एक सद्विप्रा बहूना वदन्ति

June 2003

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ईश्वर ज्ञान की वस्तु नहीं है, इसलिए वैज्ञानिक उस संबंध में कोई निश्चित विचार देने से हिचकिचाते हैं तो भी वह इस बात को मानते हैं कि संसार में एक कोई ऐसी वस्तु अवश्य है, जिससे निकलकर ही वह विविधतापूर्ण संसार आया। निर्माणकर्त्ता और पालनकर्त्ता के रूप में विज्ञान भगवान को नहीं देखता। 17वीं शताब्दी ईश्वर के अस्तित्व की मान्यता का सबसे बुरा युग था, क्योंकि इस शताब्दी के अधिकाँश वैज्ञानिकों ने तो यही माना कि ईश्वर की कल्पना भ्रामक है। जे−बी−एस− हॉल्डेन ने पाश्चात्यों के ईश्वर विश्वास का खंडन करते हुए बताया, ‘जब मैं कोई प्रयोग करने बैठता हूँ, तब मैं विचार करता हूँ कि कोई ईश्वर अथवा देवदूत अपने क्रियाकलापों द्वारा मुझको बाधा नहीं डाल रहा, इसलिए मैं कह सकता हूँ कि ऐसी कोई सत्ता नहीं है, जिसे ईश्वर कहा जा सके।’

मूर्द्धन्य मनोविज्ञानी ए0 हिड्रिच ने भी ऐसी विचारधारा व्यक्त की और संदेह प्रकट किया, ‘ईश्वर का कार्य या दायित्व वस्तुवादी संसार में भी धीरे-धीरे क्षीण होता जा रहा है। भौतिकशास्त्र में ईश्वर की आवश्यकता केवल विश्व की उत्पत्ति व्यक्त करने के लिए तो हो भी सकती है। इसके अतिरिक्त उसकी और कोई जरूरत नहीं।’

न्यूटन ने इस स्थिति को न संभाला होता तो संभवतः आज ईश्वर के संबंध में जो थोड़ी-सी मान्यताएं शिक्षित वर्ग में बनी हुई हैं, वह भी समाप्त हो जाती। न्यूटन ने कहा, ‘सृष्टि के उत्पादन में जो एक सिद्धाँत और क्रम है, उसे न तो विज्ञान बिगाड़ सकता है, न ही उस पर शासन और निर्माण थोप सकता है, इसलिए हम एक ऐसी सत्ता से इनकार नहीं कर सकते, जिसको ईश्वर कहा जा सके।’

इस प्रकार विज्ञान भी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें ईश्वरीय अस्तित्व के संबंध में शंकाएं भी हैं और धारणाएं भी, तथापि सभी बड़े वैज्ञानिकों का विचार ईश्वरवादी रहा है। पिछले दिनों आइंस्टीन सबसे बड़े वैज्ञानिक हुए हैं। उनसे जब इस संबंध में अपनी सम्मति देने को कहा गया तो उन्होंने बताया, ‘संसार के संपूर्ण उच्च वैज्ञानिक कार्यों में अपराध-स्वीकृति, बौद्धिकता और निपुणता का सन्निहित होना यह व्यक्त करता है कि धार्मिक भावनाएं गलत नहीं हैं, इसलिए गहन भावनाओं से घिरे हुए इस विश्वास को हमें मानना ही पड़ेगा कि ईश्वर है और वह एक श्रेष्ठ मस्तिष्क है, जो संसार के अनुभवों में स्वयं व्यक्त होता है।’

गैलीलियो का कथन है, ‘प्रकृति की वृहद् पुस्तकें गणित की भाषा में लिखी हुई हैं। उन्हें कोई बुद्धि ही लिख सकती है, इसलिए हम भगवान को बुद्धि या विचार कह सकते हैं।’ ‘ईश्वर सदैव रेखागणित कर रहा है (गॉड इज आलवेज डूइंग ज्योमेट्री)’ यह मान्यता प्लूटो की है।

