चरित्र-निर्माण प्रधान शिक्षापद्धति विकसित करनी होगी

June 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य मानव की अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना है। ज्ञान मानव में स्वभाव सिद्ध है, कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब अंदर है। सामान्य भाषा में हम जो कहते हैं कि मनुष्य जानता है, यथार्थ में मनस शास्त्र की भाषा में कहा जाना चाहिए कि वह आविष्कार करता है, अनावृत्त या प्रकट करता है। इस ज्ञान से प्रकटीकरण में जो उद्यत हो, वही शिक्षार्थी है। यथार्थ मायने में जो इस प्रक्रिया में सहायक है, उसे ही शिक्षक कहा गया है।

प्राचीन भारत की वैदिक शिक्षा प्रणाली का अध्ययन करने से इन्हीं विचारों की पुष्टि होती है। समय के उलट-फेर एवं विदेशी प्रभाव के कारण सब कुछ उल्टा हो गया है। आज शिक्षा स्वाभाविक विकासक्रम न रहकर विविध जानकारियों के ढेर-के-ढेर समेटने के रूप में हो गई है। इन जानकारियों को मार-पीटकर, डरा-धमकाकर जबरन मस्तिष्क में ठूँस देने को सार्थकता माना जा रहा है। यदि इस सार्थकता के औचित्य पर विचार किया जाए तो उसकी त्रुटियाँ सामने आ जाती है। वस्तुतः कूड़े के ढेर को दिमाग में इकट्ठा कर लेना किसी तरह भी सार्थक नहीं माना जा सकता है। विवेकयुक्त का आश्रय लेकर जीवन-निर्माण, चरित्र-निर्माण तथा मनुष्य-निर्माण में सहायक विचारों को अनुभूत करने की आवश्यकता है।

आज विद्यालयों के वातावरण को देखने से शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों की मनःस्थितियाँ प्रकट हो जाती हैं। इन दोनों के रहन-सहन, बातचीत इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि कोई भी शिक्षा की गरिमा के अनुकूल नहीं।

इस घटिया स्थिति के पैदा होने, उद्देश्यविमुख होने का कारण क्या है? इन कारणों की खोजकर इनका निवारण किस प्रकार किया जाए? उल्टी स्थिति को उलटकर कैसे सीधा किया जाए? इन प्रश्नों पर चिंतन करने से यही स्पष्ट होता है कि धर्म और नैतिकता का अभाव ही इस स्थिति का कारण है। इनके उपयुक्त समावेश से स्थिति फिर सुधर सकती है।

आज शिक्षाशास्त्र के अनेकानेक पंडित इसी बात पर जोर दे रहे हैं। 1882 में नियुक्त हुए हंटर आयोग से लेकर कोठरी आयोग 1964 तक नियुक्त किए जाने वाले सभी आयोगों और समितियों ने शिक्षा संस्थानों में आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा प्रदान किए जाने का समर्थन किया है। हाल में गठित हुए शिक्षा आयोग रिपोर्ट में पृष्ठ 206 पर उल्लेखित किया गया है कि सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्योँ की शिक्षा के लिए सचेत और संगठित प्रयास किए जाने चाहिए।

नीति और धर्म का किसी भी साँप्रदायिकता से कोई संबंध नहीं। ये तो मानव के व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने वाले तत्त्व है, जिनका समावेश पूर्वकाल से रहा है और आज भी अपेक्षित है। ऐतिहासिक कालक्रम की दृष्टि से विचार करने पर यह सुस्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में आश्रमों, मध्य भारत में मुस्लिम मकतबों, मदरसों एवं हिन्दुओं की पाठशालाओं में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग थी। अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा नीति को धार्मिक और नैतिक शिक्षा से बिलकुल पृथक कर दिया। इसका एकमात्र कारण भारत निवासियों को शारीरिक नहीं, अपितु मानसिक रूप से पूर्णरूपेण अपना गुलाम बनाना था। उन्होंने राज्य द्वारा संचालित विद्यालयों में इस शिक्षा का पूर्ण निषेध करके नीति और धर्म की अवहेलना का अनुसरण किया। स्वतंत्र भारत में मानसिक गुलामी से जकड़े लोगों ने भी उसी नीति को अपनाया।

यदि इस मानसिक गुलामी के लबादे को झटक दिया जाए तो शिक्षा में धर्म और नैतिकता की अनिवार्यता सिद्ध हो जाती है। जिस शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य मानव की समग्र उन्नति करना है, जो उनको सत्यं शिवं सुँदरम् के अधिक-से-अधिक निकट लाने का प्रयास करती है, वह इस कार्य में किसी भी प्रकार नीति और धर्म की अवहेलना नहीं कर सकती।

