कहता है एक छोटे से शस्त्र ने जो हिरोशिमा के 70 हजार नागरिक पल भर में भून डाले वह क्या कम जबर्दस्त शक्ति थी। भले ही एक का स्वरूप रचनात्मक हो और दूसरे का स्वभाव ध्वंस, पर विज्ञान और धर्म दोनों ने ही शक्ति के एक ही स्वरूप की जानकारी दी है। दोनों में कोई विरोध नहीं है।

यह झगड़ तो राम और विश्व की तरह का है। राम शिव के उपासक है और शिव राम के। पर शिवजी के भक्त भूत-प्रेतों का स्वभाव, राम के भक्त रीछ-जानवरों के स्वभाव से नहीं मिलता। इसीलिये वे परस्पर लड़ते हैं। आज विज्ञान धर्मावलम्बियों को हीन मानता है। तो धर्म को मानने वाले भौतिकतावादी या पदार्थ की शक्ति पर विश्वास करने वालों भौतिकवादी या पदार्थ की शक्ति पर विश्वास करने वालों को ओछा मानते हैं। दरअसल दोनों को यह समझना चाहिए कि धर्म और विज्ञान के मूलभूत उद्देश्य एक ही सत्य को प्राप्त करना है।

रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में मंगल का उपवास लड़की भी रखती है और माँ भी दोनों के लिये मंगल एक ही है पर मान्यतायें अलग-अलग हैं। वह कहती है कि मैं मंगल का व्रत हूँ उद्देश्य दोनों के एक हैं केवल मैं- मैं का झगड़ा है।

धार्मिकता अनिवार्य होनी चाहिए पर उसका यह अर्थ नहीं कि विज्ञान को छोड़ दिया जाय। विज्ञान का परित्याग ही विश्वास को अन्ध विश्वास और श्रद्धा को अन्ध-श्रद्धा बनाता है। जबकि धर्म का उद्देश्य सत्य को विज्ञान विशिष्ट तरीके से ज्ञान प्राप्त कराता है और धर्म की अनुभूति भिन्न प्रकार की होती है। विज्ञान की दिशायें पदार्थ के ज्ञान की और बढ़ती हुई चली जाती हैं, और एक दिन वहाँ पहुंचेगी जहाँ से ईश्वरीय शक्तियों ने स्वेच्छा या अन्य किसी कारण से पदार्थ में परिवर्तन होना प्रारम्भ किया। इसी प्रकार आत्मा का प्रकाश तथा आत्मा की विशालता की अनुभूति भी एक दिन उसी सर्व व्यापी एवं चैतन्य तत्व तक पहुँचा देती है। दोनों एक ही स्थान से उठते हैं और दोनों के गन्तव्य भी एक हैं इसलिए उनको यहाँ भी साथ साथ ही रहना चाहिए। मनुष्य को इस जीवन में भौतिक सुखी की अनुभूति भी रहनी चाहिए और आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील भी, इसलिए दोनों का समन्वय आवश्यक हो जाता है।

अकेले विज्ञान को ही महत्व देना दो अंधों की कहानी की तरह होगा। एक बार एक अंधा अपने घर से निकल पड़ा और उन दरवाजे पर जाकर सहायता के लिए पुकारने लगा जिस घर में एक दूसरा अंधा रहता था। वह अन्धा बाहर तो आया पर कोई रास्ता बताने के पहले उसे यही पता लगाना कठिन हो गया कि यह अन्धा किधर से आया और वह किधर जाना चाहता है, वह दिशा किस तरह है। बेचारे से असमर्थता ही प्रकट करते बनी। यदि विज्ञान केवल पदार्थ से ही उलझा रहा तो मनुष्य शरीर में भावनाओं के ईश्वरत्व के विकास का क्या बनेगा? यदि सबकुछ पदार्थ को ही मान लिया गया तो प्रेम, मैत्री सेवा संतोष और शान्ति को भावनाओं का क्या होगा? क्या इनकी उपेक्षा करके मनुष्य सुखी रह सकता है?

भौतिकवादी दर्शन शास्त्र (मैटेलिस्टिक फिलास्फी) मृत्यु के बाद जीवन के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता लेकिन विज्ञान अब भौतिकता से आगे बढ़ गया है। अब यह माना जाने लगा है कि शरीर और विश्व में कुछ वस्तुओं जैसे संस्कार-कोष (जीन्स) अमर तत्व हैं उनका कभी नाश नहीं होता? उसी प्रकार अब भौतिकतावाद का यह सिद्धान्त पदार्थ का विद्युत आवेश है ऊर्जा केन्द्र (सेर्न्टस आफ एनर्जी) में वाष्पीकृत हो जाता है तब पदार्थ का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है और वह ऊर्जा (एनर्जी) में बदल जाता है। पदार्थ में भार होता है पर ऊर्जा (एनर्जी) में कोई भार नहीं रह जाता।

