जीवन-साधना के स्वर्णिम सूत्र

June 2003

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जीवन साधना नकद धर्म है। यह नकद सौदा व व्यापार है इसके परिणाम-प्रतिफल के लिए लम्बे समय की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। इसका उपहार हाथो-हाथ मिलता है। इसकी साधना से अन्तर में संचित पशु-प्रवृत्तियों का आवरण कटता-मिटता है तथा व्यक्तित्व निरन्तर उच्चस्तरीय बनता जाता है। उत्कृष्टता और आदर्शवाद की दिव्य उपलब्धियाँ सतत मिलने लगती हैं। नर-पशु के अन्दर नर-देव की झलक-झाँकियाँ झलकने लगती हैं। और इसी के आधार पर उच्चतर कर्म, स्वभाव, चिन्तन और चरित्र विनिर्मित होता है। यही वास्तविक उपार्जन-उपलब्धि है, जिसे परिष्कृत व्यक्तित्व के रूप में जाना-समझा जाता है। यही वह प्रतिभा है जिसे दैवी सम्पदा कहा जाता है।

जीवन की साधना करने का तात्पर्य है, व्यक्तित्व को उत्कृष्ट एवं परिष्कृत करना। यह अनमोल सम्पदा है जो स्व उपार्जित है। इसे स्वयं ही श्रद्धा, व्रतशीलता एवं संयम साधना के सहारे अर्जित करना पड़ता है। इसके लिए किसी से कोई अपेक्षा नहीं की जाती, वरन् यह स्वयं के प्रचण्ड पुरुषार्थ एवं भागीरथी प्रयास के द्वारा प्राप्त की जाती है। यह न तो उत्तराधिकार में मिलती है और न किसी से वरदान-उपहार में उपलब्ध होती है। व्यक्तित्व का निर्माण स्वयं को ही करना पड़ता है। निजी तन्मयता एवं तत्परता का सघन समावेश करके ही इसे हस्तगत किया जा सकता है। इसके लिए अपने अन्दर आवश्यक समर्थता एवं योग्यता उत्पन्न करनी पड़ती है, बीज के समान स्वयं को गलाना पड़ता है, दीपक के समान स्वयं को जलाना पड़ता है।

व्यक्तित्व निर्माण ही जीवन साधना है। जीवन को सार्थक एवं समर्थ बनाने वाली क्षमता अर्जित करने का ही दूसरा नाम व्यक्तित्व निर्माण है। संयमशील, अनुशासित और सुव्यवस्थित क्रिया-कलाप अपनाना जीवन साधना कहा जाता है। जीवन वैभव का श्रेष्ठतम एवं सर्वोत्तम सदुपयोग करना ही जीवन साधना है। व्यक्तित्व को पवित्र, प्रामाणिक, प्रखर बनाने की प्रक्रिया जीवन साधना है। यह साधना अंतरंग जीवन में सुसंस्कारिता का सुवास फैलाती है और बहिरंग जीवन में सभ्यता रूपी शालीन व्यवहार में निखरती है। यूँ तो इस उपलब्धि को प्राप्त करने में वातावरण एवं संपर्क-सान्निध्य भी सहायक होते हैं तो भी मुख्यतया योगदान अपने दृष्टिकोण एवं प्रयास का रहता है। यही सच्ची पात्रता है। ऐसे ही सत्पात्रों को स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, तुष्टि, शाँति जैसी दिव्य विभूतियाँ मिलती हैं और कृतार्थ करती हैं। इनमें सद्भावना, शालीनता, सहृदयता के समस्त लक्षण प्रकट होते हैं जो स्वयं प्रसन्न एवं आनन्दित होते हैं तथा दूसरों की सद्प्रेरणा के केन्द्र बनते हैं। सामान्य स्थिति में रहते हुए भी ऐसे ही लोग महामानव, देवमानव बनते हैं।

आज के अर्थप्रधान आपाधापी वाले आधुनिक युग में इस साधना की सर्वोपरी आवश्यकता है। इन दिनों ऐसे व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति एवं सुदृढ़ चरित्रवानों की आवश्यकता है। जो जीवन के शाश्वत सिद्धान्तों को जन सामान्य में सरल और व्यावहारिक रूप में समझा सके, उपयोगी कर सके। इन्हें अपने प्रयास-पुरुषार्थ की आधारभिति अब ऐसे सशक्त एवं सुबोध आधार पर खड़ी करनी होगी जिसे उपभोक्तावादी, उच्छृंखलतावादी अपसंस्कृति तूफान गिरा न सके, वरन् टकराकर वापस लौटने की अवशता-विवशता अनुभव करे, जो जीवन साधना के सरल, सहज परन्तु स्वर्णिम सूत्रों को स्वयं में उतारे एवं औरों को अपनाने के लिए प्रेरित प्रोत्साहित करे।