संसार में बुराइयों, कष्टों की विद्यमानता कभी-कभी ईश्वर की सत्यता पर शंका उत्पन्न करती है कि किस प्रकार ईश्वर निर्दयता, अन्याय और युद्ध की अनुमति देता है, अन्यथा विश्व के सभी धर्म और महापुरुषों ने ईश्वरीय सत्ता को माना और उसकी सर्वशक्तिप्रियता, करुणाशीलता, सुरक्षाशक्ति पर विश्वास किया है।

महापुरुषों के रूप में ईश्वर की प्रामाणिकता का प्रयत्न भी प्रायः सभी धर्मों में किया गया है। किसी-किसी धर्म में वह पैगंबर या फरिश्ते के रूप में प्रकट होता है, किसी किसी में अवतार के रूप में, पर ईश्वर की सत्यता के बारे में संसार के सभी धर्म एकमत हैं। किसी ने उसे न्यायकारी गुणवाचक से संबोधित किया और किसी ने उसे न्यायकारी गुणवाचक से संबोधित किया और किसी ने उसे धर्म उद्धारक के रूप में, पर उसका पूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण कोई धर्म नहीं कर सका, ऐसा कि जिसमें संसार की संपूर्ण परिस्थितियों में उसे विश्वस्त ठहराया जा सका होता। इसी कारण संसार के सभी धर्म अपनी इस मान्यता पर लड़खड़ाते रहे हैं।

मुसलमानों में से अनेक ऐसे हुए हैं, जिन्होंने अल्लाह की सत्ता को प्रवंचना कहा है। सलमान रुश्दी ने अपनी पुस्तक ‘सैटनिक वर्सेज’ में कुरान को भगवान नहीं, शैतान की वाणी कहकर ईश्वर या पैगंबर पर अंगुली उठाई है। अनेक कैथोलिकों ने ईसा को भगवान मानने से इनकार किया। प्रोटेस्टेंट मत इसी का परिणाम था। अवतारवाद का झगड़ा हिन्दू धर्म में भी कम नहीं है। सनातन धर्म में भी ढेरों अवतारों को, गुरुओं को ईश्वर के रूप में माना जाता है। जैन तीर्थंकरों के रूप में, तो सिख गुरुओं के रूप में मानते हैं। अनेक प्रकार के ईश्वरों का अस्तित्व ही इस संसार को भ्रमित करता है। प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा उसे सिद्ध करना वैसे ही कठिन था। जब धर्मों में प्रतिद्वंद्विता दिखाई दी तो तर्कवादी लोगों का उस मान्यता से फिसलना स्वाभाविक ही था।

इस स्थिति में वेदाँत ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जिसकी ईश्वरीय व्याख्या को पूर्ण शुद्ध और बुद्धिसंगत कहा जा सकता है। संपूर्ण मीमाँसा पढ़ने के बाद किसी के भी मन में तर्क या संदेह नहीं रह जाता है, क्योंकि व्याख्याएं विज्ञान के आधारभूत सिद्धाँतों को लेकर चली है और उनमें संपूर्ण दार्शनिक एवं लौकिक परिस्थितियों का विवेचन भी आ जाता है।

वेदाँत ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति के लिए सबसे पास से, अपने आपसे चलने को कहता है। हर शरीर की स्थूलता में भी गुण हैं और गुणों को हम अपने शरीर से अधिक महत्त्व देते हैं। आत्मतुष्टि के लिए माता-पिता अपनी प्रिय वस्तुएं अपने बच्चों को दे देते हैं, जबकि उसका उपभोग करने से उन्हें सुख मिल सकता था। शरीर की आकाँक्षा को मन की आकाँक्षा से निम्नतर मानने के साथ ही संसार में दो तत्त्वों की विलगता का स्पष्ट आभास हो जाता है। एक को चेतन और दूसरे को जड़ कहते हैं। जड़ एकदेशीय पदार्थ है और चेतन सर्वव्यापी। यहीं से ईश्वर के सिद्धाँत का तात्त्विक विकास वेदाँत ने प्रारंभ किया है।

ईश्वर साकार है या सशरीर है, यह एक तथ्य नहीं, कल्पना मात्र है। चूँकि मृत्यु का प्रभाव उस पर पड़ता है, जिसके शरीर है एवं जब हम इस विश्वास को पुष्ट कर लेते हैं कि हमारी चेतना का अंत नहीं होता, हम विश्वात्मा या परमात्मा के बिलकुल अनुरूप हैं तो मृत्यु भी इस विचार के सामने शक्ति और सामर्थ्यहीन हो जाती है। यह एक कल्पना मात्र नहीं, वरन् अपनी चेतना का नाश नहीं होता, वह एक अविनाशी तत्त्व है। हम जब स्वप्न की अवस्था में होते हैं, तब भी हमारी क्रियाएं शरीरधारी जैसी ही होती हैं, वैसे ही संवेगों से हम प्रभावित होते रहते हैं, वैसा ही दुःख सुख हमारे अनुभव में आता है, इसलिए उस स्थिति में भी हम जीवन से बंधे होते हैं, ऐसा कहना कोई निराधार कल्पना नहीं है।

दुःख और सुख, इन दोनों से जब हम अपने आपको रहित मानने लगते हैं और इस विश्वास को अंतिम स्थिति तक सिद्ध कर लेते हैं कि हमारे लिए संसार में मोह-माया की भ्राँति कुछ है ही नहीं, न यहाँ कोई अपना है, न हम किसी के हैं, जब चेतना ही अपनी इच्छा से बनाती बिगाड़ती रहती है, तब हमारे सामने उसका तात्त्विक रूप प्रकट होता है और हम अपने आपको मुक्त अनुभव करने लगते हैं।

कठ उपनिषद् में कहा है, हम ब्रह्म हैं और मृत्यु हमारे लिए एक खाद्य है (1/2/25), छाँदोग्य (6/8/7) में उसे ही ‘तत्त्वमसि’ तू वही है, कहा है। वृहदारण्यक कहता है, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ मैं ही ब्रह्म हूँ। ऐतरेय उपनिषद् (3//1/3) के अनुसार शुद्ध ज्ञान ही ब्रह्म है। वृहदारण्यक (4/4/5) ‘अयमात्मा ब्रह्म’ यह आत्मा ही ब्रह्म है एवं इसी उपनिषद् के 4/4/11 मंत्र में कहा है कि यहाँ इस संसार में कुछ भी बहुतायत नहीं है और यथार्थ में संसार के प्राणियों में जो गुण बरतते हैं अर्थात् इच्छाओं, आकाँक्षाओं को यदि निकालकर मानसिक चेतना का विश्लेषण किया जाए तो ऐसा समझ में आ जाता है कि चेतना एक अगाध सिंधु की तरह है और मनुष्य उसमें इच्छाओं की लहरों की तरह है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ इच्छाओं और वासनाओं से ग्रस्त मानसिक स्थिति को नहीं कहा गया है। उस सबसे परमपद में विश्व-चेतना तादात्म्य की स्थिति होती है, जिसमें न तो किसी प्रकार का राग होता है और न द्वेष, वह कर्म भी करता है और किसी से आसक्त भी नहीं होता, इसलिए सर्वन्यायकारी है। उसमें व्यक्ति के गुणों का समावेश हो गया है। वे गुण है-प्रेम, दया, करुणा, उदारता पर वहीं वह स्वयं इन गुणों से प्रभावित नहीं होता अर्थात् उनसे अलग नहीं है, शुद्ध चेतन अवस्था में वह इन गुणों की ही संज्ञा मात्र है, भाव मात्र है। इस बात को बर्कले ने भी स्वीकार किया था और कहा था, ‘सारे जगत के पदार्थ मानसिक संवेदना ही हैं।’ माँडूक्यकारिका (2/11) में उसे ही इस रूप में कहा गया है, ‘क एतान्बुद्ध्यते भेदान् को वै तेषाँ विकल्पकः?’ अर्थात् कौन इस भिन्न-भिन्न, विश्व में दिखाई देने वाले पदार्थों का द्रष्टा और कौन इनकी कल्पना करता है?