परा मनोविज्ञान अब मानस-विज्ञान के उप अध्याय में प्रवेश कर रहा है जिसे हम पुनर्जन्म कहते हैं और इस प्रकार विज्ञान धर्म की मान्यताओं पर आ रहा है यह कहा जा सकता है। भारत वर्ष के प्रायः सभी धर्म पुनर्जन्म को मानते हैं। मनोविज्ञान के अनुसंधान कर्त्ताओं को ऐसे लड़के लड़कियाँ मिली हैं जो अपने पूर्व जन्मों का हाल बताती हैं। अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डॉ. स्टीवेन्सन कुछ दिन पूर्व नई दिल्ली आये उन्होंने बताया कि मैंने विश्व के लगभग 500 मामलों का अध्ययन किया है उससे मुझे विश्वास हो गया है। कि पुनर्जन्म की कल्पना कपोल कल्पित नहीं। उनकी इस सम्मति को वैज्ञानिकों में बहुत महत्व दिया जा रहा है। यह बताता है कि वैज्ञानिक धार्मिक सत्यों से आँख नहीं मीचते वरन् वे अब उस स्थान पर हैं जहाँ से धर्म के सत्यों को सरलता से प्रतिपादित किया जा सकता है।

वैज्ञानिक रावर्ट ब्लेचफोड़ ने माना कि आज भौतिक पदार्थ और भोगवाद के पग उखाड़ दिये हैं और अब वह समय आ गया है जब विज्ञान खाओ पीओ मौज करो (ईटड्रिंग एण्ड बी मैरी) के भौतिकतावादी सिद्धान्त को फोड़ देगा और आध्यात्मिक क्षेत्र में जा प्रवेश करेगा।

डॉ. ब्लेचफोर्ड का यह सिद्धान्त अब पश्चिम (वेर्स्टन कन्ट्रीज) में फिलास्फी आफ ब्लेचफोर्ड (ब्लेचफोर्ड के सिद्धान्त) के नाम से तीव्रता से प्रसिद्धि पा रहा है। वहाँ का पाप और दुर्भाग्य से संतप्त जीवन अब अध्यात्म की शीतल छाया में बैठने के लिए भाग चला आ रहा है। जबकि धार्मिक जीवन का अन्ध विश्वास भी चरमरा कर टूट रहा है और वह विज्ञान से अपने प्रमाणित तथ्यों की खोज कराने के लिए निकल पड़ा है। दोनों समन्वय चाहते हैं और इस प्रकार मनुष्य की एक सच्चा मार्ग देना चाहते हैं जिसमें इस संसार की उपस्थिति को भी न त्यागा जाए और अपनी अदृश्य सत्ता को भी भुलाया न जाए। सत्य के अनुसंधान का यही समन्वय युक्त मार्ग सच्चा और व्यावहारिक होगा।

वैज्ञानिक तरीकों से प्राप्त ज्ञान में अन्तर ज्ञान तत्व अंतर्हित है जब कि आत्मा चेतना का प्रकाश भी सत्य को प्रकाशित करता है। दोनों ही रहस्य पूर्ण हैं और जैसा कि लयम जेम्स ने कहा-जीवन का सत्य भी रहस्य की में ही है। रहस्य में वास्तविकता भी हो सकती है। निरर्थकता एवं पथभ्रष्टता भी। इसलिए जब सत्य और रहस्यों की दिशा में बढ़े तब मनोवैज्ञानिक सत्य छुपे नहीं के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि धर्म और विज्ञान दोनों ही साथ साथ पथ प्रदर्शन करें जहाँ तक विज्ञान की पहुँच है वहाँ तक का अन्तर्ज्ञान ही देकर वह धर्म का रास्ता साफ करे और धर्म का कर्त्तव्य है कि वह वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ अपनी उपलब्धियों की संगतियाँ बैठाकर पास अपूर्णता को दूर करे जो विज्ञान के लिए आगे बढ़ने में आकस्मिक अवरोध के कारण उत्पन्न होती है। विज्ञान पदार्थ की स्थूलता का विश्लेषण कर सकता है, ज्ञान और अनुभूति का प्रसंग में वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। ज्ञान और अनुभूति के लिए विचार और भावनाओं की शक्तियाँ काम देती हैं और इनका विकास धार्मिकता के अंतर्गत आता है। मनुष्य पदार्थ और भावनाओं का मिला जुला स्वरूप है इसलिए सम्पूर्ण सत्य की खोज के लिए दोनों का विश्लेषण आवश्यक है अकेला विज्ञान भावनाओं की परिधि तक पहुँच कर रुक जाता है जब कि धर्म भी पदार्थ की जानकारी न दे सकने के कारण मनुष्य को उसके भौतिक आकर्षण से नहीं बचा पाता। इसलिये विकास और अन्तिम सत्य की खोज तभी संभव जब इनमें से किसी को भी छोड़ न जाये।


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