जीवन साधना का प्रथम सूत्र है ईश्वर विश्वास। ईश्वर पर आस्था मानवी नैतिकता का मेरुदण्ड है। यही आस्तिकता के रूप में आर्ष साहित्य के पन्नों-पन्नों में बिखरा मिलता है। कर्मफल के विज्ञान विधान का सम्बन्ध भी इसी से है। कर्मफल तत्काल मिलते न देखकर मनुष्य कुमार्गगामी बनता है। वह उच्छृंखल, स्वार्थपरता तथा अनीति के पतन पथ पर बढ़ चलने का दुःसाहस करने लगता है। जबकि ईश्वरीय शासन व्यवस्था की आस्था सन्मार्गगामी बनाती है। आस्तिकता का यह भाव मनुष्य में उपासना, साधना एवं सेवा की वृत्ति को जन्म देता है। जिसे अपनाकर वह अपने कषाय-कल्मषों को नित्य स्वच्छ करता है। और दिव्य अनुदान-वरदान का अधिकारी बनता है। आज परिवार में गायत्री माता का चित्र या अन्य महापुरुषों को ईश्वरीय सत्ता का, मानवीय आदर्शवादिता का प्रतीक मानकर रखना चाहिए जिससे आस्तिकता का वातावरण बना रहे।

आस्तिकता की सजल भावना में ही आत्मविश्वास, आत्मनिष्ठ रूपी आध्यात्मिकता पनपती है। यह अन्तर्यात्रा है, जहाँ अगणित सुप्त शक्तियों को जाग्रत् करने का अवसर मिलता है। यहीं पर आकर बोध होता है कि अपने भाग्य का निर्माता मनुष्य स्वयं है। इस भावबोध के जगते ही मनुष्य अपने गुण, कर्म और स्वभाव की उत्कृष्टता को सर्वोच्च साधना मानकर व्यवहार में उतारने लगता है। शिष्टता, सज्जनता, शालीनता, सहृदयता, उदारता जैसी प्रवृत्तियाँ जीवन के आवश्यक अंग बन जाते हैं। शरीर को भगवान् का मंदिर मानकर उसे सदा स्वच्छ रखा जाता है और लोभ, मोह और वासना-तृष्णा से सदा इसकी रक्षा की जाती है। जीवन में लोकमंगल के लिए बढ़-चढ़कर अनुदान देने की ललक उठती है।

आध्यात्मिकता की इस आन्तरिक वृत्ति के जागरण के साथ ही जीवन में धार्मिकता अर्थात् कर्त्तव्यनिष्ठ उभरती है। धर्म का उदार अर्थ है अपने तथा औरों के प्रति कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना। नैतिक और सामाजिक कर्त्तव्यों को कठोर अनुशासन में बाँधकर रखने से ही धार्मिकता की भावना पनपती है। इससे धनोपार्जन में नीति, न्याय और औचित्य का ध्यान आता है। परिवार को सुगठित, सुविकसित और सुसंस्कृत बनाया जाता है। उनकी आर्थिक सुविधाओं के साथ-साथ सद्गुणों की सम्पदा विकसित करने का प्रयास किया जाता है। बड़ों आदर तथा छोटों को स्नेह देने में तत्परता बरती जाती है। सच्चे अर्थों में यही धार्मिकता है। जो प्रायः परम्पराओं के बंधन से मुक्त होती है।

धार्मिकता के इस धरातल पर ही आत्मोत्कर्ष की कली खिलती है। यही प्रगतिशीलता का पर्याय है। प्रगतिशीलता का तात्पर्य आरोग्य संरक्षण और अर्थ उपार्जन के साथ-साथ अपने ज्ञान, अनुभव एवं दृष्टिकोण का विकास, परिष्कार भी उतना ही आवश्यक है। हमें विचारशील एवं दूरदर्शी होना चाहिए और पूर्वाग्रह दुराग्रह से ऊपर उठकर हर तथ्य की तह तक पहुँचकर यथार्थता को समझने का प्रयास करना चाहिए। हमें सर्वत्र सत्य की तलाश करनी चाहिए और उचित व न्याय संगत निर्णय लेना चाहिए। इसके लिए सत् साहित्य का स्वाध्याय करना चाहिए जो जीवन में नई दिशा दे सके। आत्म समीक्षा के लिए मनन और आत्म निर्माण के लिए चिन्तन अनिवार्य नित्य कर्म माना जाना चाहिए। सही मायने में यही प्रगतिशीलता है, आत्मोत्कर्ष है।

आत्मोत्कर्ष के इस प्रगतिपथ पर संयमशीलता सधती है, इन्द्रिय निग्रह होता है ज्ञानेन्द्रियाँ एवं कर्मेन्द्रियाँ ज्ञानवृद्धि, औचित्य का निर्णय, उत्साह, प्रयत्न, निर्वाह के उपयुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में सहायता, सहयोग के लिए हैं। इनका समुचित उपयोग करने पर ही उस लाभ से लाभान्वित हुआ जा सकता है, जिसके लिए ईश्वर ने उन्हें प्रदान किया है। समझदारी इसमें है कि इन शक्तियों के दुरुपयोग से बचा जाय क्योंकि इसके असंयम में केवल हानि ही है, लाभ कुछ भी नहीं है। इन्द्रिय में स्वाद और कामुकता की विकृतियाँ ही मुख्य हैं, अतः आहार में सात्विकता तथा चिन्तन में उत्कृष्टता से ही इसका निराकरण किया जा सकता है।

