अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान - योग साधना में ‘अभ्यास’ का महत्त्व

June 2003

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योग साधना की डगर कब किस ओर मुड़ती है, प्रस्तुत स्तंभ के माध्यम से साफ-साफ समझा जा सकता है साधकों की राह में आने वाले प्रश्न-कंटकों को हटाने-बीनने की पूरी व्यवस्था इसके उजाले में संभव है। इसकी किरणें साधकों के अंतर्मन के अंधियारे की घुटन और घबराहट को हटाती है। इससे साधकों में अपनी साधना के लिए हिम्मत और हौसला बढ़ता है। इस योग-कथा की पिछली कड़ियाँ तमाम योग साधकों को यही अनूठी सौगात सौंपती रही है। अब तक अनेक साधकों ने अपने अनुभव लिखे हैं। इन अनुभवों से पता चलता है कि यह केवल एक लेखमाला नहीं है, बल्कि साधकों एवं महान गुरुओं के बीच निरंतर चलने वाला रहस्यमय वार्त्तालाप है। महर्षि पतंजलि एवं परमपूज्य गुरुदेव स्वयं इस योग कथा के माध्यम से अगणित साधकों की भावनाओं को सुनते हैं और उन्हें अपनी योग अनुभूतियों के अमृतरस का भागीदार बनाते हैं। इस योग कथा के शब्द तो बस उनकी विचार तरंगों के माध्यम भर है। इससे अधिक और कुछ भी नहीं।

विगत अंक में योग साधकों को निरंतर चुभने वाले विषैले प्रश्न कंटकों की अनूठी शल्य क्रिया थी। अगणित साधकों के मन सदा एक ही सवाल की टीस महसूस करते हैं, क्या करें मन में साधना की चाहत तो बहुत है, पर मन नहीं लगता। मन की चंचलता साधना में टिकने ही नहीं देती। वैसे भले ही मन थोड़ा शाँत बना रहे, परन्तु साधना के आसन पर बैठते ही उसकी भाग-दौड़, बंदर-कूद शुरू हो जाती है। न जाने कहाँ-कहाँ के विचार मन को परेशान करते हैं। कभी-कभी तो बुरे विचारों, बुरी भावनाओं की असंख्य प्रेतछायाएं घेरकर खड़ी हो जाती है। ये इतनी हठीली होती है कि किसी भी तरह हटती ही नहीं। समझ में नहीं आता कि इनसे बचकर कहाँ भागें, कहाँ जाएं? साधकों की इस घबराहट की पीड़ा का महर्षि पतंजलि समाधान बताते हैं, ‘अभ्यास और वैराग्य।’ अभ्यास और वैराग्य जितना गहरा, जितना गाढ़ा होता जाएगा, मन की उलझन, सुलझती जाएगी। मन की परेशानियाँ थमने लगेंगी। चंचलता स्थिरता में बदलने लगेगी, परन्तु इसी विवेचना के साथ योग साधकों का अगला सवाल सामने आया कि आखिर यह अभ्यास क्या है और इसे करें कैसे?

इसके समाधान में महर्षि अगला सूत्र कहते हैं :-

तत्र स्थितौ यत्नौऽभ्यास.॥1/13॥

शब्दार्थ- तत्र - उन दोनों अभ्यास और वैराग्य में से, स्थितौ - चित्त की स्थिति में, यत्नः - यत्न करना, अभ्यासः - अभ्यास है। यानि कि इन दोनों में चित्त की स्थिति में (स्वयं में दृढ़ता से) प्रतिष्ठित होने का प्रयास करना अभ्यास है। अभ्यास की सामान्य महिमा से तो हममें से प्रायः सभी परिचित है। छोटे बच्चों और गाँव के किसानों से लेकर विशिष्टों वरिष्ठों एवं विशेषज्ञों तक इसकी महिमा का गुणगान करते हैं। ग्रामीण जीवन में अभ्यास के बारे में एक कहावत अक्सर सुनी जाती है- ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात है सिल पर परत निसान॥’ अर्थात् अभ्यास करते-करते एकदम जड़मति भी सुविज्ञ-सुजान हो जाते हैं। कुछ उसी तरह से जैसे निरंतर रस्सी की रगड़ से पाषाण पर भी निशान पड़ जाते हैं। मनुष्य की सारी क्षमताएं उसके अभ्यास का ही फल है। यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी अभ्यास के बलबूते ऐसे-ऐसे करतब दिखाने लगते हैं, जिन्हें देखकर दाँतों तले उंगली दबाने का मन करता है।

