रुकूँगा तो इधर-उधर भटकूँगा (kahani)

June 2003

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घोर अंधेरी रात, जब हाथ-को-हाथ नहीं सूझता था। झरना अपने अविरल प्रवाह से कल-कल करता हुआ एकाँत निर्जन विजन में बहता चला जा रहा था। एक पहाड़ी उपत्यिका ने पूछा, ‘निर्झर! तुम्हें थकावट नहीं आती क्या? तनिक रुको, कुछ विश्राम भी तो कर लिया करो।’

झरने से उत्तर दया, ‘बहन! मुझे जिस महासागर से मिलना है, उसकी दूरी अनंत है। रुकूँगा तो इधर-उधर भटकूँगा। चलते रहने से तो वह दूरी कम ही होगी।’


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