नीति-धर्म और शिक्षा अपने स्वाभाविक स्वरूप में एक-दूसरे से गूँथे हुए हैं। इनमें से किसी एक को विलग कर देने से उनका स्वरूप स्वाभाविक न रहकर विकृत हो जाता है। सी.ए. बारवेल ने ‘दि न्यू डिक्शनरी ऑफ थॉट्स’ के पेज 405 पर स्पष्ट किया है, ‘कुछ लोग नैतिकता को धर्म से अलग करना चाहते हैं, पर धर्म के आधार के बिना नैतिकता का अंत हो जाएगा।’ इनके आँतरिक संबंधों को स्पष्ट करते हुए प्रो0 ए॰ एन॰ ह्वाइहेड ने लिखा है, ‘शिक्षा का सारतत्व यह है कि वह धार्मिक होती है। जिस प्रकार शिक्षा को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार शिक्षा को नैतिकता से भी पृथक करना असंभव है।’ हरबर्ट का कथन है, ‘समग्र रूप में नैतिक शिक्षा, शिक्षा से पृथक नहीं है।’

निस्संदेह शिक्षा, धर्म व नैतिकता एक-दूसरे से गुँथे हुए हैं। इन दोनों के अभाव में शिक्षा में विकृत आना स्वाभाविक है। आज छात्रों में व्याप रही चरित्रहीनता, अनुशासनहीनता मर्यादाओं के अभाव का एकमात्र कारण है कि अंग्रेजियत की नकल करके इनको बहिष्कृत कर दिया गया है। धर्म में साँप्रदायिक कट्टरता जैसी कोई बात नहीं है। इसका तत्त्वदर्शन सबके लिए सर्वकाल में समान रूप से उपादेय है।

विश्वविद्यालयों में व्याप्त उच्छृंखलता को दूर करने के संबंध में एक आयोग का गठन हुआ था। उसने अपने प्रतिवेदन में बताया, ‘यदि हम अपनी शिक्षण संस्थाओं में से आध्यात्मिक प्रशिक्षण को निकाल देंगे तो हम अपने संपूर्ण ऐतिहासिक विकास के विरुद्ध कार्य करेंगे।’

धर्म को हेय, रूढ़िवादी ठहराना तथा धर्म निरपेक्षता की आड़ में इसका तिरस्कार करना, किसी भी तरह उपयुक्त नहीं। महात्मा गाँधी ने इस धर्म निरपेक्षता को किंकर्त्तव्यविमूढ़ता से उबारते हुए कहा था, ‘मेरे लिए नैतिकता, सदाचार और धर्म पर्यायवाची शब्द है। नैतिकता के आधारभूत सिद्धाँत सभी धर्मों में समान हैं। इन्हें बालकों को निश्चित रूप से पढ़ाया जाना चाहिए।’

जैसे-जैसे मानसिक गुलामी कम होती ज रही है, वैसे वैसे बुद्धिजीवियों, देश के कर्णधारों को इसका महत्त्व भी समझ में आता जा रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात डा. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग ने धर्म और नैतिकता को शिक्षा के अभिन्न अंग बनाने पर बल दिया। इसी प्रकार श्री प्रकाश की अध्यक्षता में गठित धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा समिति ने जनवरी 1970 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए बताया, ‘प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक इसका सुरुचिपूर्ण ढंग से समावेश किया जाना चाहिए।’

विभिन्न शिक्षा विशारदों, शिक्षा आयोगों के विचारों तथा प्रतिवेदनों के अनुसार इसका महत्त्व सुस्पष्ट हो जाता है, पर मात्र कागजी स्तर पर होने वाले कार्य इस समस्या का समाधान कर सकें, यह असंभव है। शिक्षक राष्ट्र मंदिर के कुशल शिल्पी हैं। शिक्षार्थी अनगढ़ मिट्टी के समान हैं। विद्यालय इनको मजबूत ईंटों में ढालने वाली टकसाल के समान है। शिक्षा वह विधा है, जिससे इनको ढाला तथा राष्ट्रमंदिर को गढ़ा जाता है।

धर्म और नैतिकता ही वह आग है, जिससे इन कच्ची ईंटों को मजबूती व सौंदर्य प्राप्त हो सकता है अन्यथा इसके अभाव में तो गढ़ाई की सुन्दरता के बाद भी कच्चापन रह जाएगा। शिक्षा एवं विद्या का सार्थक समन्वय इसीलिए जरूरी है।

इस शिल्पकला के लिए शिक्षार्थी-शिक्षक दोनों को ही अपनी भूमिका समझनी होगी, मनःस्थिति को सुयोग्य बनाकर इस निर्माण कार्य में जुट जाना होगा। इसमें जुट पड़ने से ही राष्ट्र निर्माण, जीवन-निर्माण तथा चरित्र-निर्माण के महान कार्य संभव बन पड़ेंगे। इसको कुशलतापूर्वक निभाने में इनमें से किसी को भी पीछे नहीं रहना चाहिए। ऐसा कर पाने से ही फिर उपनिषद् काल के विद्यार्थी की तरह ‘दृढ़निष्ठो बलिष्ठो, यशस्वी भव’ की स्थिति निश्चित रूप से आ सकेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles