रोम-रोम पुलकित (kahani)

June 2003

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प्रचंड अंतर्दाह से एक विराट पिंड खंड-खंड होकर आकाश से टूट पड़ा और अंतरिक्ष में घूमने लगा। एक खंड विधाता से सम्मुख भी जा गिरा।

उन्होंने सोचा, इससे क्रीड़ा की जाए। किन्तु ओह, यह तो अंगार की तरह गरम था। विधाता ने जल में विहार करने के लिए छोड़ दिया। जब निकाला तो पता चला कि उसमें स्पंदन है।

विधाता ने पूछा, क्या तुममें स्पंदन है? हाँ का उत्तर पाकर विधाता ने फिर पूछा, तुम्हारा नाम क्या है? अनाम पिंड ने कहा, मेरा नाम कुछ भी नहीं है। विनोदी विधाता ने उसका नाम वसुधा रखकर कहा, लो तुम्हारा नाम रख दिया। अब प्रसन्न होकर हंसो, खेलो और मंगल मनाओ।

वसुधा ने एक गर्म अच्छवास छोड़कर कहा, निर्माता मेरे अंतर में अनंत दाह भरा है, मैं किस प्रकार हंस सकती हूँ।

विधाता ने उसे हरी-भरी वनस्पति से भर दिया और कहा, अब तो हंसोगी? वसुधा ने फिर उच्छवास छोड़ा, वह भी गरम था। अब विधाता ने उसे एक शिशु प्राणी प्रदान करके कहा, ले यह मानव शिशु तेरी प्रसन्नता का हेतु बनेगा।

मनुष्य वसुधा की गोद में बड़ा हुआ, उसने अपने परिश्रम से माँ वसुधा को सजा दिया। वसुधा का शृंगार देखकर विधाता ने एक दिन पूछा, वसुधे, अब तो तुम्हारी प्रसन्नता का पारावार न होगा। वसुधा ने पुनः उच्छवास छोड़ा, वह भी गरम था। विधाता ने झुँझलाकर कहा, तू कभी सुखी नहीं हो सकती और वे नाराज होकर चले गए।

एक दिन मधुर संगीत से विधाता की नींद टूटी। उन्होंने उठकर देखा, वसुँधरा गा रही थी। विधाता ने उसकी प्रसन्नता का हेतु पूछा। प्रसन्न मन से वसुधा बोल उठी, स्रष्टा, जब मेरे पुत्र निस्स्वार्थ भाव से एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, मिल-जुलकर मेरे वैभव का आनंद उठाते हैं तो उनके इस सहकार को देखकर मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठता है।


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