अंतः की हूक बनती है प्रार्थना

June 2003

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इस दुनिया में न कोई बड़ा है, न छोटा। सब समान हैं। इतने पर भी ऐसा कहना अनुचित न होगा कि यहाँ पर जो कुछ हो रहा है, वह इतना और ऐसा है, जिसे यदि दिव्यता का अनुपालन और अनुदान न मिला हो तो सब कुछ शुष्क बना रहेगा। यहाँ चर्चा प्रार्थना और उसकी शक्ति की, की जा रही है। प्रार्थना में ऐसा चमत्कार होता है, जिसे देखकर मन यही कहता है कि ‘मन न रंगाए रंगाए जोगी कपरा, दाढ़ी बढ़ाए जोगी बन गए बकरा’ कबीर की यह पंक्ति एप 70 लाख बाबाजियों पर अक्षरशः लागू होती है, जिन्हें तथाकथित आध्यात्मिक कहा जाता है। प्रार्थना ऐसे लोगों को यह सीख देती है कि हमें अंदर को रंगना चाहिए, बाहर के आवरण को नहीं। जिसने इस उपदेश को जीवन में उतार लिया, समझा जाना चाहिए कि वे सहप्रार्थी हैं, प्रार्थना के वास्तविक हकदार हैं।

इस जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे चमत्कार कहें। चमत्कार प्रार्थना से होता अवश्य है वह चमत्कार नहीं है। चमत्कार का दिखावा मात्र है। जो इसे देखना चाहते हैं, वे प्रार्थना का सहारा ले सकते हैं। प्रार्थना में ऐसी अद्भुत शक्ति है, जिसे चमत्कार स्तर का तो कहा जा सकता है, पर चमत्कार नहीं।

प्रार्थना क्या है? आए दिन लोग इसकी तरह-तरह की व्याख्याएं करते रहते हैं, पर वे इतना नहीं जानते कि इसमें इतना कुछ भरा पड़ा है, जिससे कुबेर जितना धन भी प्राप्त किया जा सकता है और ईश्वर जैसी विभूतियाँ भी। यह विभूति आती कहाँ से है? यह विचारणीय प्रश्न है। हमें इस बारे में समझने का पूरा-पूरा अधिकार है कि जो प्रार्थना करते हैं, वे इसे कहाँ से हस्तगत करते हैं? क्यों और कैसे हस्तगत करते हैं? इस प्रश्न की गहराई में जाने पर हम पाते हैं कि ऐसी कितनी ही सिद्धियाँ इस संसार में हैं, जिन्हें साधारण नहीं, असाधारण कहना चाहिए। अधिकतर लोग इन्हें मन की निर्मित मानते हैं, जबकि कुछ इनको भगवान का वरदान। वरदान में इतनी शक्ति होती है कि जो कुछ चाहा गया है और जितना कुछ माँग गया है, वह मिल जाए। न मिलने पर आदमी तरह-तरह की शंकाएं पालता और मन को दुविधा से भर लेता है। इन्हें क्या कहा जाए? इनके लिए किस शब्द का इस्तेमाल किया जाए? यह तो मुश्किल कार्य है, पर इन्हें जो कुछ भी कहा जाएगा, वह उचित ही होगा। सब जानते और मानते हैं कि प्रार्थना के द्वारा ऐसी शक्ति अर्जित की जा सकती है, जिसके सहारे हर कार्य को पूरा किया जा सकता है।

लोग इसे भलीभाँति जानते हैं कि इस जगत में सर्वत्र न्याय नहीं है। जहाँ न्याय नहीं है, वहाँ अन्याय का सहारा लिया जाता है। अन्याय पर न्याय की जीत को ही प्रार्थना कहते हैं। प्रार्थना है क्या? इस पर विचार-मंथन करने पर हमें विदित होता है कि यह ब्रह्माँड की एक ऐसी शक्ति है, जिसे जहाँ भी लगा दिया जाता है, वहीं चमत्कार पैदा हो जाता है। लोग जानते हैं कि इस शब्द में उतनी शक्ति नहीं है, जितनी कि आशा की जाती है, पर जब भक्त के पवित्र अंतःकरण से यह शब्द निकलता है तो वह शब्दबेधी बाण बन जाता है और जिस लक्ष्य से टकराता है, उसे भेदकर निकल जाता है। इसी को कहते हैं, प्रार्थना द्वारा अभीष्ट की पूर्ति।

लोग क्या कहते हैं और क्या करते हैं, इसे सभी लोग भले ही न जान पाएं, पर वह सर्वव्यापी न्यायकारी सत्ता इसे अच्छी तरह जानती और देखती है कि उक्त व्यक्ति सहायता का हकदार है कि नहीं? जो अपात्र है, जिसकी सहायता से उसके अहंकार की पूर्ति होती है, वैसे हृदयों में वे ऐसी पुकार उत्पन्न नहीं होने देते, जिसे प्रार्थना कहते हैं। प्रार्थना की शक्ति शुद्ध अंतःकरण की शक्ति है। जिस हृदय में जितनी शुद्धता होगी, वहाँ की हर पुकार प्रार्थना बन जाएगी। यहाँ कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि हमें प्रार्थना नहीं करनी चाहिए। हर कोई प्रार्थना कर सकता है, पर केवल शुष्क शब्द को दुहराते भर रहना प्रार्थना नहीं है। वह उच्च अंतःकरण की भाव-संवेदनाओं से सिक्त होनी चाहिए। तभी वह शक्तिशाली बनती और चमत्कार दिखाती है। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि प्रार्थना शुष्क अंतराल की निर्मिति नहीं, दिव्य अंतःकरण का सृजन है। जहाँ दिव्यता होगी, वहाँ का हर शब्द प्रार्थनामय होगा, इसलिए हर एक को यह सोचना चाहिए कि उसका अंतस् उच्चस्तरीय कैसे बने। जहाँ जितना दिव्य भाव होगा, वहाँ यह सुयोग उतनी ही अच्छी तरह बनेगा। पवित्र अंतःकरण में यह सामर्थ्य है कि वह वहाँ से निस्सृत होने वाले शब्दों को मात्र थोथे शब्द भर न रहने दे और उसमें इतनी शक्ति पैदा कर दे कि वह लक्ष्य से बार-बार टकराकर उसे पूर्ण होने के लिए बाध्य करे। ससीम का असीम बनना इसे ही कहते हैं। दूसरे शब्दों में इसे भक्त का भगवान बनना भी कह सकते हैं। भक्त और भगवान का संगम इसी को तो कहते हैं। भक्त जब टेर लगाता है तो भगवान का सिंहासन डोलने लगता है और दौड़ा वह उसके पास पहुँचता है। तत्काल प्रतिक्रिया होना, यही तो प्रार्थना है।

