धर्मराज सभी पर एक नजर डालकर धर्मासन पर बैठ गए। उस दिन उनके द्वार पर भारी भीड़ थी। अनेकों जीवात्माएँ अपना फैसला सुनने के लिए उतावली थीं। सभी के अपने-अपने दावे थे। प्रायः सभी को अपने सत्कर्मों का, अपने पुण्यों का भारी गर्व था। हर एक का कहना यही था कि वह स्वर्ग में सबसे पहले प्रवेश का अधिकारी है। चित्रगुप्त इनका हिसाब-किताब अपनी बही में देख रहे थे। और धर्मराज को वास्तविक जानकारी दे रहे थे।
लेकिन इस प्रक्रिया में लगने वाली देर किसी को बर्दाश्त नहीं हो रही थी। कुछ पण्डितों ने चित्रगुप्त पर झल्लाते हुए कहा- यह क्या देर लगा रखी है आपने। आपको विद्वानों का सही ढंग से सम्मान करना भी नहीं आता। हम लोगों के लिए शीघ्र ही स्वर्ग की व्यवस्था की जाय। पण्डितों के इस उग्र तेवर के जवाब में चित्रगुप्त ने संयत स्वर में कहा- महाराज आप लोग थोड़ा ठहरिए। पहले हम आप लोगों के सम्बन्ध में यह पता लगा लें कि जो ज्ञान आपने पाया है, वह शास्त्रों से पाया है या कि स्वयं से। क्योंकि निरे किताबी ज्ञान का यहाँ कोई मूल्य नहीं है।
इतने में एक संन्यासी भीड़ को चीरते हुए- अपने आगे खड़ी जीवात्माओं को धकियाते हुए आगे आ धमके। और कहने लगे- मैंने बहुत उपवास किए हैं, अनेकों कष्ट सहे। वेदान्त के वाक्य रटे हैं। भला मेरे समय में मुझसे बड़ा भला और कौन था? इस पर चित्रगुप्त ने कहा, स्वामी जी, थोड़ा ठहरिए। जरा हम पता लगा लें कि इतनी तपस्या आपने क्यों की? कहीं इसके पीछे आपके अहंकार का कोई सूक्ष्म प्रयोजन तो नहीं था। क्योंकि जहाँ प्रतिष्ठ और सम्मान की लालसा है, वहाँ न कोई त्याग है, और न तप है।
तभी वहाँ जनता के कुछ सेवक आ गए। वे भी स्वर्ग में प्रवेश पाने की जल्दी में थे। चित्रगुप्त ने उनसे कहा- आप लोगों को भी भूल हो गयी है। जो सेवा पुरस्कार माँगती है, वह सेवा नहीं है। फिर भी हम आपके बारे में पता लगा लेते हैं।
तभी चित्रगुप्त की दृष्टि सबसे पीछे अंधेरे में खड़े एक व्यक्ति की ओर गयी। चित्रगुप्त के पूछने पर उसने कहा- महाराज कहाँ मैं और कहाँ स्वर्ग। मैं तो किसी भी तरह से स्वर्ग में प्रवेश का अधिकारी नहीं हूँ। मैंने स्वर्ग के लायक किया ही क्या है? मैं ठहरा एकदम अज्ञानी। मुझे न शास्त्र मालूम है, न संस्कृत आती है। संन्यास मैं जानता नहीं। मेरे पास कुछ था ही नहीं जो मैं उसे छोड़ता। और सेवा की बात, सो मैं कर नहीं पाया।
चित्रगुप्त उसकी बातों को बड़े धीरज से सुन रहे थे। वह कहे जा रहा था- महाराज मैंने तो बस अपने गुरु की बात मानी है। वह जो कहते गए, उसे मैं करता गया। उनसे कुछ ज्यादा जानने-सीखने लायक मेरी बुद्धि ही नहीं थी। जीवन में कुछ बुरे कर्म भी हुए होंगे। हाँ इतना मैं कह सकता हूँ, मेरे मन में अपने गुरुदेव के लिए प्रेम था। पीड़ित मनुष्यों की सेवा के लिए छटपटाहट भी रहती थी। आपके यहाँ इसका कुछ फल मिलता हो, तो मैं नर्क में जाना चाहता हूँ।
पर नर्क क्यों? चित्रगुप्त थोड़ा चौंके, धर्मराज भी अचरज में पड़े। अन्य जीवात्माएँ भी थोड़ा हड़बड़ाई। सभी के मन में उभरी जिज्ञासा का समाधान करते हुए उसने कहा- दरअसल मैं चाहता हूँ कि नरक की यातनाओं से मेरे पापों की सफाई हो जाय। और मैं ऐसी पवित्रता और पात्रता अर्जित कर सकूँ, जिससे कि मेरे गुरु अगले किसी जीवन में मुझे अपना सकें। उनकी दृष्टि में मैं सत्पात्र बन सकूँ।
अबकी धर्मराज स्वयं बोले- तुम सच्चे शिष्य हो। जो शिष्य बन सका है वह समस्त मानवों में धन्य है। स्वर्ग के द्वार सदा तुम्हारे लिए खुले हैं- मोक्ष भी तुम्हें सुलभ है। अपने सद्गुरु की भक्ति से बढ़कर अन्य कोई भी कर्म श्रेष्ठ नहीं है।