चेतना की शिखर यात्रा-16 - बलिहारी गुरु आपुनो-4

June 2003

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श्रीराम का अपनी सूक्ष्मशरीरधारी हिमालयवासी गुरुसत्ता से पंद्रह वर्ष की आयु में (1926 वसंत पर्व) साक्षात्कार हुआ और उनसे जो भी कुछ अपने शिष्य को बताया, वह तीन किश्तों में पढ़ा जा चुका। अब इस प्रकरण की समापन किश्त।

मार्गदर्शक सत्ता का आदेश

‘जो कबीर था, जो रामदास था और जो रामकृष्ण था, वही तुम हो। यह अंतर्दर्शन थकाने या चमत्कृत करने के लिए नहीं हैं।’ प्रकाश की भाँति ही दिखाई दे रही उस मार्गदर्शक सत्ता के होंठ हिले। उस कंपन से जो निर्देश प्रस्फुटित हो रहे थे, उनमें कोई ध्वनि नहीं थी। परावाणी भी नहीं कह सकते, क्योंकि उसके लिए होठों के कंपन भी आवश्यक नहीं। नाभि या हृदय से उद्धृत पश्यंती स्तर की यह वाणी केवल उसी व्यक्ति को सुनाई देती है, जिसके लिए वह निःसृत होती है। गुरुदेव कह रहे थे, ‘अभी तुम्हारे लिए एक ही प्रेरणा है, इसे निर्देश भी मानें। यह प्रेरणा है-साधना।’

सहज और सामान्य भाव से बैठे श्रीराम के मन में जिज्ञासा उठी। उसे कुतूहल भी कह सकते हैं। मार्गदर्शक सत्ता से प्रथम दृष्टि में ही परिचय इतना प्रगाढ़ हो गया भी मान सकते हैं कि अटपटा प्रश्न पूछने में भी कोई संकोच न हो। साधना में बैठे श्रीराम ने अपनी मार्गदर्शक सत्ता से पूछा, ‘हम तो आपको खोजते हुए नहीं आए थे। आपने हमें क्यों ढूँढ़ा और अचानक साधना का आदेश क्यों दिया? किस तरह की साधना?’ कहते-कहते श्रीराम के अधरों पर एक मुसकान खिल उठी।

मार्गदर्शक सत्ता भी मुस्कराई। घनी और लंबी मूछों के पीछे छिपे होठों पर वह मुसकान साफ दिखाई देती थी। उन्होंने कहा, ‘गुरु की शिष्य को खोजता है। शिष्य गुरु को नहीं। पिछले कई जन्मों की यात्रा तुमने इस शरीर के साथ संपन्न की है। इसके साथ अंगुली पकड़कर चले हो। अब होश संभाला और यात्रा करने की स्थिति में आए तो हमने तुम्हें पकड़ लिया।’ उस दिव्य आभामंडल से जब यह ‘शरीर’ संबोधन सुनाई देता था तो संकेत उस आभामंडल की ओर रही होता था।

‘यह तुम्हारा दिव्य जन्म है। इस जन्म में भी हम तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे, सहायक रहेंगे। तुमसे वह सब कराएंगे, जो युगधर्म की स्थापना के लिए आवश्यक है।’ उस दिव्य आत्मा ने श्रीराम के इस जीवन का क्रम निर्धारण जैसे पहले ही कर रखा था। कहने लगे, ‘ईश्वर को जिनसे जो काम लेना होता है, उसके लिए आवश्यक बल और साधन भी पहले से ही तैयार रखते हैं, लेकिन वे अनायास ही नहीं मिल जाते। उनके लिए साधना का पुरुषार्थ करना ही पड़ता है।’

‘आज से और अभी ने अपने आपको विशिष्ट साधना में सन्नद्ध करो। साधना का एक चरण चौबीस वर्ष तक महापुरश्चरण की शृंखला चलाने के रूप में है। एक वर्ष में गायत्री महामंत्र के चौबीस लाख जप का एक महापुरश्चरण संपन्न करना है। आहार-विहार में संयम ही पर्याप्त नहीं है। उसके लिए तपश्चर्या का अनुशासन भी अपनाया जाना चाहिए। वह अनुशासन नियत कर दिया गया है। जौ के आटे से बनी हुई रोटी और गाय के दूध से बना मठा। शरीर चल जाए, इतना ही आहार लेना है। स्वाद और गंध के साथ आहार में पौष्टिकता पर भी ध्यान नहीं देना है। सौंपे गए कार्यों के लिए जितना स्वास्थ्य और ओज चाहिए, उसकी पूर्ति दिव्य शक्तियाँ करती रहेंगी।’