प्रार्थना निःशब्द भी होती है। निःशब्दता की स्थिति बड़ी ही उच्च होती है। उसमें बार-बार शब्द दुहराने नहीं पड़ते। एक बार उसका भाव आया नहीं कि वह पूरा होने के लिए समुद्यत हो जाता है। ऐसा प्रार्थी लाखों में एक होता है। हृदय में से उसका भाव उठते ही भगवान उसे पूरा करने के लिए मचल उठता है। मचलना जिस भाव से हो, वही ‘प्रार्थना’ है। प्रार्थना के लिए किसी समय विशेष यथा साधन विशेष की जरूरत नहीं। निर्जन बियावान में भी वह पूरी हो जाती है। उसके लिए साधन-सहायता कहाँ से और कैसे आए, यह सोचना भक्त का काम नहीं। भगवान सदा उसके साथ-साथ रहते हैं और उसकी हर इच्छा जो कि प्रार्थनामय होती है, उसे पूरी करने के लिए तैयार रहते हैं। विद्यापति और उदना का उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य है।

विद्यापति एक बार कहीं जा रहे थे। गर्मी के दिन थे। जाते-जाते ऐसी जगह पहुँचे, जहाँ आस-पास मीलों तक कोई घर नहीं था। इलाका एकदम निर्जन। ऐसे समय उन्हें प्यास लगी। उदना तुरंत पानी की खोज में निकल पड़ा और जल्द ही लोटा भरकर ले आया। वह साक्षात भगवान शिव की जटा-जूट से अवतरित गंगाजल था। भेद खुल गया तो उदना ने भक्त से वचन ले लिया कि जिस दिन यह रहस्य दूसरों पर प्रकट हो जाएगा, उस दिन से फिर आगे वह रह नहीं पाएगा, पर भगवान की लीला अपरंपार होती है। एक दिन वह भेद खुला और उदना के रूप में साक्षात शिव अदृश्य हो गए।

इसे कहते हैं भक्त और भगवान की जोड़ी, प्रार्थी और प्रार्थना का युग्म। प्रार्थना जब प्रार्थी के विह्वल अंतःकरण से निकलती है तो वह पूरी हुए बिना नहीं रहती। ऐसे अनेक अवसरों पर देखा जाता है कि आदमी बार-बार इच्छा करता है और वह पूरी हो जाती है। यह प्रार्थना नहीं, संकल्प है। संकल्पबल में भी इतनी शक्ति होती है कि वह अभीष्ट की पूर्ति कर दे। संकल्प और प्रार्थना दोनों दो भिन्न चीजें हैं। संकल्प भी अंतः का उपार्जन है और प्रार्थना भी, पर दोनों में एक मौलिक अंतर है, वह यह कि संकल्प आत्मा का बल है, जबकि प्रार्थना उसकी पुकार। पुकार और बल दो तत्त्व है। एक में दिव्यता है, दीनता है, शालीनता है। दूसरे में सशक्तता है, सबलता है, निर्भीकता है। एक जब कातर पुकार के रूप में निकलती है तो वह पुकार साधारण न रहकर असाधारण शक्तिसंपन्न बन जाती है। दूसरी ओर बल स्वयं में एक शक्ति है। वह जब लक्ष्य को बार-बार सशक्त टक्कर मारता है तो वह मूर्तिमान हो उठता है। दोनों ही विशेषताएं शुद्ध आत्मा की है। पूर्ण शुद्ध आत्मा ही पूर्ण सिद्ध होती है और संकल्प के रूप में, प्रार्थना के रूप में ऐसे चमत्कार दिखाती है, जो साधारण स्थिति और अवस्था में आत्मा नहीं दिखा पाती। अतएव हर मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी मौलिकता को, अपनी दिव्यता को, जो आत्मा का स्वाभाविक गुण है, उसे प्रकट करे। ऐसी स्थिति में उसकी साधारण सोच भी संकल्प और प्रार्थना बनकर उभरेगी और व्यक्ति को असाधारण बना देगी।

प्रार्थना अंतःकरण की पुकार है। बाहरी वेश विन्यास से उसका कोई मतलब नहीं। यह प्रत्येक आत्मा का गुण है, पर बाहरी आडंबर के कारण वह उसको ढक देता है। यह आच्छादन न हो और आत्मा अपनी पूर्ण सरलता और अकृत्रिमता में प्रकट हो तो दिव्यता का यही भाव प्रार्थना बन जाता है। हम स्वाभाविक बनें, निष्कपट बनें तो हम उस हूक को उत्पन्न करने में सफल होते हैं, जिसे प्रार्थना कहते हैं।


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