इसी अवस्था में वेदाँत में मन का तादात्म्य ब्रह्म से कराने का यत्न किया है। शास्त्रों में स्थूल अन्न की सात अवस्थाएं कहीं हैं। अन्न से रस बनता है, रस से रक्त, रक्त से माँस, माँस से मज्जा, मेद, अस्थि और वीर्य बनता है। वीर्य अन्न की सूक्ष्म अवस्था है और शरीर में व्याप्त है, पर किसी एक स्थान को काटकर उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता है। वह मंथन से ही दिखाई देता है। वीर्य ही अंतःकरण चतुष्टय मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के रूप में सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता चला गया है। यह क्रमशः इच्छा, आवेश और भावनाओं की गहराइयाँ हैं, जो अंत में जाकर एक ही विश्वचेतना-अहंकार में ढल जाती हैं।

पैंगल उपनिषद् में इस बात को और स्पष्ट कर दिया है कि चूँकि अहंभाव प्रत्येक क्षुद्र प्राणी में होता है, इसलिए शास्त्र की उक्त मान्यताओं को लेकर ही कोई अपने को ब्रह्म न कहने लगे। बहुत से पाखण्डी और दंभी लोग ऐसा करते भी हैं, इसीलिए वेदाँत ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि हृदय को निर्मल करके और अन्नमय ब्रह्म का चिंतन करके यह अनुभव करना चाहिए कि मैं ही सर्वरूप ब्रह्म हूँ, मैं ही परम सुख रूप हूँ। जल में जल डालने से, दूध में दूध डालने और घी में घी मिला देने से वे एकरूप हो जाते हैं। उसी प्रकार परमात्मा के मिल जाने पर उनमें कोई अंतर नहीं रह जाता। जब इस तरह का ज्ञान द्वारा देहाभिमान नष्ट हो जाता है और बुद्धि अखंडाकार हो जाती हैं, कर्मों में कोई आसक्ति नहीं रह जाती, मोह और वासनाएं जलकर नष्ट हो जाती हैं, तभी अद्वैत ब्रह्म की प्राप्ति होती है।

इस स्थिति में मनुष्य पृथ्वी पर ही निवास करता हुआ भी उससे भिन्न रहता है, उसका नियंत्रण भी करता है। उत्पत्ति, रक्षा और विनाश इसी प्रकृति के स्पष्ट गुण हैं, वह अच्छाई और बुराई से परे तत्त्व रूप मात्र है। यह कल्पना और वैज्ञानिक शोध केवल वेदाँत ही संसार को दे सका है। इन तथ्यों का जितना अधिक चिंतन, मनन और धारण किया जाता है, ईश्वरीय सत्ता का बोध उतना ही निर्मल होता चला जाता है। उसके लिए न तो मनुष्य को कहीं अलग जाने की आवश्यकता है और न कुछ और अध्ययन की। गीता के नवें अध्याय में इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए भगवान कृष्ण ने कहा है-

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥4॥ पर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥7॥ मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचाराचरम्। हेतनानेन कौन्तेय जगाद्रिपरिवर्तते॥10॥

हे अर्जुन, मैंने अपने अव्यक्त स्वरूप से इस समग्र जगत को फैलाया अथवा व्याप्त किया है, परन्तु यह आश्चर्य देख कि मुझमें ही सब सृष्टि सन्निहित है, पर मैं उनमें नहीं हूँ। कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति में आ मिलते हैं और फिर कल्प के आरंभ में मेरी अध्यक्षता में प्रकृति ही सब चराचर सृष्टि को उत्पन्न करती है।

अदृश्य की इतनी अच्छी शोध किसी धर्म में नहीं हुई। यहाँ उसका विकास भी किया गया है। जीव को ही ब्रह्म रूप में शुद्ध करके सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, शुद्ध, चैतन्य, मुक्त, कर्माध्यक्ष, साक्षी, द्रष्टा स्वरूप को प्रमाणित किया गया है।


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