चल पड़ा कठोर तप

उपासना का जो क्रम निर्धारित हुआ, वह कम-से-कम छह घंटे चलने वाला था। मार्गदर्शक सत्ता ने जिस दिन साधना में नियोजित किया, उस दिन वसंत पंचमी थी। निर्धारित उपासना संपन्न हो चुकी थी। जप निवेदन के बाद विसर्जन और समर्पण का विधान ही शेष रह गया था। श्रीराम ने उस उपचार को स्थगित किया और निर्दिष्ट क्रम के अनुसार आगे का जप आरंभ किया। एक वर्ष में 24 लाख जप का अनुष्ठान संपन्न करने के लिए छियासठ मालाओं का जप (लगभग सात हजार बार गायत्री मंत्र का उच्चारण) आवश्यक है। उस दिन सूर्योदय के बाद करीब पाँच घंटे तक बैठे रहे, साधना करते रहे।

जब कब पूरा हो गया, कुछ पता ही नहीं चला। जप और सविता देवता के ध्यान के समय साधना के संबंध में तरह-तरह की जिज्ञासाएं उठी। उन्हें पूछने के लिए शब्द नहीं तलाशने पड़े। बिना पूछे ही प्रश्न संप्रेषित हो गए और उस दिव्य आत्मा के सान्निध्य में समाधान भी अपने आप होते गए। एक जिज्ञासा थी गुरुदेव कहाँ रहते हैं? उत्तर आया, हिमालय के हृदय देश में। वहाँ सामान्य शरीर से किसी का भी पहुँच पाना संभव नहीं है। स्थूलशरीर की सीमा है। वह सामान्य दुर्गम प्रदेशों में भी नहीं जा सकता। हिमालय का हृदय प्रदेश कहे जाने वाले क्षेत्र में असंभव ही है। सामान्य सूक्ष्मशरीर से पहुँचना भी मुश्किल है।

समाधान के अगले चरण में यह भी स्पष्ट हुआ कि गुरुदेव का स्थूल स्वरूप सैकड़ों वर्ष पुराना है। उसका परिचय और इतिहास लगभग अविज्ञात है। उस शरीर से किए गए काम ही आज उनका परिचय बने हुए हैं। इतिहास की खोजबीन की जा रही है, लेकिन वह अब भी अधूरी है। कुछ प्रमाणों के अनुसार उनका दैहिक स्वरूप साढ़े छह सौ या सात सौ वर्ष पुराना है। कुछ के अनुसार ढाई हजार साल से भी ज्यादा प्राचीन है। अनुष्ठान के पहले दिन, प्रारंभ में ही उत्कंठा जगी कि उस स्वरूप का परिचय प्राप्त किया जाए, लेकिन उत्तर में एक सन्नाटा ही सुनाई दिया। उस सन्नाटे में सिर्फ एक बोध तैर रहा था कि सर्व के अधिपति ईश्वर की सत्ता का जो निर्विकार आनंद है, वही गुरुदेव के परिचय का प्रतीक है। हृदय प्रदेश के जिन साधकों या सिद्धों ने अपनी सूक्ष्म उपस्थिति के प्रमाण दिए थे, उन्होंने गुरुदेव का नाम स्वामी सर्वेश्वरानंद बताया था।

स्थूल की सीमा और आवश्यकता

गुरुदेव जैसे कह रहे थे, स्थूल से एक सीमा तक ही काम किया जा सकता है। वे कितने ही महान और विराट हों, उनसे दिव्य प्रयोजन सिद्ध नहीं होते। दिव्य प्रयोजनों के लिए शरीर को सूक्ष्म स्तर तक ले जाना और सिद्ध करना पड़ता है। कठोर तपश्चर्या का उद्देश्य शरीर को सूक्ष्म स्तर तक ले जाना ही है।

