समुद्र खौलाया जाने लगा तो डरी-सहमी जल की बूँदें विधाता के पास जाकर कहने लगीं, पितामाह! हमें कष्ट क्यों देते हो, हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? विधाता ने बहुतेरा समझाया, बूंदों! तुम आकाश में उड़ोगी, जहाँ बरसोगी, वहीं हरियाली फूटेगी और संसार को प्रसन्नता मिलेगी, पर वह उपदेश बूँदों को अच्छा न लगा। वे लौटीं तो पर विधाता को गालियाँ ही देती रहीं।
समुद्र जल की बूँदों को आकाश में फेंक दिया, फिर वे धरती पर गिरीं और बहते-बहते समुद्र में फिर जा पहुँची, तब उन्हें पता चला कि अरे हम तो व्यर्थ ही डरते रहे, हमारा तो कुछ भी नहीं बिगड़ा। उधर स्वाति नक्षत्र आ गया तो बूँदें एक बार फिर उमड़ी, इस बार उनमें न भय था, न उद्वेग। हंसती-खिलखिलाती बूँदें आकाश से झरने लगीं, कोई बाँस में गिरी तो वंशलोचन बन गई, कोई कदली में गिरी तो कपूर और सीपी के मुख में गिरी तो मोती बन गई।
विधाता विचार कर रहे थे कि मनुष्य भी संकट और साधनाओं से विचलित न होता तो आज वह भी बूँदों के समान वंशलोचन, कपूर और मोती बन गया होता।