आदेश प्रदान किया (kahani)

June 2003

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रक्षाबंधन का पुनीत पर्व था। बीकानेर नरेश का दरबार लगा हुआ था। राजद्वार पर ब्राह्मणों के मध्य मालवीय जी भी नारियल लिए खड़े थे। शनैः शनैः कतार छोटी होती जा रही थी। प्रत्येक ब्राह्मण, नरेश के पास जाकर राखी बाँधता और दक्षिणा के रूप में एक रुपया प्राप्त कर खुशी-खुशी घर लौटता जा रह था।

मालवीय जी का नंबर आया तो वे भी नरेश के समक्ष पहुँचे, राखी बाँधी, नारियल भेंट किया और संस्कृत में स्वरचित आशीर्वाद दिया। नरेश के मन में इस विद्वान का परिचय जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। जब उन्हें मालूम हुआ कि यह तो मालवीय जी हैं, तो वह बहुत प्रसन्न हुए और अपने भाग्य की मन-ही-मन सराहना करने लगे। मालवीय जी ने विश्वविद्यालय की रसीद वहीं उनके सामने रख दी। उन्होंने भी तत्काल एक सहस्र मुद्रा लिखकर हस्ताक्षर कर दिए। नरेश अच्छी तरह जानते थे कि मालवीय जी द्वारा संचित किया हुआ सारा द्रव्य विश्वविद्यालय के निर्माण कार्यों में ही व्यय होने वाला है।

मालवीय जी ने विश्वविद्यालय की समूची रूपरेखा नरेश के सम्मुख रखी। उस पर संभावित व्यय तथा समाज को होने वाला लाभ भी बताया तो नरेश मुग्ध हो गए और सोचने लगे, इतने बड़े कार्य में एक सहस्र मुद्राओं से क्या होने वाला है, उन्होंने पूर्व लिखित राशि पर दो शून्य और बढ़ा दिए, साथ ही अपने कोषाध्यक्ष को एक लाख मुद्राएं देने का आदेश प्रदान किया।


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