अव्यक्त रूप से ही प्रश्न उठा, स्थूलशरीर की विशेष उपयोगिता नहीं है तो इस शरीर को बचाए क्यों रखा जाए? सीधे सूक्ष्म में ही विलय क्यों नहीं कर दिया जाए, इस प्रश्न का समाधान भी जैसे हृदय प्रदेश से आया, स्थूलशरीर का भी अपना महत्त्व है। यह ठीक है कि स्थूलशरीर की बहुत सी शक्ति तो शरीर की आवश्यकताएं जुटाने में ही लग जाती है। रोग, बीमारी, दुर्बलता और एक अवस्था के बाद आने वाली ‘जरा’ शरीर को ज्यादा काम नहीं करने देती। शरीर की अधिकाँश ऊर्जा इसे संभालने और चलाने में ही खर्च हो जाती है। फिर भी उसका उपयोग है। दिखाई देने वाले काम इस स्थूलशरीर से ही पूरे होते हैं।

जिस क्षेत्र में गुरुदेव का, मार्गदर्शक सत्ता का निवास है, क्या वहाँ जाया जा सकता है? मन में यह प्रश्न उठा ही था कि क्या वहाँ जाया जा सकता है? मन में यह प्रश्न उठा ही था कि तत्क्षण उत्तर आया। तत्क्षण कहना भी गलत होगा, प्रश्न के साथ ही समाधान भी आ गया। चेतना में समय और सीमा तो रह नहीं गई थी, इसलिए यह भी कहा जा सकता है प्रश्न और उत्तर में पहले शायद उत्तर ही आया हो। कहा गया अथवा प्रतीत हुआ, आश्वस्त किया गया कि उचित समय आने पर तुम्हारा परिचय देवात्मा हिमालय से भी कराया जाएगा। इस शरीर और स्वरूप की कठिनाई है, अन्यथा तुम्हें स्मरण होना चाहिए कि वस्तुतः तुम उसी क्षेत्र के निवासी हो। एक विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए यहाँ भेजे गए। लौकिक कार्य संपन्न करने हैं, इसलिए शरीर का थोड़ा आवरण डाल दिया गया है।

हिमालय का यह हृदय प्रदेश कैलाश के पास स्थित है। वह कैलाश नहीं, जिसे लोग नक्शे पर चिह्नित करते हैं। सिद्धजनों का कैलाश सर्वथा भिन्न और विलक्षण है। संत-महापुरुष गोमुख के आस-पास निवास करते हैं। केदार क्षेत्र में भी उनके लिए उपयुक्त स्थान है। वहाँ रहकर वे सूक्ष्मलोक में जाने की तैयारी करते हैं। सभी लोग नहीं पहुँच पाते। इक्का-दुक्का ही जा पाते हैं। गीता के इस वचन की तरह कि हजारों मनुष्यों में कोई एक ही उसकी प्राप्ति के लिए यत्न करता है। उन यत्न करने वालों में भी एक ही उपलब्ध हो पाता है।

हिमालय का हृदय अध्यात्म चेतना के ध्रुव केन्द्र तक पहुँचने के बारे में भी यही समझना चाहिए। दिया गया साधनाक्रम ठीक से चलने के बाद तुम्हें वहाँ बुलाया जाएगा। चार दिन की अवधि के लिए वहाँ रहना होगा। हम ‘मार्गदर्शक सत्ता’ के रूप में साथ रहेंगे। सूक्ष्मशरीर धारण करने और उससे कहीं भी गति करने, प्रवेश पाने में कोई कठिनाई नहीं होगी। वैसी सुविधा-व्यवस्था बना दी जाएगी। प्रथम प्रयास के बाद तुम्हें अनुभव होगा कि अस्तित्व का सूक्ष्म रूप कितना समर्थ और सक्षम है। दोनों शरीरों का, सत्ता में दोनों रूपों का अनुभव करने के बाद तुम्हें आसानी रहेगी। समझ सकोगे कि ऋषिगण अपने संकल्पों को कैसे पूरा करते हैं। सौंपे गए महत्कार्य को संपन्न करने की क्षमता भी तुम उन ऋषिसत्ताओं के सान्निध्य में जा जाग्रत कर सकोगे।

दो और विशिष्ट दायित्व

पुरश्चरण साधना में नियुक्त किए जाने के दिन दो काम और सौंपे गए। वे थे तो महानुष्ठान के ही क्रम में, लेकिन उनका स्वरूप लौकिक ज्यादा था। प्रकाशपुँज से प्रेरणा आ रही थी, गाँव-समाज में जो भी गलत होता दिखाई दे, उसका विरोध करना है। उसे नहीं होने देना है और ऐसी तैयारी जुटाना है कि आगे भी नहीं हो सके। इसके लिए लोगों को समझा-सिखाकर तैयार करना है।

