राजसूय यज्ञ समाप्त हो चुका था किन्तु साँस्कृतिक समारोहों की अब तक हस्तिनापुर में धूम मची हुई थी।
ऐसी ही एक रात दुर्योधन नाट्य-शाला से वापस लौट रहा था। मार्ग में स्फटिक का बना हुआ जल कुण्ड था चन्द्रमा के प्रकाश से उसका रंग इस तरह खिला था कि पर्याप्त प्रकाश होने पर भी किसी को यह भ्रम नहीं हो सकता था कि यहाँ पर जल है। दुर्योधन को भी भ्रम हुआ और वह सीधा चलता चला गया और जल से भरे उस हौज में जा गिरा।
पाँडवों का अन्तःपुर समीप ही था। राजरानी द्रौपदी मरकत-मणि के प्रकाश में बृहदारण्यक का अध्ययन कर रही थी। हौज में किसी के गिरने की आवाज से उनका ध्यान उधर आकर्षित हुआ तो देखा दुर्योधन गिर पड़ा है। इतने दिनों की घृणा अचानक हृदय से वाणी में उत्तर आई और निकल ही तो गया उनके मुख से “अन्धों के अन्धे ही होते हैं।”
शब्द दुर्योधन के कान तक पहुँचे। उसने इसे जातीय अपमान समझा। उसका सारा शरीर प्रतिशोध की आग में जल उठा। दुर्योधन ने वहीं प्रतिज्ञा की- “द्रौपदी को नग्न करके अपनी जाँघ पर न बैठाया तो मेरा भी नाम दुर्योधन नहीं।
इतिहास की प्रसिद्ध घटना है कि इन 3 शब्दों- दस अक्षरों की प्रतिक्रिया ही थी कि जब पांडव द्यूत-क्रीड़ा में द्रौपदी को भी हार गये तो दुर्योधन ने अपनी वह प्रतिज्ञा पूरी की और उसी के कारण इतना बड़ा महाभारत रचा गया।