संयम के पश्चात् ही समस्वरता आती है अर्थात् मानसिक सन्तुलन प्राप्त होता है। प्रसन्न चेहरा, रचनात्मक चिन्तन करने वाले दूरदर्शी स्वभाव में मानसिक संतुलन के लक्षण प्रकट होते हैं। जो उपलब्ध है उस पर सन्तोष एवं आनन्द अनुभव किया जाय और अधिक प्राप्त करने के लिए एवं आगे बढ़ने के लिए उत्साहपूर्वक प्रयत्नरत रहा जाय। यही सुदृढ़ मानसिक संतुलन है। ऐसी मनःस्थिति वाला आपदाओं विपदाओं में भी दुःख शोक, हताशा, निराशा,उद्विग्नता के दुष्चक्र में नहीं उलझता है। वह हरेक परिस्थितियों को शान्त भाव से स्वीकार करता है। साथ चलने वाले साथी सहयोगियों के छिद्रान्वेषण के बजाय उनके सद्गुण ढूंढ़ना चाहिए तथा उनकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की जानी चाहिए।

जीवन साधना के अन्य सूत्र हैं पारिवारिकता एवं सामाजिकता का भाव। इसे आत्मविस्तार की प्रक्रिया कह सकते हैं। समाज का विशाल कलेवर परिवार की छोटी-छोटी इकाइयों में बसता है। परिवार लघु समाज एवं छोटा राष्ट्र है। परिवार के प्रत्येक सदस्य को वैयक्तिक कर्त्तव्यों एवं सामाजिक उत्तरदायित्व से परिचित कराया जाना चाहिए। इसी प्रकृति के विकास में ही विश्व नागरिकता के मानव परिवार के सृजन की संभावना सन्निहित है। अतः परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्व समझें जाये परन्तु उनके प्रति मोह जाग्रत् न हुआ जाय। दूसरों के साथ वही व्यवहार किया जाये तो हम दूसरों से अपने लिए किए जाने की अपेक्षा करते हैं। हर किसी को सम्मान देने और सद्व्यवहार करने की सत्प्रवृत्ति अपनानी चाहिए। चिन्तन उदार और कर्त्तव्य आदर्शपरक होना चाहिए। हमारा स्वभाव समाज निष्ठ होना चाहिए। व्यक्तिवाद के बदले समूहवाद को प्रश्रय देने से ही सामाजिकता का विकास हो सकता है।

मनुष्य की स्वच्छता और सादगी को ही शालीनता के रूप में निरूपित किया जाता है। स्वच्छता मनुष्य की जागरुकता एवं सुरुचि का परिचायक है। इसमें उसके कलात्मक दृष्टिकोण एवं सौंदर्यप्रियता का प्रमाण मिलता है। उसका विकसित सभ्यता स्तर का पता इस तथ्य से लगता है कि उसका स्वभाव कितना सादगी प्रिय है। सौंदर्य सादगी में झलकता है, सजधज, फैशन की कृत्रिमता और उद्धत प्रदर्शन से शालीनता का स्तर गिरता है। यह सौंदर्य की विकृति है। इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए। इससे समय और श्रम का सन्तुलन सधता है, नियमितता पनपती है। समय और धन का अधिकतम अपव्यय इसी उद्धत प्रदर्शन में चला जाता है। इसे बचाया जाना चाहिए और लोकोपयोगी कार्यों में लगाना चाहिए। कार्यपरायण समय ही सार्थक है। इस सत्प्रवृत्ति के अपनाने से व्यक्ति प्रामाणिक बनता है तथा गाँधीजी के समान जन-जन के हृदय में पूजा जाता है।

सज्जनता, नम्रता, उदारता, सेवा आदि सद्गुणों की प्रशंसा की जाती है। परन्तु प्रखरता, साहस और पराक्रम के बिना यह विशेषताएँ भी अपनी उपयोगिता खो बैठती हैं। अतः हर व्यक्ति को निर्भीक और साहसी होना चाहिए। हर किसी को आत्मविश्वासी होना चाहिए। अपने पुरुषार्थ और साहस पर अगाध आस्था होनी चाहिए। स्वयं के सहारे, स्वयं के साधनों से, स्वयं के संकल्प बल के सहारे अपनी योजनाएँ बनानी चाहिए। दूसरों की सहायता के लिए बैठें नहीं रहना चाहिए। लक्ष्य तक पहुँचने की दृढ़ता और हिम्मत अपने अन्दर उगानी चाहिए। यही जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र हैं जिनसे जीवन सधता है एवं व्यक्ति का परिष्कार परिमार्जन होता है। हम सबको अपने जीवन में इन साधना सूत्रों को अपनाना चाहिए ताकि अपने मानव जन्म की गौरव गरिमा बनी रहे।


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