भगवान भारत को विदेशी दासता से मुक्त कराना चाहते हैं, त्रिगुणमयी माया से तमस् पक्ष को अब पार्श्व में जाना है। भगवान की इच्छा से विश्व में भारत को नई भूमिका निभानी है। आने वाली शताब्दियाँ भारत के गौरव को फिर से प्रतिष्ठित करेंगी। इसके लिए भारत का स्वतंत्र होना आवश्यक है। उन्हीं की प्रेरणा से जनमानस में स्वतंत्रता का उभार आ रहा है। उभार को समर्थ बनाने में तुम भी सहयोगी बनो।

जहाँ आवश्यक हो, वहाँ सक्रिय विरोध किया जाए। साधारण स्थितियों में लोगों को तैयार करने के लिए वाणी और लेखनी का सहारा लिया जाए। भगवान का संदेश पहुँचाने के लिए और भी उपाय हो सकते हैं। उन सबको अपनाया जाए। यह प्रेरणा उभरते समय मन में अन्यथा विचार भी सिर उठाते थे। विचारप्रवाह आगे बढ़ता कि दिव्य प्रेरणा ने उसे रोका। प्रति विचार आने लगे, साँस लेने और चलने की तरह भगवान बंधन मुक्ति की प्रेरणा भी अपने आप उभार सकते हैं, लेकिन उनकी योजना मनुष्य को पुरुषार्थी बनाने की है। जो धर्मयुद्ध अगले दिनों लड़ा जाना है, उसमें सभी को भागीदार बनना है। जरूरी नहीं कि सभी लोग महायोद्धा हो। रीछ-वानरों और गिलहरी जैसे क्षुद्र कहे जाने वाले प्राणियों को भी हिस्सा लेना है। छोटी-बड़ी, अच्छी-बुरी और पक्ष-विपक्ष की सभी भूमिकाएं निश्चित की जा चुकी है। जय-पराजय भी निश्चित हो गई। तुम्हें लोगों तक सिर्फ संदेश पहुँचाना है। यह मत सोचो कि अकेले क्या कर पाओगे? संगी-साथियों का एक विशाल समुदाय तुम्हारी प्रतीक्षा करता हुआ दिखाई देगा। समय के साथ वह फैलता जाएगा, तुम्हें उनका मार्गदर्शन करना है।

स्वतंत्रता आँदोलन में भागीदारी और लोकशिक्षण की योजना ने जैसे अंतिम रूप ग्रहण कर लिया। विचार और संकल्प विकल्प के साथ ध्यान और सन्निधि का प्रवाह पूरी अवधि में ही बहता रहा। चित्त कभी सविता देवता के ध्यान में डूब जाता, कभी लगता कि उनके तेज में अपना आपा खो गया है, सब कुछ जलकर भस्म हो गया है। कुछ पल बाद अपनी स्वतंत्र चेतना का फिर भान होने लगता है, लेकिन वह ज्यादा परिपक्व और समर्थ अनुभव होता। पहले ही तुलना में सुदृढ़। जैसे चेतना का रसायन बदल रहा हो, वह कुछ-की-कुछ होती जा रही हो।

माँ का उलाहना

इस बीच माँ ने पूजा की कोठरी में कई बार झाँका। और दिन तो सूरज का सिंदूरी वर्ण बदलते ही श्रीराम अपनी संध्या कर उठ आते हैं। आज क्या हो गया? संध्या अभी तक संपन्न क्यों नहीं हुई? कहीं पिछले दिनों लगी समाधि जैसी अवस्था में तो नहीं पहुँच गया? उस समय तो श्रीराम के पिता जीवित थे, सब विधि-विधान जानते थे। समाधि से वापस ले आए थे। अब फिर वैसी ही समाधि लगाई तो कौन वापस लाएगा? माँ को तरह-तरह की चिंताएं उठती जा रही थीं। इधर नए साधनाक्रम को आरंभ करते हुए श्रीराम अपनी मार्गदर्शक सत्ता को सामने ही अनुभव कर रहे थे। उनकी उपस्थिति मन, प्राण और चेतना में रमती जा रही थी।

