परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - अभिभावक हैं तो उत्तरदायित्व भी

June 2003

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परमपूज्य गुरुदेव के उद्बोधन के विगत अंक में प्रकाशित अंश का उत्तरार्द्ध

मित्रो! यह ख्याल सही नहीं है कि अमुक जगह, अमुक कॉलेज, अमुक विद्यालय या अमुक स्कूल में भेज देंगे तो हमारे बच्चे योग्य बन जाएंगे और संस्कारवान बन जाएंगे।जब हम बच्चों को स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने के लिए भेजते हैं, विद्यालय में भेजते हैं, उस समय तक उसकी वह उम्र समाप्त हो जाती हैं, उस समय तक उसकी वह उम्र समाप्त हो जाती हैं, जिसमें बच्चे का निर्माण किया जाना संभव है। छोटे छोटे बालक किसी स्कूल में नहीं लिए जा सकते और न माता-पिता के बिना रखे जा सकते हैं। माता-पिता को अपने बालकों से पूरा प्रेम करना चाहिए। जो माता-पिता आपस में प्रेम नहीं रख सकते, वे बच्चों को भी प्रेम नहीं कर सकते। माता-पिता के बीच अनन्य प्रेम होना चाहिए और अनन्य निष्ठा होनी चाहिए। उन दोनों के बीच ऐसा कोई कारण नहीं होना चाहिए जिससे दोनों के बीच में अविश्वास और मनोमालिन्य पैदा हो। व्यभिचारी है तो माता के मन में अविश्वास बना रहेगा, संदेह बना रहेगा, मनोमालिन्य बना रहेगा। खाने-पीने की सुविधाओं के होते हुए भी यह मनोमालिन्य और अविश्वास सतत बना रहेगा और आगे जाकर यही उनके बच्चों पर प्रभाव डालेगा।

मित्रो! माता अपने बच्चे को दूध पिलाती है। इस दूध के साथ में केवल दूध ही नहीं जाता, प्रोटीन ही नहीं जाता, केवल स्टार्च ही नहीं जाता, केवल फैट ही नहीं जाता, वरन् माता के संस्कार भी जाते हैं। उन दिनों में माता के संस्कार और स्वभाव जैसा है, मनःस्थिति जैसी है, उसी तरह का प्रायः बालक बन जाता है।

ठीक इसी प्रकार माता का मन, माता का स्वभाव और माता की मनःस्थिति जैसी होती है, उसी के अनुरूप बच्चा पैदा होता है। अगर धर्मपत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। उसकी मनःस्थिति ऐसी नहीं है कि वह समर्थ और सुयोग्य बच्चा पैदा करने में समर्थ हो तो उसके ऊपर अत्याचार नहीं किया जाना चाहिए। अगर पिता ने उसकी गोदी में जबरदस्ती बच्चा धकेल दिया है और माता की मनःस्थिति ठीक नहीं है, उसकी शारीरिक स्थिति भी ठीक नहीं है तो वह अच्छा बच्चा कैसे पैदा करेगी? स्वस्थ बच्चा कैसे पैदा करेगी? अगर वह शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ बच्चा पैदा भी कर दे तो वह बच्चा मानसिक सृष्टि से स्वस्थ नहीं हो सकता। मानसिक दृष्टि से वह एक बीमार बच्चा ही पैदा होगा। उससे समाज का नुकसान ही होगा।

अतएव न केवल पाँच वर्ष तक, वरन् उससे आगे भी हर माता-पिता को यह ध्यान रखना चाहिए कि स्कूलों और कॉलेजों के ऊपर आज बहुत निर्भर नहीं रहा जा सकता। कोई जमाना था, जब बच्चे वहाँ रहा करते थे, जहाँ उनको शिक्षण के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान, व्यावहारिक कुशलता, जीवन जीने की कला और जीवन जीने की दिशाओं का बहुत सारा शिक्षण मिलता था। वे चौबीसों घंटे वहीं गुरुकुलों में रहा करते थे। उस जमाने में जो गुरु हुआ करते थे और गुरुमाताएं होती थीं, वे उन्हें वैसा ही स्नेह, वैसा ही प्रेम प्रदान करते थे, जैसा कि माता-पिता से मिलता है। उस वातावरण में यह संभव था कि स्कूलों में, गुरुकुलों में बच्चों को भेजने के बाद निश्चिंत हो जाया कि वहाँ का संस्कारवान वातावरण है, सो वह मिलेगा ही।