बाहरी जीवन में, लौकिक जीवन में अभ्यास के ढेरों चमत्कार हम रोज देखते हैं। खुद की निजी जिंदगी में भी अभ्यास के अनेक अनुभवों को हमने जब-तब अनुभव किया है, परन्तु यह अभ्यास आँतरिक जीवन में, आध्यात्मिक जीवन में किस तरह किया जाए में, आँतरिक प्रयास। एक ऐसी होशपूर्ण कोशिश, जिसका मतलब है कि इससे पहले हम बाहर बढ़ें, हमें भीतर बढ़ना चाहिए। पहले हमें अपने केन्द्र में स्थित होने का प्रयास करना चाहिए। पहले हम अपने केन्द्र में स्थित होकर विचार करें और फिर कुछ दूसरा निर्णय करें। यह इतनी बड़ी रूपांतरकारी घटना है कि एक बार जब हम अपने भीतर केंद्रित हो जाते हैं तो सारी बात की अलग दिखाई पड़ने लगती है, सारा-का सारा परिदृश्य ही बदल जाता है।

इस तरह केन्द्र में स्थित होने के लिए क्या करें? इसके जवाब में परमपूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि जप, ध्यान, प्राणायाम आदि योगाभ्यास की सारी प्रक्रियाएं इसीलिए हैं। योग की सभी प्रक्रियाओं का एक ही मतलब है कि आपको अपना परिचय करा दें। आपको अपने में स्थिर कर दें। हालाँकि कभी-कभी यह देखा जाता है कि काफी सालों से जप करने वाले, ध्यान का अभ्यास करने वाले लोगों में भी कोई गुणात्मक मौलिक परिवर्तन नहीं आ पाता। इसकी वजह प्रक्रियाओं का दोष नहीं, बल्कि उनके अभ्यास में खामियाँ हैं। ध्यान रहे योग-प्रक्रियाएं मात्र क्रियात्मक नहीं है, उनमें गहरी विचारणा एवं उच्च भावनाएं भी समावेशित है।

भगवद्गीता में इसके बारे में कहा गया है-

अश्रद्धया हुतं दत्त तप्तस्तप्तं कृतं च यत्। असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रिय नो इह॥

‘हे पार्थ, अश्रद्धा से किया गया हवन, दिया गया दान, तपा गया तप और भी जो कुछ आध्यात्मिक क्रिया की गई है, वह सब कुछ असद् है, उसका न कोई परिणाम आध्यात्मिक जीवन में है और न ही इस लौकिक जीवन में।’ इसलिए योगाभ्यास की कोई भी प्रक्रिया हो, उसमें गहरी श्रद्धा और पवित्र विचारणा का समावेश निहायत जरूरी है।

इस संबंध में वृंदावन के संत स्वामी अखंडानंद महाराज का संस्मरण बड़ा ही प्रेरक है। ध्यान रहे कि ये संत परमपूज्य गुरुदेव पर गहरी श्रद्धा करते थे। इनकी एक पुस्तक है, ‘पावन संस्मरण’। इसमें उन्होंने लिखा है कि एक दिन वे ब्रह्ममुहूर्त में बैठकर माला जप रहे थे। उनकी कोशिश यही थी कि ज्यादा-से-ज्यादा मालाएं जप ली जाएं। इस बीच परमहंस जगन्नाथपुरी जी उधर से गुजरे। उन्हें जनसामान्य लोग नेपाली बाबा के नाम से जानते थे। इनका जप देखकर वह बोल पड़े, ‘भला कहीं ऐसे जप किया जाता है।’ उनके वचनों से इनकी आँख खुली। नमस्कार करने पर परमहंस जी ने इन्हें गले लगाया और बोले ‘मंत्र साक्षात भगवान हैं, अपने इष्ट की शब्दमूर्ति है। मंत्र चाहे कोई भी हो, उसे जपने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। सत्कार के साथ धीरे-गंभीर भाव के साथ मंत्र उच्चारण करना चाहिए। प्रत्येक शब्द का गहराई से उच्चारण करें। इस तरह एक अक्षर से दूसरे अक्षर तक पहुँचने में कुछ समय लगे। जब मन खाली होगा तो उसमें अपने इष्ट का प्रकाश होगा।’

गायत्री महामंत्र को योग साधक अपनी योग साधना का सर्वस्व मानकर अभ्यास करें। मन-ही-मन प्रत्येक अक्षर का स्पष्ट उच्चारण, साथ ही यह प्रगाढ़ भाव कि इन चौबीस अक्षरों में स्वयं आदिशक्ति जगन्माता अपनी चौबीस शक्यों के साथ समाई है। यह मंत्र स्वयं ही परमशक्ति है। साथ ही साधक को सब कुछ देने में समर्थ है। जप करते समय ही नहीं, जप करने के बाद रह-रहकर साधक के मन में माता का स्मरण होते रहना चाहिए। ध्यान रहे जप के साथ मौन-एकाँत एवं अधिक-से अधिक ब्रह्मचर्य साधक के अभ्यास को दृढ़ करते हैं। यह अभ्यास दृढ़ से दृढ़तर और दृढ़तम कैसे हो, इसके लिए महर्षि पतंजलि वैराग्य का निर्देश देते हैं। वैराग्य क्या है? कैसे किया जाए, इसकी व्याख्या योग साधक अगले माह में पढ़ेंगे।


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