‘आज क्या पूरे दिन ही कोठरी में बैठे रहोगे। जगन्माता को तो विश्राम करने दो श्रीराम।’ गुरुसत्ता के सान्निध्य का वह अध्याय पूरा होने के बाद यथार्थ जगत का पहला अनुभव माँ की यह पुकार थी। कोठरी में कई बार झाँक जाने के बाद उनसे रहा नहीं गया। अपनी समझ से उन्होंने लाड़ले को जगाने की चेष्टा की और श्रीराम ने उठने का उपक्रम किया। माँ अपने दुलारे को उठने की तैयारी करते देख वापस चली गई। वेदी पर रखे दीपक में श्रीराम ने कुछ घी और डाला। अब तक का क्रम था कि पूजा संपन्न होने के बाद दीपक को जलते रहने दिया जाता। घी समाप्त होने के बाद बत्ती पूरी जल जाती और दीपक की लौ हवा में लीन हो जाती। नए सिरे से घी डालने का अर्थ था ज्योति प्रज्वलित रहेगी। गुरुदेव का बताया हुआ विधान व्यवहार में उतर आया था। महापुरश्चरण साधना के साथ अखण्ड ज्योति का भी अवतरण उसी दिन वसंत पंचमी पर संपन्न हुआ। तभी से यह अखण्ड दीपक प्रज्वलित है। क्रमशः आगरा, मथुरा होकर 75 वर्ष की यात्रा कर चुका है। सन 1971 से यह शाँतिकुँज, हरिद्वार में स्थापित है।

श्रीराम ने सामने विराजमान जगन्माता को प्रमाण किया, उस दिन विसर्जन नहीं किया। संध्या गायत्री के सामान्य जप में आवाहन के बाद विसर्जन की प्रक्रिया भी संपन्न की जाती है। महापुरश्चरण में विसर्जन नहीं किया जाता, क्योंकि वह सतत चलते रहते रहने वाला अनुष्ठान है। दैनिक उपासना एक ही दिन में पूरा जाने वाला अध्याय है तो महापुरश्चरण एक विराट ग्रंथ के अखंड पाठ की तरह है, जिसमें कितने ही अध्याय होते हैं। उन सबके अवगाहन में लंबा समय चाहिए। जब तक वह पूरा नहीं हो जाता, देवशक्तियों की अर्चना अभ्यर्थना चलती रही रहती है। उनकी उपस्थिति का सम्मान किया जाता है। अपना आचरण, चिंतन और स्तर उनकी गरिमा के अनुरूप रखने की सावधानी रखी जाती है। प्राणपण से उनका निर्वाह किया जाता है। अखंड दीपक की स्थापना और निरंतरता उस उपस्थिति के स्थूल प्रमाण के रूप में थी।

पूजागृह से बाहर आए तो माँ ने फिर वही उलाहना दिया, ‘गायत्री माता से इतनी देर क्या कहता रहा? उन्हें भी चैन लेने देगा या नहीं?’ कहते-कहते ताईजी के चेहरे पर इठलाता हुआ दुलार छलक आया। उसमें कहीं-न कहीं गर्व और संतोष भी छलक रहा था कि पुत्र अपने पितृपुरुषों की राह पर चलने की तैयारी कर रहा है। उनके हिसाब से पूजा-पाठ की अगली कड़ी पुरोहिताई और कथा वार्ता ही होनी चाहिए। श्रीराम कड़ी पुरोहिताई और कथा-वार्ता ही होनी चाहिए। श्रीराम ने कोई उत्तर नहीं दिया। चुपचाप कुछ सोचते रहे। माँ ने फिर पूछा, ‘क्या कहा गायत्री माता ने? तुमने उनसे इतनी लंबी पूजा करके क्या माँगा?’