मित्रो! आज तो सिर्फ थोड़े-से घंटों के लिए दो चार-घंटे के लिए बच्चे स्कूल में पढ़ने जाते हैं। दो-चार घंटे के स्कूल में भी कोई नैतिक शिक्षण होता नहीं, चारित्रिक शिक्षण होता नहीं। व्यक्तित्व के निर्माण करने की कोई बात होता नहीं। व्यक्तित्व के निर्माण करने की कोई बात होती नहीं और न इस प्रकार की कोई व्यवस्था ही वहाँ पर होती है। केवल भूगोल, गणित, इतिहास वगैरह पढ़ा दिए जाते हैं। सो भी एक आदमी नहीं, इसके लिए ढेरों अध्यापक आते हैं। कोई गणित पढ़ा गया, कोई भूगोल पढ़ा गया, कोई इतिहास पढ़ा गया, कोई क्या पढ़ा गया, कोई क्या पढ़ा गया। पैंतालीस-पैंतालीस मिनट का तमाशा दिखा करके नट और कठपुतलियों के तरीके से अध्यापक भाग जाते हैं।

साथियो! उनसे यह आशा करना व्यर्थ है कि ये हमारे बच्चे को कुछ सिखा सकते हैं और पढ़ा सकते हैं। स्कूल और कॉलेज में पढ़ने के बाद हमारा बच्चा सुयोग्य और सुसंस्कारी बन सकता है, यह सोचना मुनासिब नहीं है और यह ख्वाब, यह कल्पना ठीक नहीं है, क्योंकि चार-पाँच घंटे स्कूल में रहने के बाद, चौबीस घंटे में बाकी अठारह घंटे जो बच जाते हैं, उसमें से तो ज्यादातर वक्त बच्चा अपने घर के वातावरण में ही बिताता है। स्कूल में वह गणित, भूगोल पढ़ सकता है, लेकिन स्कूल में वह चरित्र कैसे पड़ेगा? घर के लोग जिस स्वभाव के होंगे, जिस नीयत के होंगे, जिस क्रियाकलाप के होंगे, बच्चा ठीक वैसा ही बन जाएगा।

इसलिए यह आवश्यक है कि अगर किसी को बच्चा उत्पन्न करना है तो बच्चे को उत्पन्न करने के साथ-साथ उसके निर्माण की जिम्मेदारी को भी समझना चाहिए।

इसलिए यह आवश्यक है कि अगर किसी को बच्चा उत्पन्न करना है तो बच्चे को उत्पन्न करने के साथ-साथ उसके निर्माण की जिम्मेदारी को भी समझना चाहिए। मात्र खिलाने-पिलाने की जिम्मेदारी को ही नहीं, कपड़ा पहनाने की जिम्मेदारी को ही नहीं, ब्याह शादी करने की जिम्मेदारी को जिम्मेदारी निभाना नहीं कहते। बच्चे को काम धंधे पर लगाने की जिम्मेदारी को जिम्मेदारी नहीं कहते। वास्तव में अस्सी फीसदी जिम्मेदारी माता-पिता के ऊपर यह है कि वे अपने बालकों को संस्कारवान बनाएं, चरित्रवान बनाएं, सुयोग्य एवं विकसित व्यक्तित्व का बनाएं। यह कार्य कोई किताब खरीद देने से या उसको खुराक खिला देने से या किसी कॉलेज में भरती करा देने से नहीं हो सकता। इसके लिए सारे घर का वातावरण ठीक करना पड़ेगा। खास करके माता-पिता को तो अपनी मनःस्थिति को जरूर ही ठीक करना पड़ेगा।

अगर परिवार में संस्कार डालने की व्यवस्था नहीं है और वह संयुक्त परिवार के अंतर्गत चल रहा है तो परिवार को टुकड़ों में बाँटा जा सकता है और कुसंस्कारी लोगों से संस्कारवान लोगों को अलग रखा जा सकता है। देखने-सुनने में यह बात भद्दी मालूम पड़ती है कि एक ही संयुक्त परिवार के लोग कई हिस्सों में बंटे और कई तरीके से रहें, लेकिन बालकों को जहाँ कुसंस्कारी बनाने की संभावना हो, वहाँ संयुक्त परिवार को छोटे टुकड़ों में बाँट दिया जाए और उनके लिए वातावरण अलग से बना दिया जाए। मैं समझता हूँ कि यह कोई ज्यादा बुराई की बात नहीं है। संयुक्त परिवार वैसे भी ढीले होते चले जा रहे हैं। जिन लोगों के मन एक से नहीं हैं, जिन लोगों के स्वभाव एक से नहीं है, जिन लोगों के कर्म एक से नहीं हैं, प्रेम जिनके बीच नहीं है, विश्वास जिनमें नहीं है, उन्हें नारंगी की फाँक के तरीके से बाहर से जोड़कर किसी तरह से रखा जाए तो उससे क्या बनता है? क्या बिगड़ता है? इससे तो यह अच्छा है कि भले लोग कुसंस्कारी लोगों से अलग रहें और आपस में प्रेमभाव रखें, आपस में सहयोग का भाव रखें, एक दूसरे की सहायता करें, एक दूसरे को आगे बढ़ाएं। इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है।

जो भी हो मित्रो! बच्चों को छोटी उम्र से लेकर बड़ी उम्र तक इस तरह की परिस्थितियाँ मिलनी चाहिए, जिसको हम ‘संस्कार’ कहते हैं। खुराक आवश्यक नहीं है, संस्कार आवश्यक है। संस्कार के लिए सारे वातावरण को ही बदलना पड़ेगा। माता-पिता जब आपस में बैठा करें, बातचीत किया करें तो जिस समय तक बच्चा पाँच वर्ष का नहीं हो गया है, उस समय तक दोनों जब भी मिला करें, अश्लील बातें नहीं किया करें। लड़ाई-झगड़े की बात नहीं किया करें। अच्छा यह है कि दोनों मिल करके थोड़ी देर स्वाध्याय किया करें। पिता-माता को ऐसी पुस्तकें पढ़कर सुनाया करे जैसी कि सुभद्रा को सुनाई गई थी, जब अभिमन्यु पेट में था। पिता का यह भी काम है कि पत्नी को अच्छा साहित्य पढ़ने के लिए दे। जहाँ उसका निवास है, वहाँ गंदी तस्वीरें नहीं, एक-से एक अच्छे आदर्श महापुरुषों की तस्वीरें लगाकर रखें। जब कभी भी आँख ऊपर के लिए जाए तो अपनी धर्मपत्नी को उन श्रेष्ठ मनुष्यों का चरित्र और उनका स्वभाव देखने-समझने का ही मौका मिले। धर्मपत्नी को अच्छी पुस्तकें पढ़ने का मौका दिया जाए, अच्छे लोगों की संगति में बैठने का मौका दिया जाए। अच्छे व्याख्यान सुनने और प्रवचन करने की व्यवस्था बनाई जाए।

अगर ये सब बातें संभव नहीं हो तो कम-से-कम इतना तो किया ही जा सकता है कि अपने बच्चे का निर्माण करने के लिए पत्नी की मनोभूमि को बनाया जाए। पत्नी की मनोभूमि को बनाने के लिए बच्चे के पिता को चाहिए कि वह अपने समय में से थोड़ा-सा एक अंश निकाले और अपनी धर्मपत्नी को समझाए। अगर उसे स्वयं समझाना नहीं आता तो जिन लोगों को समझाना आता है, उनकी लिखी हुई पुस्तकें, ग्रंथ या कोई कहानी उसको सुनाया करें, समझाया करें। इतना तो हो ही सकता है। अगर इतना भी कोई पिता नहीं कर सकता तो यह कैसे कहा जाएगा कि वह अपने बच्चे की जिम्मेदारी को अनुभव करता है।

मित्रो! घर के वातावरण में प्रेम की संभावनाएं रहनी चाहिए। जिन बालकों को प्रेम नहीं मिलता, वे क्रूर हो जाते हैं, उजड्ड हो जाते हैं और गंवार हो जाते हैं। आदमी की खुराक रोटी नहीं है, आदमी की खुराक घी नहीं है, आदमी की खुराक प्यार है, मोहब्बत है। छोटा बच्चा जितनी अपेक्षा दूध की करता है, उससे सौ गुनी ज्यादा अपेक्षा वह इस बात की करता है कि उसको पिता का प्यार मिले, माता का प्यार मिले। माता-पिता को अपने बच्चे को पास भी रखना चाहिए। उनके साथ खेलना भी चाहिए। अक्सर पिता ऐसे पाए जाते हैं, जो इस बात का ख्याल नहीं करते कि हमको इन बच्चों के साथ में खेलना चाहिए। इनको खिलाना चाहिए, ताकि हमारे संस्कार और प्रेम का प्रभाव इनको अनुभव होता चला जाए। जो सारे दिन काम-धंधे में लगे रहते हैं। जब छूट करके घर आते हैं तो ताश खेलने में, रेडियो सुनने में और मित्रों से गप-शप लड़ाने में लग जाते हैं। कभी बेचारे बच्चों को यह अनुभव न हो सका कि हमारा पिता कौन है और पिता की मोहब्बत किसे कहते हैं? बस, अच्छा कपड़ा पहना दिया, अच्छी मिठाई खिला दी। अच्छे से समाज में बिठा दिया। ये भी कोई बात है क्या? यह तो शरीर की सेवा हुई।

बच्चों के शरीर की सेवा ही काफी नहीं है, मन की सेवा आवश्यक है। मन की खुराक किसी व्यक्ति की उसकी मोहब्बत होती है। मोहब्बत के द्वारा जिन माता पिता ने अथवा लोगों ने बच्चों का निर्माण किया है, वास्तव में उन्होंने अपने बालकों की बहुत बड़ी सेवा की है। जिन्होंने बच्चों को प्यार दिया नहीं, बच्चों को गोदी में खिलाया नहीं, बच्चों को कहानियाँ सुनाई नहीं, बच्चों को साथ लेकर टहलने गए नहीं और बच्चों के साथ में समय व्यतीत किया नहीं, उन्हें यह समझना चाहिए कि बच्चों के प्रति अपने फर्ज और कर्त्तव्य की जिम्मेदारी उन्होंने पूरी नहीं की।

मित्रो! बच्चों का निर्माण करने के लिए हमको उनके खेलकूद की व्यवस्था करनी चाहिए। उनके पढ़ने की व्यवस्था करनी चाहिए। अच्छे कपड़े की व्यवस्था करनी चाहिए। उनके लिए अच्छी खुराक की व्यवस्था करनी चाहिए। ये सब बातें आवश्यक है। हम रोज पढ़ते हैं और हमको बताई भी जाती हैं, लेकिन उससे भी हजार गुनी महत्त्वपूर्ण बात यह है, जिसकी ओर लोगों का ध्यान नहीं गया कि बच्चों को संस्कारवान बनाने के लिए वातावरण की जरूरत है। मनःस्थिति की जरूरत है। माता-पिता को संस्कारवान होने की जरूरत है। अगर इस ओर ध्यान दिया जाए तो मैं समझता हूँ कि यह शिक्षा इतनी बड़ी है कि हम भावी पीढ़ियों को इतनी अच्छी और सुसंस्कारवान बना सकते हैं, जो पिता के लिए भी संतोषदायक हो, माता के लिए भी आनंददायक हो। घर परिवार के लोगों के लिए भी और हरेक के लिए विभूति और अच्छाई का कारण हो। समाज के लिए भला अनुदान दे सकने वाली हो।

नई पीढ़ियों का निर्माण करना और घर के वातावरण को अच्छा रखना और बुढ़ापे में अपना जीवन शाँति से व्यतीत करना, इस बात के ऊपर टिका हुआ है कि हमने अपने बच्चों से संस्कारवान बनाया कि नहीं? बच्चों को संस्कारवान बनाने के लिए हमको यह प्रयत्न करना चाहिए कि बच्चों को जन्म लेने से पहले से लेकर के जब तक वह कम-से-कम पाँच वर्ष के नहीं हो जाते, उस वक्त तक बहुत अधिक ध्यान रखें। पाँच वर्ष के होने के पश्चात ही घर की परिस्थितियों को, बच्चों की संगति को, बच्चों के वातावरण को और बच्चों के साथियों पर गौर करें और यह देखें कि कहीं हमारा बच्चा कुमार्गगामी तो नहीं हो रहा है। इस तरह का ध्यान अगर रखा जा सके तो बच्चों के निर्माण की दिशा में बहुत महत्त्वपूर्ण कदम उठाया गया, यह माना जा सकता है। आज की बात समाप्त।॥ ॐ शाँति॥


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