‘कुछ नहीं माँगा’ श्रीराम ने कहा, ‘संध्या करते समय हमारे गुरुदेव प्रकट हो गए थे। उन्होंने आगे का रास्ता बताया कि क्या करना है? उनके बताए रास्ते पर चलना है।’

‘क्या रास्ता बताया उन्होंने? कहीं तू मुझे दिया वचन तो तोड़ने नहीं जा रहा। तेरे गुरुदेव ने क्या संन्यासी बनने के लिए कहा है?’ ताई जी अधीर हो उठीं। श्रीराम ने उन्हें धीरज बंधाया, ‘नहीं माँ, नहीं। गुरुदेव ने आपके पास रहकर ही साधना करने के लिए कहा है। पाँच-छह घंटे रोज प्रतिदिन जप-ध्यान करूंगा। गुरुदेव ने कहा है कि चौबीस साल तक साधना करनी है। गाय के दूध से बनी छाछ और जौ की रोटी का आहार लेना है। पूजा की कोठरी में वह जो दीपक जल रहा है न, उसे अखंड ही रखना है। दीपक में घी हमेशा भरा रहे।’

अखंड दीप प्रज्वलन की घोषणा

‘चौबीस साल क्या पूरे जीवन साधना करता रहा। मुझे क्या फर्क पड़ता है? मैं तो सिर्फ इतना चाहती हूँ कि तुम मेरे पास बने रहो। मुझसे दूर कभी न जाना।’ ताई जी ने आश्वस्त करते हुए कहा। फिर कुछ देर सोचती रहीं। अपने आप में डूबे रहकर ही वे अचानक पुलक उठी। मन में कोई स्फुरणा जगी थी शायद। श्रीराम को पुकारा और उसी पुलक के साथ कहने लगीं, ‘दीपक अखंड रखना है। उसका घी कब तक चलता है, कब नया घी भरना है। यह ध्यान रखने के लिए पूरे समय की निगरानी चाहिए। मैं नहीं कर सकूँगी, यह निगरानी।’

श्रीराम ताई जी की बात गौर से सुन रहे थे और उनके चेहरे पर छाई पुलक भी निहार रहे थे। ताई जी कुछ पल रुकी, ‘अब तुम शादी लायक भी हो गए हो। ब्याह कर लो। घर में बहू आ जाएगी तो वह अखंड दीपक का भी ध्यान रखेगी। मुझे भी सहारा होगा।’

श्रीराम ने कुछ नहीं कहा। उनके मौन को माँ ने स्वीकृति माना। वे कुछ कहते तो अपने अधिकार का उपयोग करने की बात भी मन ही-मन तय कर रखी थी, लेकिन वह स्थिति नहीं आई। उसी दिन ताई जी ने अपने सगे-संबंधियों को उपयुक्त कन्या बताने के लिए कहना शुरू कर दिया। ताई जी क्या कर रही है, इस बात से सर्वथा असंतृप्त रहते हुए श्रीराम आगे की व्यवस्थाओं के बारे में सोचने लगे। माँ से बातचीत के बाद वे बाड़े में गए और एक कपिला गाये को सेवा के लिए चुन लिया। इस चुनाव में कपिला गाय के दूध से बने घी और मठे का ही उपयोग करने का निश्चय भी था।

कपिला गाय का गोबर इकट्ठा किया। उससे पूजा-कक्ष को लीपा। माँ ने देखा तो कुछ नहीं कहा। और दिनों में श्रीराम कोई काम अपने हाथ से करते तो रोक लेती थीं। आज चार-पाँच घंटे की पूजा के बाद गुरुदेव के मिलने और चौबीस वर्षों की साधना का व्रत लेने की बात ने कोई हस्तक्षेप करने से रोक दिया। जानती थीं कि श्रीराम के हाथ से लेकर पूजाकक्ष को संभालने की कोशिश करेंगी तो वह पुत्र राजी नहीं होगा। दो तीन बार रुककर देखा, किसी तरह के सहयोग की माँग उठने की आस में ठिठकी भी रहीं। लेकिन श्रीराम पूजाकक्ष की व्यवस्था में इस तन्मयता से जुटे रहे, जैसे समाधि लग गई हो। कौन आ रहा है और कौन जा रहा है, क्या कर रहा है? उन्हें कोई सुध नहीं थी।

दीपक को अखंड रखने का संकल्प करने के बाद बाती की प्रतिष्ठा एक बड़े दीये में कर दी गई थी। उस दिन पूरे समय ध्यान रखा। अभ्यास के बाद बहुत ज्यादा चिंता नहीं करनी पड़ी। वसंत की उस शाम भी श्रीराम ने और दिन की अपेक्षा संध्या पूजा में ज्यादा समय लगाया। करीब दो घंटे तक जप में बैठे रहे। वह सुबह और शाम उनके अपने जीवन में ही नहीं, जगत के इतिहास में भी एक नया पन्ना लिख गई।


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